तालिबान पर भारतीय मुसलमानों को निंदा प्रस्ताव धमकियां !

भारत में सभी को और गोदी मीडिया को भी पता है की तालिबान के साथ भारत सरकार बैठकें कर चुकी हैं। इसी तरह तालिबान के सत्ता को लेकर भी भारत सरकार को कोई दिक्कत नहीं है, ऐसा सरकार ने ऑफिशियल बयान दिया है। मतलब भारत के बीजेपी सरकार ने अफगान में निवेश किए गए 3 हजार करोड़ पर पानी फेर दिया हैं।

बीते तीन सालों मे कतर स्थित दोहा में तीन दफा भारत के राय को लेकर तालिबानीयों के बीच मीटिंगें हुई है। इस बारे में अखबारों में कई तरह की खबरें छप चुकी है। पायोनियर की खबर यहां लगाए देता हूँ, अखबार ने क़तर देश के उस अधिकारी का बाक़ायदा नाम छापा था जिसने ये दावा किया था कि भारत सरकार तालिबान से मिल रही है। क़तर के उस अधिकारी का नाम है ‘मुतलक़ बिन माजिद अल-क़हतानी।’

क़हतानी बताते हैं, “I understand that there has been a quiet visit by Indian officials...to speak with the Talibans. Why? Because not everybody is believing that the Taliban will dominate and take over, because Taliban is a key component of, or should be or is going to be a key component of the future of Afghanistan.”

पायोनियर आगे लिखता हैं, “The Government is yet to react to the Qatari diplomat’s comments. Earlier this month, MEA Spokesperson Arindam Bagchi said that India is in touch with various stakeholders in Afghanistan in pursuance of its long-term commitment towards peace, development and reconstruction of that country.”

क़हतानी कोई मामूली अधिकारी नहीं हैं। इनका ओहदा ‘Special Envoy for Counter-Terrorism and Conflict Resolution’ हैं, इन जनाब ने ये दावा एक वेबिनार में किया था। जिसका आयोजन अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी स्थित अरब सेंटर ने किया था।

संबंधित खबर में वह कहते हैं, मोदी सरकार के अधिकारी तालिबान से मिलने दोहा जाते रहे हैं। पिछले महिने भारत के विदेश मंत्री जयशंकर भी दोहा गए थे, जिसे लेकर मैंने भी एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी। इस मिटिंग को लेकर वरीष्ठ पत्रकार सुहासिनी हैदर ने दि हिंदू में एक आर्टिकल लिखा था, जिसमें वह कहती हैं,

“The statement came just days after External Affairs Minister S. Jaishankar stopped over in Doha to meet with the Qatari leadership twice in the last two weeks. The MEA declined to comment on Mr. Qahtani’s statement, and did not respond to questions about what level, if any, contacts with the political leadership of the Taliban based in Doha would have been at.”

‘दि हिंदू’ से क़हतानी ने कहा, “'मेरा मानना है कि तालिबान से बात करने के लिए भारतीय अधिकारियों का चुपचाप एक दौरा हुआ है।” जबकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने क़हतानी के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की। इसके साथ ही ये भी नहीं बताया कि अगर बातचीत हो रही है तो किस स्तर की बात हुई है।

बताता चलू के जुलाई से पहले भी तालिबान से बात करने जयशंकर दोहा गए थे। इस बात को नजरअंदाज करते हुए भारतीय मीडिया तालिबान के आड़ में भारतीय मुसलमानों पर लांच्छन लगा रहा है। वैसे ये उसके लिए कोई नया काम नहीं है। अब भारत में मौजूद बीजेपी सरकार ये दोहरा खेल क्यों खेल रही हैं, इसका जवाब भारत में मुसलमानों के प्रति बीजेपी और संघ का जो रवैय्या हैं उस से अलग कर इस मामले को देखा नहीं जा सकता।



दोषी भारतीय मुसलमान

दुनिया भर में इस्लाम तथा मुसलमानों को लेकर जो भी कुछ होता है, उस लेकर भारतीय मीडिया तथा कथित बुद्धिजीवी स्थानीय मुसलमानों को जिम्मेदार और कुसुरवार साबित करने लग जाते हैं।

बुद्धिजीवी फिर व ट्रोल आर्मी हो या दक्षिणपंथी लेखक हो या फेसबुकी लिबरल्स या फिर खुद को दक्षिणपंथ से अलग साबित करने वाली लेखकमंडली, सब एक ही सिक्के के पहलू हैं। यह सब लोग भारतीय मुसलमानों से इन प्रकार के विदेशी कारनामे पर निंदा प्रस्ताव पारित करने की धमकियां देते हैं। ऐसा न करने पर उन्हें मानवता विरोधी, देश विरोधी तथा कट्टरपंथी साबित किया जाता है।

यह एक सोची-समझी नीति के तहत होता है। भारतीय मीडिया में जिस नस्ल और वंश के लोग बैठे हैं, उन्हें पता है कि किसी भी तरह के मामलों को लेकर मुसलमानों को टारगेट करना है। एनडीटीव्ही के रविशकुमार कहते हैं, इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि भारत के लोगों को अफगान औरतों से हमदर्दी है। वो इन प्रसंगों को इस्तमाल एक मज़हब को लाछिंत कर सांप्रदायिक उन्माद को सही ठहराने भर के लिए कर रहे हैं।

किसी भी तरह से भारत में मुसलमानों का चरित्रहनन करना, यहीं मकसद बन गया हैं। यही वजह है कि बीते कुछ सालों में भारत में रोजाना जो भी कुछ मुद्दे बनते हैं, उन्हें हिंदू बनाम मुस्लिम बनाया जाता है। कहीं से भी कोई लाइन लाकर उसमें जोड़ दी जाती है और मीडिया तथा उसके बैठाए दाढ़ीनुमा पेड़ वर्कर घिसी पिटी स्क्रिप्ट को दोहराते रहते हैं।

इन टेलिविजन के पेड़ मुल्लाओ को सैंपल बनाकर सारे मुसलमानों को दोष दिया जाता है और कहा जाता है कि देखो, देखो.. मुसलमान कट्टरपंथी है। देखो और तय कर लो, यह क्या कर रहे हैं। यहीं वजह है की, जब किसी विदेश नीति के मुद्दे पर न्यूज चॅनेल वाले किसी मुल्ला के आगे माईक लगा देते हैं।

चॅनेलवाले अपने रिपोर्टरों से कहते हैं, डे ड्राइव्ह वाला कॉन्टेन्ट यहीं से मिलने वाला हैं। और कुछ लोग उनका अजेंडा भी सहीं साबित करते हैं। विदेश नीति के एक्सपर्ट की तरह अपनी बेतुकी राय देने लगते हैं। उन बयानों पर मीडिया चिखता चिल्लाता रहता हैं, इन बेतुके बयान देनेवालो को यह पता नही होता है, की उनके इन्हीं हरकतो को लेकर भारतीय मुसलमानों का नाप-तोल होता हैं।

बीते दिनों एक व्हॉट्सएप पढ़ा, जिसमे लिखा, था, कोई मौलाना से कहता हैं, तालिबानीयों पर आपकी क्या राय हैं, जवाब में वह कहते हैं, जो भारत सरकार की राय वहीं मेरी भी राय!” यह एक डिप्लोमॅटिक जवाब हैं। भारत के मुसलमानों को इस जोक से कुछ सिखना चाहिए। पर ऐसा होता नही हैं, खबरों में रहने के चक्कर में गोदी मीडिया के ट्रॅप में वह फंस जाते हैं। अफगान मामले में, मैं तो दिवार स्टाइल में कहूँगा, जाओ पहले उस सरकार से जवाब लेकर आओ, जिसने.....!

मुसलमानों को कट्टरवादी साबित करने की यही सोच को बनाए रखने के लिए दुनिया भर के मुसलमानों से रिलेटेड मुद्दे, खबरों को ढूंढ-ढूंढ कर लाया जाता है और उन्हें भारत के नागरिकों के सामने परोसा जाता है। दुनिया भर के ऐसे मामले लाकर भारतीय मुसलमानों के सामने रख दो और उन्हें जिम्मेदार ठहराते रहो। यह सब देखकर यहां के मुसलमान खुद को दोषी और इस्लाम को कसूरवार मानते रहेंगे।

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किसकी नीति?

ऐसे एंटी इस्लामिक थ्रेट दुनिया भर में मौजूद है। इसके लिए अमेरिका पुरस्कृत देश तथा संस्था, संघठनाएं काम करती है। आपको शायद याद न हो, 11 सितम्बर 2001 को जब पेंटागन में हमला हुआ था, तब तत्कालीन अमेरिकी अध्यक्ष राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने बयान दिया था, हमने चरमपंथ के खिलाफएक वैश्विक जंग का आगाज़ किया हैं, जिसे उन्होंने धर्मयुद्ध यानी क्रूसेड करार दिया था।

दुनियाभर को पता हैं की, चरमपंथ को पैंदा करनेवाला और उससे मुकाबला करने के लिए हथियारों के ब्रिक्री की नीति तथा मानवता के लिए शांति प्रस्थापित करने का ढोंग करनेवाला कौन हैं? कई जाने-माने विदेशी मामलों के विशेषज्ञ, लेखक तथा बुद्धिजीवी मान चुके हैं की, चरमपंथ को बनाने और भूनाने के पिछे किसकी और कौनसी आर्थिक नीतियां छिपी हैं।

बीते कुछ सालों से दुनियाभर में दक्षिणपंथी विचारों की भरमार हुई है। इनका मकसद दुनिया भर में इस्लामफोबिया को बढ़ावा देना होता है। ऐसा करने पर ऑइल मार्केट के अरब मुमालिक सकते में आएंगे, खुद को राजनीतिक रूप से असुरक्षित महसूस करेंगे और इस थ्रेट से बचने के लिए अमेरिका के आर्थिक नीतियों का दोहन करेंगे। और यह होता भी है। यही वजह है कि इस्राइल ने नॉर्मलाईजेशन एक्ट के तहत अनेक इस्लामिक मुल्कों को अपना पिट्ठू बना दिया है।

बात भारत की करें तो, जाने अनजाने में या सूझबूझ के साथ भारतीय मीडिया इसी अमरिकी नीति का दोहन करता है। आज जब तालिबान मामले को लेकर अमेरिका मुंह के बल गिरा है तब सारी दुनिया तालिबान को ही दोषी मान रही है। भारत के बुद्धिजीवी तथा मीडिया को अफगानी तथा उनके महिलाओं की फिक्र सता रही है।

मगर जब यहां धर्म और नस्लभेद के नाम पर जब मुसलमानों पर कातिलाना हमले किए जाते हैं, उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जाती हैं, उनका टारगेट किलिंग किया जाता तब भारतीय और गोदी मीडिया आसानी से चुप्पी साध लेता हैं। वह ऐसा करेंगा, क्योंकि मुसलमानों पर हमले करना सॉफ्ट टारगेट हैं, भला वह अपने आकाओ से सवाल कैसे पूछ सकते हैं ! और साधारण लोग भी इसी नक्शे कदम पर चलना शुरू कर देते हैं।

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सवाल किससे करे?

आज बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति है। जिन्हें दुनियाभर में लिबरल चेहरे के रूप में स्थापित किया गया है। यहीं वजह है कि उनसे कोई व्यक्तिगत तथा निजी तौर पर सवाल नहीं पूछता। मान लो अगर इस जगह डोनाल्ड ट्रम्प होते तो महज मजाक के लिए ही क्यों ना हो, दुनिया भर में ट्रम्प ट्रोल किए जाते। उन्हें गालियां बकी जाती, भला-बुरा कहा जाता। अफगान तथा अन्य मामले में डोनाल्ड ट्रम्प ने जो नीति अपनाई है जिससे अमेरिकी जनता को राहत मिली है, इसलिए हमें ट्रम्प की इन नीतियों का स्वागत करना चाहिए।

तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रेस को बताया था, “इतने सालों के बाद हमारे लोगों के घर वापस लाने का समय आ गया है। अमेरिका की एक और पीढ़ी को अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के लिए नहीं भेजेंगे।

ट्रम्प ने अपने बहुचर्चित चुनाव अभियान मेक अमेरिका ग्रेट अगेनके दौरान अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध को एक बड़ी भूल करार दिया था उन्होंने अमेरिकियों से कहा था कि वह अफगानिस्तान में युद्ध खत्म कर अपने सैनिकों को वापस लाएंगे।

बात अमेरिका के हार की करे तो जाहिर सी बात है कि एक लंबे युद्ध के बाद अफगान में अमेरिका के पैर लड़खड़ा रहे थे। उसके और भाड़े के सैनिक रोजाना मारे जा रहे थे। 20 साल नैटो सेना अफगान में स्थापित करने के बावजूद भी वह शांति समझौता नहीं कर पाया। वॉशिग्टन डीसी स्थित बीबीसी के पूर्व पत्रकार अजीत साही के मुताबिक 2011 में उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने गुड तालिबान बैड तालिबानका नारा देकर तालिबान से सीक्रेट मीटिंग की थी। इसके बाद अमेरिका की शह पर पाकिस्तान ने मीटिंगें करनी-करानी शुरू की थीं।

आगे लिखते हैं, 2015 में पाकिस्तान में तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के बीच बातचीत हुई जिसमें चीन और अमेरिका ऑब्जर्वर के नाम पर मौजूद थे। ऑब्जर्वर का मतलब ये कि औपचारिक तौर पर अमेरिका नहीं दिखाना चाह रहा था कि वो बात कर रहा था लेकिन जिस मीटिंग में अमेरिका हो उसमें अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान क्या बोलेंगे।

ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद तालिबान ने कहा था कि अमेरिका को अपनी प्रतिष्ठा, अर्थव्यवस्था और सैनिकों को नुकसान से बचाकर, अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटा लेनी चाहिए। आगे चलकर 2018 में अमेरिका ने तालिबान के साथ फिर से क़तर देश में जाकर मिलना शुरू किया। इसके बाद मीटिंगों की बाढ़ आ गई।

बीबीसी कहता हैं, की साल 2018 में ही उसे पता चला कि तालिबान 70 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय हुए हैं।

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मुसलमानों को नसीहतें

खबरों की माने तो अगस्त 2019 से अब तक अमेरिका और तालिबान के बीच आठ बार बातचीत हो चुकी हैं। जिसके बाद फ़रवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान ने औपचारिक तौर पर समझौता भी साइन किया।

इस समझौते के तहत अमेरिका और उसके नेटो सहयोगियों ने अपनी सेना पूरी तरह वापस बुलाने पर सहमति जताई। इसके बदले तालिबान को इस बात पर राज़ी किया गया कि वो अल-क़ायदा या किसी अन्य चरमपंथी समूह को अपने नियंत्रण वाले इलाक़ों में संचालित नहीं होने देगा। और समझौते के नाम पर अमेरिका हार का ठिकरा माथे पर लिए वापस लौट गया। जैसा वियतनाम मे हुआ था, यही हाल उसका अब भी हुआ हैं।

अपने अफगान मुहिम पर निकलते हैं जुलाई 2021 के शुरुआत में ही तालिबान घोषणा कर चुका था की, हमने जंग जीत ली है और अमेरिका हार गया है। उसके बाद केवल नौ दिन में तालिबानीयों ने अफगान पर पुरी तरह कब्जा कर लिया। जैसा दिख रहा हैं, यह उतना आसान नही हैं।

अब बात भारत में स्थित फेसबुकी लिबरल्स की आती है जो यह सब नजरअंदाज कर भारतीय मुसलमानों को कट्टरतावाद से बचने की नसीहते दे रहे। साथ ही अफगान में चल रहे तालिबानीयों के उत्पात पर भारत में निंदा प्रस्ताव पारित करे। इन जैसे लिखनेवालों की जैसे बाढ़ सी आ गई हैं।

जब भी दुनिया में इस्लाम का नाम लेकर सरफिरे कुछ ओछी हरकत करते हैं, तब भारत में मुसलमानों को टारगेट करना लिबरल्स की महज आम बात बन चुकी हैं। ये वह नही करते, बल्कि उनके दक्षिणपंथी गूट करवाता हैं, इसका मतलब ये हैं की, इन लिबरल्स के पास खुद का कोई दिमाग हैं ही नहीं।

वैसे बता दूँ की, भारतीय मुसलमानों का तालिबान से कुछ लेना देना नहीं है। उनके लिए यहां ढेरो मसले-मसाइल भरे पड़े हैं, जिससे उभरना उनके लिए किसी भी जरूरी चिज से बढ़कर हैं। ऐसे में कुछ लोग है जो धर्म के आगोश में आकर तरह-तरह की बयानबाजी कर रहे हैं। यह उनकी तात्कालिक हरकत और प्रतिक्रिया है, इन हरकतों से समस्त भारत के मुसलमानों को जिम्मेदार या कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा करना मजाक से कम नहीं हैं। वैसे भी विदेश के किसी भी सत्ता का समर्थन या विरोध करना भारत में देशभक्ती या राष्ट्रद्रोह का पैमाना नहीं हो सकता। और कोई ऐसा करता भी हैं, तो वह उसका निजी मामला हैं, जिसे गुनाह नही बताया या साबित किया जा सकता।

हम भारतीय आसानी से फेसबुक के अल्गोरिदम के बहाव में बह जाते हैं। और तरह-तरह की नसीहतें शोषित, पीड़ित समुदाय को देने लगते हैं। यह नया नहीं हैं। मगर इन मामूली हरकतो से भारत के मुसलमानों पर क्या बीतती हैं, इसका शायद ही किसीको अंदाजा हो!

आज जब सबको पता है कि अफगान मामले की असलियत क्या है। बस मोदी सरकार की दी गई पिड़ा में खुद को खुश रखने के लिए, नकारात्मक खबरों से बचने के लिए, महंगाई की मार से खुद को अलग रखने के लिए यह सब करना पड़ता है। मोदीराज में यहीं तो देशभक्ती का प्रमाण हैं।

2004 में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने एक प्रसिद्ध चुनावी नारा दिया था। जिसमें उन्होंने कहां था, भारतीयो को पिछली सरकार के उपलब्धीयो पर फिल गुड करना चाहिए। पर वास्तव में ऐसा कुछ हुआ नहीं। चुनाव में उनकी सरकार मुंह के बल गिर पड़ी। आज के बाद ऐसे ही भारतीय जनता का होने वाला है।

वाचनीय

Name

अनुवाद,2,इतिहास,45,इस्लाम,38,किताब,20,जगभर,129,पत्रव्यवहार,4,राजनीति,285,व्यक्ती,13,संकलन,62,समाज,239,साहित्य,74,सिनेमा,22,हिंदी,53,
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