गुजरात चुनाव में फिर ये आरोप फिर दागे जाएंगे कि नरेंद्र मोदी नें 2002 में गुजरात में एक हजार मुस्लिमों की हत्या कराई और भाजपा राजीव गांधी पर 1984 के दिल्ली दंगों में 3000 सिखों की हत्या का आरोप लगाएगी। इन सब चीजों को एक परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए मैंने पिछले दशकों के सांप्रदायिक दंगों में शोध किया।
मुझे यह जानकर अचरज हुआ कि सबसे बड़ा सांप्रदायिक हत्याकांड मोदी और राजीव के मातहत नहीं वरना नेहरू के शासनकाल में हुआ था। उनके शासनकाल में 1948 में हैदराबाद पर कब्जे के दौरान 50,000 से 2,00,000 के बीच मौतें हुईं। इस हत्याकांड के बारे में बनी सुंदरलाल कमिटी की गोपनीय रपट के तौर पर वर्गीकृत करके रखा गया है।
1947 में अन्य रियासतों के शासक भारत या पाकिस्तान में शामिल हो गए वही हैदराबाद के निजाम स्वतंत्र बने रहना चाहते थें। यह मामला कम्युनिस्टों की बगावत से और जटिल हो गया। निजाम के ‘मजलिस ए इत्तेहादूल’ संघठन के मिलिशिया (रजाकारो) नें कई हिन्दुओं को मारा और बलात्कार किए। इससे सरदार पटेल और नेहरू गुस्सा हो गए और उन्होंने हैदराबाद में सेना भेजने के आदेश दिए। सेना को तेजी से मिली विजय के बाद स्थानिक हिन्दुओं ने अप्रत्याशित स्तरपर बदला लेने के लिए मुसलमानों के खिलाफ हत्याएं और बलात्कार किए।
मानव अधिकार कार्यकर्त्ता ए. जी. नुरानी ने बॅ. जिना के आलोचक प्रोफेसर कांटवेल स्मिथ का ‘द मिडिल ईस्टर्न जर्नल’ में हवाला दिया है, “ इस दौर में क्या हुआ इसकी सावधानीपूर्ण रपट कुछ अर्से बाद जांचकर्ताओं ने की। इसमें एक कांग्रेसी मुस्लिम और एक सहानुभूति रखनेवाले और बहुसम्मानित (प्रोफेसर सुंदरलाल) थे जिन्हें भारत सरकार ने ही काम सौंपा था। रपट पेश तो की गई मगर प्रकाशित नहीं की गई। यह सोचकर इसे पढ़ना सुखद नहीं होगा।”
व्यापक तौरपर यह माना जाता है कि 50,000 मुस्लिमों के मारे जाने का जिक्र किया गया है। अन्य जिम्मेदार पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि यह आंकड़ा बहुत ज्यादा यानी 2,00,000 का है। एक छोटा मगर चौंकानेवाला अनुमान यूसीएलए के प्रोफेसर पैरी एंडरसन की तरफ से आया है, जब भारतीय सेना ने हैदराबाद को जीत लिया हिन्दुओं द्वारा मुस्लिम जनता का बड़े पैमाने पर नरसंहार होने लगा।
इनमें से कुछ के बारे में पता चलने पर शीर्षस्थ कांग्रेसी मुस्लिम नेता और तात्कालिक शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने नेहरू को इस बात के लिए तैयार किया कि एक दल इसकी जांच करे। इसने रपट दी कि भारत द्वारा कब्जे के कुछ हफ्तों के दौरान 27,000 से 40,000 के बीच मुस्लिमों की हत्याएं हुईं। भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा हत्याकांड था।
नेहरू ने हैदराबाद पर भारत के विजय की घोषणा करते हुए कहा था कि इस विजय के दौरान एक भी सांप्रदायिक घटना का दाग नहीं लगा। लेकिन रपट मिलने के बाद उन्होंने क्या कार्रवाई की? उन्होंने उसे दबा दिया और पटेल के कहने पर इस रपट के लेखकों में से एक लेखक की मध्य पूर्व में राजदूत के रूप में नियुक्ति रद्द कर दी।
नरसंहार के बारे में एक शब्द लीक नहीं होने दिया गया जिसमें उनकी सेना ने उत्साह से हिस्सा लिया। बीस वर्ष बाद जब रपट के बारे में खबर सामने आई तो उनकी बेटी ने दस्तावेज का प्रकाशन यह कहकर रुकवा दिया कि ऐसा करना राष्ट्रीय हित के लिए हानिकारक है।
पैरी एंडरसन पर कुछ भारत विरोधी पूर्वाग्रहों का आरोप है लेकिन विलियम डेलरिम्पल के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। ‘एज ऑफ काली’ में डेलरिम्ल कहते हैं, “सुंदरलाल की रपट विदेशों में लीक हुई और प्रकाशित भी और अनुमान है कि 2,00,000 हैदराबादी मुस्लिमों की हत्या हुई।”
हमारी पाठ्यपुस्तकें और टीवी कार्यक्रम सरदार पटेल और नेहरू को देवतातुल्य बताते हैं जिन्होंने एकीकृत भारत का निर्माण किया। लेकिन सत्य और ज्यादा घिनौना है। आप हमारी इतिहास की पाठ्य़पुस्तकों में हैदराबाद हत्याकांड का कोई जिक्र नहीं पाएंगे। (जैसे पाकिस्तान ने 1971 के पूर्वी पाकिस्तान के हत्याकांड का जिक्र पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया है।)
नेहरू और पटेल के सफेद रंगने का काम पूरा हो चुका है। मेरे दोस्त सवाल करते हैं कि 1948 की विभीषिका को अब क्यों उठाया जाए। लगता है आप 2002 में मोदी द्वारा की गई हत्याओं के समर्थक हैं।
मैं केवल इतना कह सकता हूं कि 1948 की हत्याएं 2002 और 1984 या अन्य हत्याओं का औचित्य साबित नहीं कर सकतीं। मोदी के हाथों में खून लगा हुआ है भले ही उनका सीधा दोष न हो। लेकिन बाकी लोग क्यो यह ढोंग करते रहें कि उनके हाथों पर कोई दाग नहीं है।
मोदी ने हाल ही में पटेल की जो प्रशंसा की उसका तर्क बहुत बहुत भयानक है। दोनों बहुत अलग नहीं हैं। देशों को अपनी अतीत की भूलों को स्वीकार करना चाहिए ताकि भविष्य में उनसे बचा जा सके। जर्मनी ने फासीवाद और सैन्यवाद की भयावहता को स्वीकार किया। इससे नए युद्ध विरोधी और मानव अधिकारों पर बल देनेवाले समाज की निर्माण में मदद मिली।
स्वतंत्रता के बाद के इस सबसे बड़े नरसंहार के बार में भारतीय नागरिकों को अंधेरे में रखने में कुछ बहुत गलत है। विदेशों स्रोतों ने इस पर से पर्दा हटा दिया है, भारत की जिहादी प्रेस 1948 के हत्याकांड से पूरी तरह से अवगत है और इसकी सेंसरशिप को हिन्दू अत्याचार मानती है।
उदारवादी लोकतंत्र इस तरह से काम नहीं करता। भारत दबाई गई रपटों, साफसुथरी तस्वीर पेश करनेवाली पाठ्यपुस्तकों के द्वारा वास्तविक एकीकृत देश नहीं बन सकता। सुंदरलाल की रपट को प्रकाशित किया जाना चाहिए।
- स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर
साभार- टाइम्स आफ इंडिया
25 नवंबर
2012 से
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