फिल्मी लेखन की दुनिया में साहिर लुधियानवी और सलीम-जावेद के उभरने के पहले कथाकार, संवाद-लेखक और गीतकारों को आमतौर पर मुंशीजी के नाम से संबोधित किया जाता था। फिर वह प्रेमचंद रहे हों या भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर जैसे दिग्गज साहित्यकार।
ऐसा किसी अवमाननावश नहीं किया जाता था, बल्कि उन दिनों की वही परिपाटी थी। पारिश्रमिक के पायदान पर भी उनका स्थान बहुत ऊपर नहीं था। इस परंपरा में आमूलचूल परिवर्तन हुआ तब, जब साहिर लुधियानवी फिल्म संसार में आए।
इसके पहले शैलेंद्र और हसरत जैसे गीतकारों को भी फिल्मों में प्रयुक्त उनके गानों की संख्या के आधार पर भुगतान किया जाता था और एक गीत के लिए अधिकतम पांच हजार रूपए की राशि उन्हें मिला करती थी। इस तरह बड़े से बड़े गीतकार के लिए भी उन दिनों किसी फिल्म के गीतलेखन के मद्दे पच्चीस-तीस हजार रूपयों से अधिक की आमदनी करना मुश्किल था।
लेकिन साहिर लुधियानवी के फिल्म प्रवेश के साथ ही इस परंपरा को विराम लग गया। उन्होंने स्वयं ही अपना मेहनताना तय़ कर लिया था। एक लाख रूपए प्रति फिल्म। फिर उसके लिए चाहे एक गीत लिखना हो या दस। इस बात का लाभ उठाने में उनके समकालीन गीतकार भी पीछे नहीं रहे।
मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूनी, शैलेंद्र और हसरत, सभी को साहिर के निर्णय का फायदा मिला और उन्होंने भी अपने पारिश्रमिक में आनुपातिक बढ़ोतरी कर डाली।
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नख्शब उसी बदलाव के दौर के गीतकार थे। साथ ही वह फिल्म निर्देशक भी थे और कालांतर में कुछ दिनों के लिए आन जैसी कालजयी फिल्म की तेज-तर्रार अभिनेत्री नादिरा के शौहर भी। अपने जमाने की मशहूर फिल्म जीनत के माध्यम से उन्होंने हिंदी फिल्मों में पहली बार कव्वालियों का समावेश किया था और फिल्म महल में इस्तेमाल किए गए उनके आएगा, आएगा, आएगा आनेवाला... जैसे गीतों से तो इस पीढ़ी के लोग भी अपरिचित नहीं होंगे।
फिल्मी कव्वालियाें को लिखने में उनका सर्वोच्च स्थान रहा है। उस दौरान बनी अधिकांश फिल्मों की कव्वलियां उन्होंने ही लिखी। उस क्षेत्र में उनका एकाधिकार स्थापित हो गया था।
नख्शब एक गाने के लिए पूरे दो हजार रूपए वसूलते थे। नख्शब की दो हजार रूपयों की मांग सुनते ही निर्माता बगैर कोई मोलभाव किए भाग खड़ा होता। और अगर कम पैसों में लिखने के लिए वह तैयार हो जाते, तो उनके बाजार भाव में गिरावट आ जाती।
इससे बचने के लिए उन्होंने एक नया तरीका ईजाद कर डाला था। उनकी चाल में फंस कर निर्माता को इस बात के लिए विवश हो जाना पड़ता था कि मांगी गई धनराशि वह बगैर मीनमेख नख्शब साहब को अर्पित कर दे।
मान लीजिए, कोई निर्माता नख्शब के पास आया। बोला, ‘नख्शब साहब, मैं एक फिल्म बना रहा हूं। उसके लिए मुझे एक गाने की जरूरत है। क्या लिख सकेंगे आप?
‘हां हां, क्यों नहीं। मगर एक गाने के लिए मैं एक हजार रूपए पेशगी लेता हूं। रकम मुहैया करा दीजिए और परसों तक वह गाना आपकी खिदमत में पेश हो जाएगा।’
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नख्शब इस शराफत के साथ यह बात कहते कि निर्माता को हजार रूपए की चेक उनके आगे रखनी ही पड़ जाती। दो दिन बाद वह निर्माता उनके पास आया। गाने के मुखड़े को देख कर बोला, ‘अरे साहब, यह क्या लिख मारा आपने? आप तो कव्वाली लिखने में माहिर हैं, और उसी के लिए मैंने आपसे इल्तिजा की थी। इस तरह के गाने तो मुझे बहुतेरे मिल जाएंगे, इसको लेकर क्या करूं मै’
‘मगर सेठजी, आपने तो गाने के लिए कहा था, कव्वाली के लिए तो नहीं। मैं तो सभी तरह के गीत लिखता हूं। इसमें भला मेरी क्या खता?’
‘लेकिन वह सीक्वेंस तो कव्वाली का है, यह गाना तो उसमें बिलकुल फिट नहीं बैठ पाएगा। अब मैं क्या करूं?’
‘कोई बात नहीं, मैं इसे कव्वाली में ही तबदील कर दूंगा। लेकिन आपको पांच सौ रूपए और देने पड़ेंगे।’ निर्माता बेचारा अपना सिर पीटते हुए पांच सौ रूपए और दे गया। दूसरे दिन कव्वाली पुरुषों द्वारा गायी जाने वाली मिली, जब कि उसे जरूरत औरतों की कव्वाली की थी।
शिकायत मिलने पर नख्शब साहब ने फरमाया, ‘वाह साहब, आपने मुझे यह कब बताया था कि आपको औरतों द्वारा गायी जाने वाली कव्वाली की जरूरत है। आपने तो मुझसे सिर्फ कव्वाली की मांग की थी, और उसे मैं आपके सामने पेश कर चुका हूं। इससे ज्यादा मैं कर ही क्या सकता था, आप ही बताइए।’
‘लेकिन मैं भी क्या करूं, नख्शब साहब? मैं तो बरबाद हो गया। अब आप ही बताइए, इस मसले को कैसे सुलझाया जाए?’ निर्माता बोला।
‘अरे, मैं औरतों की कव्वाली ही लिख दूंगा। सिर्फ पांच सौ रूपए और दे जाइए। पहले से ही इस बात को बता दिया होता तो परेशानी ही क्या थी?’ नख्शब ने पूरे इतमीनान के साथ जवाब दिया। और निर्माता महोदय को विवश होकर पांच सौ रूपए और देने पड़ गए और नख्शब साहब ने एक गाने के लिए पूरे दो हजार रूपए वसूल कर लिए।
देख लिया न आपने रूपया वसूल करने का शायराना अंदाज!
लेखक : अनाम
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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com