नाकामियां छिपाने का ‘सेक्युलर’ अलाप

बिहार विधानसभा चुनाव के हार के बाद वोटकटुआ कह एमआईएम जैसे राजनैतिक दल की छिंटाकशी हो रही हैं। आलोचना करनेवाले राजनैतिक दल अपने खुद को सेक्युलर बता रहे हैं। उनका दावा हैं की फासिवादी ताकतों के खिलाफ लड़ना इन जैसे कथित 'वोटकटुआ' पार्टीयों के वजह से दूभर हो रहा हैं।

वैसे अपनी नाकामी और खामिया को छिपाने के लिए दुसरों पर उंगली उठाना नया नहीं हैं, इस देश नें सेकडों साल से यह रिवाज देखा हैं। इसलिए अब आपको पैतरा बदलना पडेंगा। रही बात मुसलमानों के वोट लुटने की तो वैसे ही बाकी जाती-समुदाय जैसे, यादव, ब्राह्मण आदी दिगर समुदाय पर भी बात करे!

याद दिलाता चलू की दो साल पहले महाराष्ट्र में एमआईएम ने प्रकाश अम्बेडकर संचालित वंचित बहुजन आघाडी नामक राजनीतिक दल के साथ गठबंधन किया था, तो काँग्रेस, एनसीपी सहित तमाम बुद्धिजीवी, विद्वान और प्रवक्ताओ लेकर कार्यकर्ता और लेखकों तक सेक्युलॅरिझम खतरें नजर आता दिखा। प्रकाश अम्बेडकर को बीजेपी का हिमायती और बी-टीम बताया गया, क्योंकि पिछडों के वोट इनसे दूर होते जा रहे थे।

विधानसभा चुनाव प्रचार में इन लोगो ने भाजपा और शिवसेना को हराने की बात कहीं। सेक्युलॅरिझम को बचाने फॅसिस्ट पार्टीओ के खिलाफ जनता से वोट मांगे। स्पष्ट बहुमत न मिलने पर सत्ता की चाहत इन्हे उसी फासिवादी राजनीतिक दल से हाथ मिलाने तक आगे-पिछे नही सोंचा। 

इसके लिए पार्टी के पदाधिकारी से लेकर कार्यकर्ता और उनके कथित लेखक-बुद्धिजीवीयों ने संविधानविरोधी शिवसेना को सेक्युलर साबित करने की जमीन बना दी। जिसके बाद उस जमीन पर सत्ता और पावर की फसल उगाई गयी। 

चुनाव में तो ये कथित सेक्युलर दल अपने बलबुते सत्ता तक भी नही पहुँच पाए। चुनावों के परिणामों बाद तो सत्ता का लालच इन्हें और भी निचे की तरफ ले गया। कट्टर हिन्दुभिमानी और फासीवादी कहे जाने वाले शिवसेना से इन्होंने गठबंधन कर लिया। तब कहां था सेक्युलॅरिझम

आपने एमआईएम को भाजपा का सहयोगी और फासिवाद का समर्थक बताकर बी-टीम कहा था, अब कौन बी-टीम बना हैंआज ये लोग किस मुंह से सेक्युलॅरिझम की बात करते हैं? क्या इन्हें इसका नैतिक अधिकार भी हैं!

क्या सेक्युलॅरिझम को बचाना और फासीवाद को रोकना सिर्फ मुसलमानों की जिम्मेवारी हैं। क्या संविधान बचाना हाशिये पर धकेले गए उस समाज की जिम्मेदारी हैं, जो रोजी-रोटी के लिए रोजाना मशक्कत करता हैं। जो भाजपाई रणनीतियो से जिन्दगीभर उबर नही सकता, इस तरह की आर्थिक व्यवस्था से वह जुझ रहा हैं। 

कब तक मुसलमान और दलितो से आप (राजनीतिक) सेक्युलॅरिझम का बोझ उठवाएगे? हर बार आपका सेक्युलॅरिझम सिर्फ मुसलमानों को एकलव्य बनवाकर अंगुठा क्यो कटवाता है? आपने धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का मजाक बनाया हैं, जो आय़े दिन मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं।

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सेक्युलॅरिझम साबित करने की होड़

आज का प्रमुख विपक्षी दल काँग्रेस खुद को सेक्युलर कहता हैं, पर उनके यहां अगडे जाति दवारा आए संभ्रात, रईस लोगों की नेतृत्व तथा सत्ता में पकड और वर्चस्व हैं। परिवारवाद का बोलबाला हैं। ये दल यह नही बता सकता की पिछलें छह सालों मे भाजपाई हिन्दुझम और उसे कॅपिटलिस्ट फासिवाद से मुकाबला करने के लिए उन्होंने क्या रणनीति बनाई। निचे जाते आर्थिक मोर्चे पर उनका क्या प्लान और रणनीति हैं, वह यह नही बताते के बीजेपी को रोकने के लिए उनके पास क्या कृती कार्यक्रम और प्लान हैं

वह ये नही बताते की अब तक वह पिछडों तक क्यों नहीं पहुँच पाए? वह यह नहीं बता पाएगे की सत्तापक्ष के ज्यादती पर वे आम लोगों का भरोसा क्यो नही जीत पाए

वे लोग यह नही बता सकते की लोगों द्वारा चुन कर देने के बाद भी कर्नाटक, मध्यप्रदेश की राज्य सरकारें वह चला और बचा पाए। आपके विधायक एक रात में फासिवादी कहे जानेवाली बीजेपी में शामिल हो गये। दोनों राज्यों कि सरकार आपके ही बिगड़े लोगों ने फैसिस्टों को सोप दी, यहां कहां था आपका सेक्युलर चेहरा? पर  हां अपने खामियों का ठिकरा दुसरों के मत्थे फोडना आपको जरूर आता हैं। वैसे वे और कर भी क्या सकते हैं, क्योंकि उनके पास तो कोई प्लान नही हैं, बस जनता और समय के बलबूते वह बैठे हैं। 

सत्तापक्ष ने हिन्दुत्व विचारधारा के आड़ में निजीकरण का लहर ला दी हैं, कई सरकारी संस्थान और महकमे बीजेपी समर्थित उद्योगपतीयों के पास जा रहे हैं, मीडिया संघीय और भाजपाई हुआ हैं। प्रशासन, पुलिस में संघी खून भर रहा हैं। जिनके बलबुते सत्तापक्ष आनेवाले 20-25 सालों तर सत्ता हथियाने की तैय्यारी कर रहा हैं और आपका इस रणनीति खिलाफ रोल तो इसमें दूर तक कहीं नजर नही आता। 

सरकारी महकमों में भाजपाई हस्तक्षेप बढ़ा हैं, आर्थिक नीति चरमरा गई हैं, आम लोग बढ़ते टॅक्सेस के बोझ तले दब रहे हैं, बेरोजगारी इन्सानों से आत्महत्या करवा रही हैं, महामारी में सरकार ने अपनी जिम्मेदारी भूला दी, लाखो लोगों के रोजगार छिन गया, एक तरफ जेबे खाली हो रही है तो दूसरी ओर हिन्दुवादी धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव मचा रहे हैं।

भाजपाई सत्तारुढ दल सरकारी महकमों का निजीकरण कर आनेवाले सालों में सत्ता की चाभी अपने पास रखना चाह रहा हैं, पर काँग्रेस को इससे कोई दिक्कत नहीं हैं। दिक्कत तो आम लोग चुनाव लड़ने से और उनके जितने से हैं। दिक्कत मुसलमानों ने उन्हे छोड़ किसी और पार्टी को वोट देने से हैं। आपने क्या मुसलमानों का वोट का गुलाम समझ रखा हैं!

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कमजोर कौन हैं?

वैसे बिहार में महागठबंधन के लोग कह रहे हैं, आपको 70 सिट देकर उन्होंने अपने आप का सबसे बड़ा नुकसान किया हैं। उन 70 उम्मीदवारों के साथ आपने क्या किया? राजद और वामदलों का प्रदर्शन तो अच्छा रहा, आप कहां मिट्टी पलीत कर गए

वामदलों ने तो हार का ठिकरा किसी एक पार्टी पर नहीं फोडा। फिर आप क्यों अपने आप को बचाने के लिए दुसरों को शत्रू साबित करने पर तुले हैं। औवेसी कहते हैं“मध्यप्रदेश में तो मैंने उपचुनाव नही लड़ा फिर वहाँ काँग्रेस क्यो हार गयी?” क्या काँग्रेस के पास इसका जवाब हैं। 

बिहार में एमआईएम ने तो केवल 5 सिटे जीती हैं पर आपने तो 51 सिटें खो दी हैं। ज्यादातर सिटे बीजेपी के खिलाफ गवां दी हैं। दूसरी अहम बात ये हैं की जिस 20 सिटों पर एमआईएम लड़ी वहां 6 एनडीए और 9 पर महागठबंधन कामयाब हुआ हैं, फिर दोष किसका

आपको अपनी नाकामियां क्यों दिखायी नहीं देती? अपनी खामिया क्यों नजर नही आती? और सेक्युलर होने का दुखद अलाप क्यों गा रहे हैं। यह बताओ की आप कहां कमजोर पड़ गएआपसे कमजोर कहा जानेवाला वामदल भी बेहतर साबित हुआ।

सीएसडीएस-लोकनीति का रिपोर्ट कहता हैं, की करीबन 76 प्रतिशत मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिए हैं। और एनडीए के झोली में केवल 5 प्रतिशत वोट मुसलमानों ने डाले हैं। 

इसका मतलब ये है की बिहारी मुसलमानों ने बीजेपी के साथ ओवैसी की पार्टी को भी बड़े पैमाने पर नकारा हैं। फिर भी आपको औवैसी ने बटोरे मुसलमानों के वोटों से दिक्कत हैं। अगर एमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी की माने तो इनके पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में कुल 5 लाख 24 हजार वोट जोडे हैं। मतलब लोग उन्हें वोट दे रहे हैं, इसका मतलब ये होता हैं, की मतदाता आपको नकार रहे है। लोगों को आपसे दिलचस्पी नही हैं। लोग जो संविधान की और जो असल सेक्यलॅरिझम की बात करता हैं, उसे वोट दे रहे हैं।

अगर आप वाकई में धर्मनिरपेक्ष होते तो छह सालों मे सत्तारुढ दलों द्वारा आम लोगों बरपाई आफत का कोई हल निकालते। आपने तो आधिकारीक रूप सेना उनकी ही हिन्दुत्व की राजनैतिक विचाराधारा को अपनाया हैं। राम मंदिर भूमीपूजन के समय आपने खुद को हिन्दुवादी साबित कर दिया हैं। बीते छह सालों में आपने बीजेपी के हर इस अंजेडें पर सरेंडर किया, हैं जिसमें उन्होंने आपको हिन्दुविरोधी बताया था।

जिस एमआईएम पार्टी को आप सेक्युलॅरिझम का दुश्मन बता रहे हैं, वह कभी भाजपाई अजेंडों के सामने नही झुकी, ना ही आम लोग डगमगाएं। आम लोगों ने तो संविधान बचाने कि लड़ाई लडी हैं, इनकी लडाई में दूर-दूर तक आप कही भी नजर नही आते। 

संविधान बचाने, लोकतंत्र बचाने और भारत की मिली-जुली परंपरा, सभ्यता बचाने की बात एमआईएम ने की हैं। और अन्य बुद्धिजीवी, कार्यकर्ताओ ने भी की हैं। आम लोग इसके लिए जेल जा रहे हैं, सजा भुगत रहे हैं, कुर्बानिया दे रहे हैं, इन लोगों के पक्ष मे तो आप कभी खड़े नही, और ना ही उनके लड़ाई में आपका कोई दखल नजर नही आता?  

आपका सेक्युलॅरिझम क्या सिर्फ बातुनी हैं? जेएनयू मामला हो या जामिया या फिर CAA, NRC और NPR के खिलाफ आंदोलन इसमें आपका क्या रोल था। इतना बड़ा जनांदोलन निकल कर आया, तो उसमें भी आप कही नजर नहीं आये। आपको तो यहां मौका मिला था। 

इस माध्यम से आप विपक्ष को और मजबूत कर सकते थे। पर नही, आपको तो इस आंदोलन में खामिया नजर आयी! शशी थरूर को आंदोलन में प्रतीकात्मक रूप से हो रही नमाज़ और अज़ान इस्लामी अतिवाद लगा। लोग संविधान वाचन के साथ अजान दे रहे थे, इसमें कैसा अतिवाद

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मोनोपली नही चलेंगी

काँग्रेस जैसे विपक्षी दल को कोई समूह अगर नयी राजनीतिक पार्टी बनवाता हैं तो दिक्कत नही, पर उसने चुनाव नही लडना चाहीए! उस पार्टी के चुनाव लडने से इन्हें दिक्कत हैं। क्योंकि चुनाव और लोगों के वोट पर तो इन्हीं की मोनोपली हैं। इनका मानना हैं की सारे लोग इनके नौकर, गुलाम और बंधुआ मजदूर हैं। जो उन्ही के लिए वोट देजैसे बीते 75 सालों से हो रहा हैं। 

भाई यहां लोकतंत्र हैं, किसी की मनमानी नही चलती। हर एक को चुनाव में अपने मर्जी से वोट करने और चुनाव लड़ने का हक हैं। इसपर किसी का काबू नही हो सकता, और आप भी इस नियम को काबू करने की कोशिश ना करे! 

वोटर आपका खानदानी गुलाम नही हैं, वो आज यहां तो कल कहीं और हैं। जो इसकी बात करता हैं, इसके अधिकारों की रक्षा करता हैं, वह उनके लिए अपना वोट देगा।

अगर आपको सो कॉल्ड (राजनीतिक) सेक्युलॅरिझम को बचाना हैं, या अपको सत्ता में वापस लाना हैं तो क्या सारे क्षेत्रीय दलों आपकी गुलामी करे? क्या उन्हें चुनाव लड़ना छोडना चाहीए? मतलब चुनावी मैदान सिर्फ आपके लिए खुला रहे, भाई ये तो मुमकीन नही!

आज यहां हर कोई राजनैतिक महत्वकांक्षी लेकर जन्म ले रहा हैं, सबको अपनी-अपनी पडी हैं, इसलिए अब आपकी मोनोपली नही चलेगी। सभी को अपनी राजनीतिक पहचान दर्शानी है। लोकतंत्र का नियम हैं, एक से ज्यादा पार्टीया हो, और चुनाव मे सबको भागिदारी हो! फिर आप कौन होते हैं, रिजनल पार्टीयो को रोकनेवाले? सब लोग तो आपके राजनैतिक गुलाम बनकर नही रह सकते ना!

अगर आपको वाकई में सेक्युलर सभ्यता बचानी हैं, लोकतंत्र बचाना हैं, तो आपको बड़ा भाई बनकर सबको (पिछडी-जाति-समुदाय) साथ लेकर चलना होगा। जाति-बिरादरी, परिवारवाद से उपर उठकर सभी समुदायों को समाहित करना होगा। 

सबको इज्जत दे सबकी बात सुने, उनके विचारों, मतो का आदर करे। सबको बराबर का राजनीतिक दर्जा दे। सबकी राजनीतिक सहभागिता दे। वरना लोग तुम्हारे बंधे नही हैं, वह अपना बेहतर जानते हैं। 

कलीम अजीम, पुणे

(लेखक के विचार अपने हैं, जरुरी नही की इससे हर कोई सहमत हो। पुनप्रकाशित करने के लिए लेखक अनुमती की जरुरत नही हैं, बशर्ते लेखक के नाम से प्रकाशित हो।)

वाचनीय

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नजरिया: नाकामियां छिपाने का ‘सेक्युलर’ अलाप
नाकामियां छिपाने का ‘सेक्युलर’ अलाप
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