इंग्लिश मीडियम का टैबू



मई २०१७ में इरफान खान स्टारर ‘हिंदी मीडियम’ नामक फिल्म की काफी चर्चा थी. सही मायनो में इस फिल्म का नाम ‘इंग्लिश मीडियम’ होना चाहीए था, क्योंकि यह फिल्म बच्चो के अभिभावको कि अंग्रेजी मानसिकता को दर्शाती हैं. बीते कुछ सालो सें अंग्रेजी माध्यम के पढाई को लेकर अभिभावक परेशान नजर आ रहे हैं. इंग्लिश मीडियम के इस टैबू को उपरोक्त फिल्म के माध्यम से तोडने का काम किया गया था.
फिल्म में ‘राइट टू एज्युकेशन’ के साथ अमीरो का खिलवाड दर्शाया गया हैं. यह एक संजीदा फिल्म थी. जिसकी विषयवस्तु को काफी सराहा गया था. सरकार कि राइट टू एज्युकेशन पॉलिसी गरीब तथा आर्थिक कमजोर वर्ग के बच्चो को शिक्षा का अधिकार प्रदान करती हैं. पर इस कोटे में अमीरो ने पैसे के दम पर सेंध लगाई हैं. जो गरिबी का चोला पहनकर गरीबो के शिक्षा के अधिकार को खा जाती हैं. दुसरी और गरीब तथा जहाँ अंग्रेजी शिक्षा कोई माहौल नही वहाँ के इंग्लिश मीडियम के टैबू को लेकर उस फिल्म में चर्चा की गई हैं.
फिल्म में एक पात्र ऐसा है जो दिहाडी मजदुरी करता हैं. वो अपने बच्चो का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में कराना चाहता हैं, बच्चे के माता-पिता दिनभर मजदूरी करते हैं. यह परिवार एक बस्ती में रहता हैं, जहाँ के सारे बच्चे सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल में जाते हैं. पर उस आदमी को लगता है कि उसका बच्चा अमीरो के साथ अच्छे और बढीया स्कूल में हो. वहाँ अच्छी शिक्षा हासील करे. हर वर्ग में अच्छी शिक्षा का सपना देखने में कोई बुराई नही हैं, अच्छी शिक्षा उसका अधिकार भी हैं, सरकार कि इस पर पॉलिसी भी हैं, जो यह चाहती हैं कि ऐसे परिवारो के बच्चो को बेहतर शिक्षा प्रदान हो.
हमारे समाज में यह धारणा बनी हैं की बच्चो को इंग्लिश मीडियम से शिक्षा मिली तो उनका आर्थिक विकास होंगा. उन्हे अच्छा और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना आ जायेंगा, जिससे उसे बडी सी नोकरी मिलेंगी. कुछ लोगों को यह मामला बहुत आसान नजर आता हैं. इसलिए अंग्रेजी माध्यम और महंगे स्कूलों की होड़ में माता-पिता बिना सोंचे-समझे शामिल हो जाते हैं. मानो इन स्कूलों में दाखिला होते ही उनके बच्चे बड़े आदमी बन जाएंगे. माता-पिता इसके लिए किसी भी हद तक जाने को राजी हो जाते हैं. पर हालात उसके बिलकुल विपरित हैं. यह बात सही हैं कि बच्चो को अच्छी शिक्षा मिलनी चाहीए, पर उसके लिए शैक्षिक हैसियत से ज्यादा सोंचना ठीक नही हैं. लोगो को यह विचार विवादित लग सकता हैं. पर असल मायने में अच्छी शिक्षा के उस घर में मोजूद शैक्षिक माहौल और उसकी दशा के बारे में सोंचते नही हैं.
मेरा यह विचार एक अलग दायरे में आपको सोंचने पर मजबूर कर सकता हैं. जिस घर में उच्चशिक्षीत तथा अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं, वहाँ बच्चो के लिए अंग्रेजी स्कूल तथा प्री एज्युकेशन स्कूल फायदेमंद साबीत होते हैं. बच्चा स्कूल सें घर आते ही वह लोग बच्चे का होमवर्क सही से ले सकते हैं, उसके नोट्स पढकर स्कूल से दी गई सूचनाओ को फॉलो कर सकते हैं. उसके स्टडी को आगे ले जाने वाले संवाद उसके साथ कर सकते हैं. इंटरनेट की मदद से उस स्कूली शिक्षा को गती देनेवाला सिलेबस बच्चे को लेकर सिखा सकते हैं. मुलत: घर के अंग्रेजी वातावरण का बहुत बडा फायदा उस बच्चे के शिक्षा को होंगा.
इसके उलट एक सामान्य मध्यवर्ग घर का वातावरण होता हैं. जहाँ बच्चे स्कूल से टुटी फुटी अंग्रेजी के वर्ण सिख कर या रटकर घर आते हैं. रोजाना स्कूल के कुछ घंटो के भीचर वह बच्चा ठिक सें अंग्रेजी सिख नही पाता, उसे और घर पर औऱ ज्यादा पढाने कि आवश्यकता होती हैं. पर घर के बडे किसी हिंदी मीडियम तथा सामान्य स्कूल में पढे होते हैं. उस बच्चे के शिक्षा को बेहतर ढंग से बढाने के लिए उनका सहयोग कम मिलता हैं. अभिभावक अलसुबह उठकर काम पर या दिहाडी मजदुरी के लिए चले जाते हैं, और शाम को लौटकर सो जाते हैं. बच्चे के होमवर्क लेने के लिए उनके पास पर्याप्त समय नही होता. घर की कामकाजी महिला हो या उस बच्चे कि माँ बच्चे को समय न नही दे पाती. उसी तरह बच्चे के किताबे में गढे सिलेबस अभिभावक तथा बडो के समझ से परे होते हैं. फिर सवाल यह पैदा होता है कि, वहाँ उस महंगीवाली अंग्रेजी शिक्षा का क्या फायदा? क्योंकि न तो उस घर में कोई अंग्रेजी जानता हैं, न बोलता हैं. तो फिर बच्चे किसे देखकर, सुनकर अंग्रेजी शिक्षा को आगे लेकर जायेंगे. जिस घर में दोन जून के रोटी जुटाना मुश्कील होता हैं. वहाँ पर भी बच्चो के अच्छी शिक्षा को लेकर सजगता पाई जाती हैं.
दुसरी और मध्यवर्ग में अंग्रेजी शिक्षा का टैबू अपने चरम पर होता हैं. आर्थिक स्थिती ना होने के बावजूद माता-पिता मॉन्टेसरी तथा प्री-स्कूल एज्युकेशन की महंगी फीस भरते हैं. जब तक फीस भरना मुमकीन होता हैं बच्चा उस स्कूल में पढता हैं. पर जब प्री-स्कूल का एज्युकेशन खत्म हो जाता हैं, तो अभिभावक के पास प्रथम कक्षा के लिए अच्छा स्कूल तथा उस स्कूल की महंगी फीस भरना नामुमकीन हो जाता हैं. एक तो ऐसे अंग्रेजी स्कूल शहर से बाहर होते हैं, या फिर घरसे बहुत दूर, जहाँ पहुचने के लिए बच्चो को स्कूल बस का सहारा लेना पडता है. उसकी फीस भी बहुत ज्यादा होती हैं. पर्यायस्वरुप अगर ऑटो या किसी नीजी बस का सहारा लिया तो उस खर्चे का निर्वाहन करना अभिभावको के लिए मुश्कील बन जाता हैं. ऐसे में एक तो बच्चे की पढाई लटक जाती हैं, या फिर उसे सामान्य स्कूल में भेज दिया जाता हैं.
पिछला स्कूल तथा वहाँ कि शिक्षा का पुरी चौपट हो जाती हैं. बच्चे सामान्य स्कूल में घुलमील जाने में समय लगता हैं. इस बीच वह पुरा ब्लॅक हो जाता हैं, पिछले तीन साल की पढाई उसके स्मृतिपटल से धीरे-धीरे गायब हो जाती हैं. उस बच्चे को फिर से नये से शुरुवात करनी पडती हैं. ऐसे में इस मासूम बच्चे को कितनी यातनाए हम दे रहे हैं. इसके बारे मे हम नही सोंचते. मॉन्टेसरी तथा प्री-स्कूल एज्युकेशन में जाने वाले बच्चो की उम्र तीन साल से छह साल के बीच होती हैं. उनकी मानसिक दशा को देखे तो बच्चा इस उम्र में नया सिखता हैं, इस उम्रे में जो भी नई बाते वह ग्रहण करता हैं, उसे अपने मस्तिश्क पटल पर उकेरता हैं. नई-नई बाते वह हर रोज ग्रहण करता हैं. जिसका उसे सरेउम्र फायदा होता हैं. यह उम्र बच्चो के बौद्धिक तथा शारीरिक विकास की होती हैं. इस उम्र में बच्चा कतार में सब सोंचता हैं, और उसको अपने स्मृतिपटल पर सहेजता हैं.
नन्हे बच्चे के इस मानसिकता को बगैर सोंचे समझे हम उसके साथ खिलवाड करते हैं. इसी तरह और एक बडी समस्या को हम अनदेका करते हैं. हर अंगरेजी मीडियम के प्री-स्कूल एज्युकेशन का सिलेबस अलग-अलग हैं, उनकी, किताबे, नोटबूक, पोयम सभी एकदुसरे से भिन्न हैं. हर स्कूल का अपना सिलेबस होता हैं. कही ए फॉर एप्पल तो कही ए फॉर एअरोप्लेन होता हैं. कही बी फॉर बॉल तो कही बॅट होता हैं. कुछ सिलेबस में सी फॉर कॅट तो कही काऊ.. इसी तरह कई व्यंजनो को अलग-अलग नामो से पुकारा जाता हैं. एक घर के दो बच्चे जब साथ बैठकर पढाई करते हं तो वहाँ उन दोनो बच्चो का तालमेल बैठाना मुश्कील हो जाता हैं.
मेरा भतीजा अदीब और भांजा सुफीयान दो अलग-अगल स्कूल में पढते हैं, उन दोनो में कई बार उपर उल्लेखित शब्दो को लेकर असामंजस्य कि स्थिती बनते मैने देखा हैं. वही हमारे बिटिया सबीन के लिए हमने मार्केट के कुछ अल्फाबेट चार्ट खरीदे हैं. जहाँ ए फॉर अँण्ट तो, बी फॉर बलून, सी फॉर कप, डी फॉर डायनोसॉर इस तरह के अल्फाबेट हैं. सबीन वह शब्दो को रटती हैं. पर जब अदीब और सुफीयान मिलते हैं तो सबीन चकरा जाती हैं. क्योंकि दोनो के शब्दो और उसके मिनिंग में बडा अंतर हैं. यह स्थिती बच्चो में बेहतर तालमेंल नही बैठाती. जिससे उनका नन्हा सा दिमाग बी फॉर बॉल मानने को इनकार करता हैं. उसी तरह वह सी फॉर कॅट भी मानने को इनकार करता हैं.
बेहतर होता कि प्री-स्कूल एज्युकेशन का हर सिलेबस एक जैसा हो. सरकार ने उन्हे स्कूल स्थापित करने के मान्यता दे दी, साथ ही अपना-अपना सिलेबस रखनी की सुविधा प्रदान कि पर कही पर भी एक जैसा सिलेबस नही हैं. जहाँ नन्हे बच्चो के मानसिक अवस्था लो लेकर संसोधन कर सिलेबस डिझाईन किया गया हो, उसे हर स्कूल में मान्यता मिले ऐसा नही होता. सिलेबस की निर्माण प्रक्रिया में मोनपली पाई जाती हैं. जिसका विपरित असर बच्चो के मानसिकता पर होता हैं.
सरकार को चाहीए की हर सिलेबस को एक जैसा बनाये. जिससे सभी बच्चे एक जैसी शिक्षा ग्रहण कर सके. उनका आपसे में तालमेल बैठ सके. अंको मे जिस तरह कि समानता हैं, उसी तरह अन्य सिलेबस में भी होनी चाहीए.
सबसे बढी बात कहू तो अंगेरजी मीडियम के टैबू से बाहर आने की जरुरत हैं. माना की अंग्रेजी व्यावसायिक भाषा हैं. पर उसका इतना अतिरेक सही नही हैं. हमारे माता-पिता नें हिंदी तथा सामान्य स्कूलो से शिक्षा अर्जित कर नोकरी पाई हैं. उन्हे उसी शिक्षा में बेहतर अवसर प्रदान हुये हैं. तो अंग्रेजी शिक्षा की डिमांड सही नही हैं. रही बात अच्छी नोकरी की तो वह अब ना तो हिंदी मीडियम मे है ना तो अंग्रेजी मीडियम में. हाँ यह बात हैं कि अंग्रेजी को डिमांड ज्यादा हैं पर उसका मतलब यह नही कि हिंदी तथा प्रादेशिक भाषा को कम महत्व दे.
एक औऱ सरकार प्रादेशिक भाषा को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं, तो वही दुसरी और अंग्रेजी का मार्केट सजाई बैठी हैं. दोनो परस्परविरोधी तर्क और विचार हैं. अंग्रेजी से लोग पैसा कमाना चाहते हैं. जिसके लिए करोडो का मार्केटिंग किया जाता हैं. उस के चपेट में हम सब आते हैं. अंग्रेजी के साथ प्रादेशिक तथा राज्य भाषा हिंदी का भी ज्ञान हमे हमारे आनेवाली पिढी को देना हैं. जिससे वह बच्चा अपनी मिट्टी तथा अपने संस्कृति से जुडा रहेंगा..

हिंदी मीडियम में भी अच्छा रोजगार देनेवाली पढाई हो सकती हैं. साथ ही अंग्रेजी को प्रथम दर्जा देना उचित नही हं. चीन जैसे राष्ट्र ने अपनी जुबान को बढावा दिया हैं. चायनीज भाषा में वह सब व्यवहार करते हैं. अंग्रेजी भाषा का टैबू वहाँ नही हैं. चीन एकमात्र ऐसा देश हैं जिसने दुनिया को अपने पैरो पर ला खडा किया हैं. यही वजह है कि दुनिया के हर हिस्से में चिनी सिखनी कि होड लगी रहती हैं. क्योंकि वह लोग जहाँ कही भी जाए चायनीज में ही बात करते हैं.

कलीम अजीम, पुणे     
Twitter@kalimajeem

वाचनीय

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अनुवाद,2,इतिहास,42,इस्लाम,37,किताब,15,जगभर,129,पत्रव्यवहार,4,राजनीति,271,व्यक्ती,4,संकलन,61,समाज,222,साहित्य,68,सिनेमा,22,हिंदी,53,
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