काफ़िराना : संप्रदायवाद और कट्टरता का आसान जवाब

फसाना ‘काफ़िराना’ आज की धर्मांध (Fanatic) राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है। संप्रदायवाद, हिंदुवादी राजनीतिक विचार तथा सामाजिक सद्भाव इस रचना का मुख्य केंद्रीय विषय हैं।

‘काफ़िराना’ की कहानी शुरू होती हैं, 1993 के मुंबई दंगों से और 2014 के हिंदुवादी राजनीतिक तूफान के साथ खत्म होती है। लेखक ने कुल 155 पन्नो में पूरे तीन दशकों के सांप्रदायिक पटल को रेखांकित किया है। लेखक गफ़्फार अत्तार युवा लेखक हैं, यहीं वजह है कि उन्होंने अपने आसपास की समकालीन राजनीतिक वस्तुदर्शिता को बड़ी ही खुबसुरती से पिरोया है।


लेखक ने काफिराना में अपने अनुभव और अवलोकन को समायोजित किया है। उपन्यास का नायक हमीद तांबे कोंकणी मुस्लिम है। जब उसका जन्म हुआ, तो बाबरी विध्वंस के बाद मुंबई में दंगे भड़क उठे थे। इसमें उसके दादा हिंदुवादी गुंडों के हमलों का शिकार हुए।

पैदा होते ही वह अपने दादा की मौत की वजह बनने की ताने सुनता हैं। आगे बड़ा होते होते यही बाते उसके कानों में सुनाई देती हैं। सोते-जागते दादी सुलताना बेगम उसे दादा के मौत का जिम्मेदार मानते हुए कोसती हैं। नतीजतन, नायक आत्मग्लानी में न डुबते हुए, एक विद्रोही और तुलना में अधिक उदार और नरमदिल हो जाता है।

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हमीद का विद्रोही रवैया नायक के रूप में उपन्यास में कदम दर कदम आते रहता है। उसके वालिद डॉ. रशीद और मां डॉ. सलमा रत्नागिरी की एक मशहूर डॉक्टर हैं। उन्हें लगता है कि उनका एकलौता लडका उनके बिजनेस को आगे बढ़ाएगा और उसमें ज्यादा तरक्की करेगा। लेकिन हमीद न केवल अपने मां-बाप के ख्वाहिशों को ठुकराता है, बल्कि लोक कल्याण की भूमिका निभाते हुए एक अलग रास्ता भी चून लेता है।

उपन्यास मराठी मुसलमानों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को स्थापित कर उसे आगे बढ़ाता है। इसी तरह मराठी मुसलमानों की राजनीतिक और सामाजिक मानसिकता को आकार देने की प्रक्रिया को भी ध्यान में रखता है। लेखक जगह-जगह इस्लाम, उसका फलसफा, धर्मशास्त्र, चिंतन, फिरकापरस्ती आदि की मूलत: उदार चर्चा करते है।

नायक यूपीएससी परीक्षा का एक प्रतियोगी हैं। वह बहुत ठंडे मिजाज का और महत्वाकांक्षी नौजवान है। राष्ट्र सेवा दल की शाखा में वैचारिक परवरिश पाने के वजह से उसकी मुसलमानों को लेकर राजनीतिक और सामाजिक समझ उस समय के समाजवादियों की तुलना में कई गुना ज्यादा मजबूत और स्पष्ट नजर आती है। इतना ही नहीं, वह भारतीय मुसलमानों को राजनीतिक और धार्मिक रूप से नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से समझने के लिए प्रोत्साहित करता है। मुसलमानों को एक भारतीय समाज के रूप में जानने-समझने के लिए आस-पास के हिंदुओं को एक नया नजरिया प्रदान करता है।

उसके सामने एक आदर्श समाज की रुपरेखा हैं। जहां मज़हब के नाम पर कोई एक-दुसरे को कमतर या अपने आप को बड़ा नहीं समझेगा। रोज के मामूल में मजहब की दखल ना के बराबर होगी। उसका मानना है कि प्रशासनिक सेवा से प्राप्त शक्ति और अधिकार से लोगों की अच्छी तरह सेवा की जा सकती हैं। वह इसके लिए मुमकीन जद्दोजहद करने की उसकी तैयारी हैं। इसलिए, वह अपने अब्बू द्वारा दिलवाये एमबीबीएस दाखिले को ठुकराकर मुंबई आता है। प्रतिष्ठित संस्थान से उच्च शिक्षा ग्रहण कर दिल्ली जाकर प्रतियोगी परीक्षायों के बाजार में खुद को साबित करने की कोशिश में लग जाता हैं।

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मुखर्जी नगर, जो उपन्यास में प्रतियोगी परीक्षाओं का कमोडिटी मार्केट हैं, उसका सटीक चित्रण लेखक कई पन्नों में करते हैं। प्रतियोगी परीक्षा, प्रतियोगी छात्र, उनकी आदतें, रोजाना की चर्चाए, जम्हूरियत के प्रति नजरिया, दोस्त-अहबाब, परिवेश, पाठ्येतर अध्ययन, राजनीतिक चर्चा के साध विभिन्न नजरिये पर विस्तृत और वैचारिक परामर्श पेश होता है। साथ ही सामाजिक और वैचारिक उलझनो को भी लेखक बड़े सादगी और तटस्थता के साथ रेखांकित करते हैं।

संयोग से जिस समय नायक दिल्ली आता हैं, उसी समय रामलीला मैदान में रामदेव बाबा का आंदोलन चल रहा होता हैं। लेखक तटस्थ रहते इस आंदोलन की रूपरेखा को पाठको के सामने रखते हैं। लेखक अपनी अमोघ हिंदोसितानी भाषा में आंदोलन पर सूक्ष्म टिप्पणियों को प्रस्तुत करते रहते हैं। लेखक अन्ना, रामदेव, केजरीवाल, किरण बेदी आदि जैसे आंदोलनकारियों की ताकते और खामियों का व्यक्तिगत मूल्यांकन करते है। इसमें लिप्त छिपी शक्ति, जन समर्थन, मीडिया का प्रचार, लोगो का जमावड़ा, प्रोटेस्ट टूरिज्म के लिए युवाओं के शामिल होने आदी मानसिकता का सूक्ष्म अवलोकन करते है। कभी-कभी व्यंग्यात्मक तरीके से आलोचना भी करते है।

लेखक परोक्ष रूप से कहते हैं कि सामाजिक आंदोलन गहरे दोस्त और प्यार पाने का एक अहम केंद्र है। दरअसल यहीं इसी जगह आंदोलन में डफली बजाते हुए नायक को उसकी प्यारी सकीना मिलती है।

अफसाना प्यार और उसके ताने-बाने, उस समय के राजनितिक चिंतन को नोटिस करते हुए आगे बढ़ता हैं। अस्तित्व और पहचान का सघर्ष एक अहम मौजू के रुप में अफसाने में आता हैं। साथ ही हिंदू-मुस्लिम संघर्ष तथा आपसी पंथीय भेद के कई मुद्दे लेखक बढ़ी ही शालिनता से प्रसंग दर प्रसंग पेश करते हैं।

उपन्यास के दुसरे हिस्से में नायक अपना प्यार, मिलाप, समाज के ताने, आपसी रंजिश, शादी की कोशिशे तथा पंथीय विवाद से दो हाथ करता हैं। सकीना इस्लाम के अलग पंथ के होने के वजह से उसके शादी में कई रुकावटें पैदा होती है। अमित को शादी से रोकने के लिए सांप्रदायिक तनाव भी पैदा किया जाता है। प्यार को हासिल करने की फिराक में हमें बहुत कुछ खो देता है। 

प्यार को परवान न चढ पाने के सुरत में नायक उदास, निराश नही होता। ना ही दुनिया छोड़ने की बाते करता हैं। उतने ही शिद्दत से उपर उठने की ठानता हैं। और सांप्रदायिक ताकतों के सामने थक-हार कर नहीं बैठता। बल्कि अपने आप को और मजबूत बनाकर पेश करता हैं। खुद से लोहा लेते हुए यूपीएससी क्रैक करता हैं। पर एक प्रतिष्ठित अधिकारी बनने के बजाय समाज सेवा करने का अहद पूरा करता है।

परंपरावाद, ब्राह्मण्य, हिंदुत्व, बजरंग दल, भगवे गुंडो की बदमाशी, तथाकथित संस्कृति रक्षकों की धर्मांधता आदि उपन्यास में समय-समय पर स्वाभाविक रूप से आते हैं। नायक का सपना धर्म विरहित समाज को स्थापित करना है। इसमें जाति, पंथ, धर्म को व्यक्तिगत तथा निजी स्तर पर माना जाएगा। वास्तव में, जिसमें एक इन्सान को देश, राष्ट्र और सिर्फ नागरिक के रूप में एक दूसरे को जानेगा।



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नायक का सपना जाति-धार्मिक संघर्ष से मुक्त समाज हो। हिंदू-मुस्लिम दंगे या अन्य भेद नहीं होने चाहिए। इसके अलावा, हमीद तांबे इस सिद्धांत को लेकर प्रतिबद्ध हैं कि हर किसी को अपने मानवाधिकारों की रक्षा, उनका संरक्षण और संवर्धन होना चाहिए।

यूपीएससी में सफलता प्राप्त करने के बाद, नायक ने प्रशासनिक नौकरी करने के बजाय जाति मुक्त समाज की अवधारणा को लागू करने के दिशा में कार्यरत हो जाता हैं। धर्म का चोला फेक कोई भी उस क्षेत्र में कोई भी दाखिल हो सकता है। 

लेखक कहते हैं, “..इस गाँव की और एक ख़ूबी यह भी है कि यहाँ जो क़रीब पाँच सौ दो मंजिला मकान है पर उनका कोई भी मालिक नहीं है। क्योंकि यहाँ रहने वाला कोई भी इंसान इस गाँव का परमानेंट नागरिक नहीं है। किसी भी जाति, धर्म, देश का इंसान यथोचित फ़ीस भरकर इस गाँव में प्रवेश पा सकता है। इस गाँव में प्रवेश पाने के लिए उसे केवल एक शर्त का पालन करना ज़रूरी होता है। वो शर्त यह कि गाँव में रहते हुए कोई भी शख़्स अपनी धार्मिक पहचान सार्वजानिक नहीं कर सकता।..”

अमूमन वह एक समृद्ध समाज बनाने में भी कामयाब भी होता है। लेकिन एक बार ही तरह कट्टर ताकतें उसके सपने को कमजोर कर देती हैं; यह पूरे ‘काफ़िराना’ उपन्यास का कथानक है।

गफ़्फार अत्तार पुणे में जीएसटी भवन में एक वरिष्ठ अधिकारी हैं। पेशे से डॉक्टर गफ्फार कुछ समय तक यूपीएससी के कंटेस्टेंट भी रहे। इसलिए, उन्होंने इस क्षेत्र में कई बारीक विवरण बहुत ही अच्छे अंदाज में दर्ज किए हैं।

आखीर में, ‘काफ़िराना’ उपन्यास वर्तमान अवस्था की भयावह वास्तविकताओं को दर्शाता है। असल में यह उपन्यास सिर्फ सवाल खड़े नही करता बल्कि उन सवालों के हल करने के जवाबात और नजरिया भी पाठको को देता हैं।

उपन्यास में सकारात्मक ऊर्जा और सांप्रदायिक माहौल का सामना करने के लिए एक जिद देता हैं। उपन्यास को वर्तमान हिंदू कट्टरता तथा धर्मवादी राजनीति के प्रतिनिधि के रूप में देखा जा सकता है।

इसे हिंदी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह #हिंदी_युग्म द्वारा प्रकाशित किया गया है। उपन्यास थोड़े ही समय मे #ॲमेझॉन की बेस्टसेलर सूची में आया है। यह कहू तो कोई बुराई नही होगी की ‘काफ़िराना’ सांप्रदायिक वातावरण से सकारात्मक दिशा में कदम बढ़ाने के लिए एक पथदर्शी है।

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कीताब का नाम : काफ़िराना
प्रकार : उपन्यास
भाषा : हिंदोसितानी (हिंदी)
पन्ने : 155
कीमत : 199
प्रकाशक : हिंदी युग्म
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कलीम अजीम, पुणे
मेल- kalimazim2@gmail.com

वाचनीय

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