दक्षिण महाराष्ट्र को साहित्यकारों और विद्वानों कि भूमि कहा जाता है। यहां के सूफी संतो सामाजिक सौहार्द और बहुसांस्कृतिकता को संजो कर रखने की कोशिशों मे लगे थे, इस विरासत को यहां के साहित्यकार, लेखक और शायरों ने आगे ले जाने का काम किया हैं।
महाराष्ट्र का ये हिस्सा जिसे दकन कहते हैं, औरंगाबाद इसकी राजधानी हैं। दकन में लिखी जानेवाली रचनाएं तथा लेखन में मराठी परंपरा के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति कि झलकियाँ मिलती हैं। यहीं वजह हैं, यहां का लिखा देश में अपनी अलग पहचान स्थापित करता हैं।
इस शहर को राज्य कि सांस्कृतिक कैपिटल (पूंजी-सरमाया) भी कहा जाता हैं। आसिफियां सल्तनत के दौर में इसका विकास हुआ। यहां कई नामी-गिरामी लेखक, शायर, कवि, साहित्यकार और विद्वान जन्मे हैं। जिसमे एक नाम बशर नवाज़ का भी हैं।18 अगस्त 1935 में औरंगाबाद में जन्मे बशर नवाज शहर कि मकबूल शख्सियत थी। अपने बारे में कभी उन्होंने कहा था,
हमसे क्या दामन छुड़ाना हमसें क्या नाराजगी
हैं तुम्हारे शहर के रौनक हम ही बरबाद लोग
बशर नवाज़ को आम ‘इन्सानों का शायर’ कहा जाता हैं। उनकी शायरी सिधी जुबान में और सामान्य लोगों के तक पहुँचनी वाली थी। वली दकनी इस शहर के कवि थे, उन्होंने दकनी भाषा को महलों तक पहुँचाया था, जिसके बाद ये जुबान दिल्ली दरबार से लेकर समुचे उत्तर भारत में पहुँची। इसी तरह बशर ने शायरी को आम लोगों के दिलों से जोडा था।
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वैसे बशर, वली दकनी और औरंगाबादी को अपना उस्ताद मानते थे। इन्होंने यहीं रहकर जमीन से जुडी सामान्य लोगों के समस्याओ को कविता बनाया और दरबारों में एक सदा के रुप में पहुँचाया। औरंगाबाद में रहते मेरी उनसे कई बार मुलाकाते होती रही। वे हमेशा कहते, किताबे पढ़कर की गई शायरी दराजों में बंद होती हैं और जिन्दगी पढ़कर कि गई शायरी जिन्दगी के साथ चलती हैं।
बशर नवाज लोककल्याणकारी वामपंथी विचारधारा को मानते थें। उन्होंने मुझे बताया था की, 1952 में कक्षा दसवीं में असफल होने के बाद उन्होंने एक गराज में मेकेनिक के रूप में काम शुरु किया। पर उनका मन ज्यादा दिन वहां नही लगा। शायरी के शौक के चलते उन्होंने इसी को जिन्दगी और रोजी रोटी का साधन बनाया।
किससे फसाने सिर्फ किताबों में नहीं
मिलती है रास्तों में भी जिंदा कहानियां
शुरुआती दिनों मे वे कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाये जा रहे स्टडी सर्कल से जुडे। आगे चलकर उन्होंने इस बौद्धिक क्लासेस का संचालन भी किया। यहां आने के बाद टॉलस्टॉय, अरिस्टॉटल, मार्क्स, डॉ. इकबाल के फलसफे को पढ़ा जिसके बाद वे सिधे आम लोगों से जुडे रहे। वैचारिक लेखन के साथ उनका झुकाव शायरी के तरफ भी हुआ।
अदबी समीक्षा और कविताएं उनका पसंदिदा शोबा (विभाग) था। शौक के चलते शुरुआती दिनों वे लिखते रहे, पर अपना लिखा किसी को बताया नही। उन्होंने मुझे बताया था, उस दौर के एक बडे शायर याकूब उस्मानी जिसे वे उस्ताद कहते, उन्हें अपना लिखा बताया करते थे। एक दिन उस्ताद ने बशर साहब से कहां, “अच्छा लिखते को प्रकाशित करने के लिए भी भेजा करो।”
बहते पानी की तरह दर्द की भी शक्ल नहीं
जब भी मिलता है नया रूप हुआ करता है
उस्ताद के कहने पर उन्होंने1954 में दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली उर्दू साहित्यिक पत्रिका ‘शायराह’ अपऩी रचनाएं भेजी। अदबी हलकों में उनकी रचना काफी सराही गई। इसको पुरस्कार भी मिले। यहीं से उनका लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। हैदराबाद के ‘प्रगतिशिल साहित्य आंदोलन’ से उनका जुडाव था। जिसके चलते उन्हें शायरी और साहित्य में रुची पैदा हुई। प्रगतिशिल आंदोलनों के पत्रिका उनके लिए ग़िजा (खाद्य) थी। शायरी और तनकिद (समीक्षा) से लगाव यहीं से उन्हें हुआ।
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आंदोलनों में रहे सक्रीय
स्वाधीनता संग्राम और हैदराबाद के निज़ामी संस्थान के खिलाफ लड़ाई में उनका बचपन बिता। आसिफिया राजवंश से मुक्ती का आंदोलन उनके जिन्दगी का महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। निज़ामी सामंती व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए वे सक्रियता से दटे रहे। बशर खुलकर निज़ाम (व्यवस्था) के खिलाफ प्रचार करते थे।
इस लड़ाई में उन्हें कई बार पुलिस के हत्थे चढ़ना पड़ा। अपने बागी विचारों के चलते उन्होंने कई बार यातनाएं भी झेली। पर अफसोस यहां के मराठी लेखकों ने उन्हें नजरअंदाज किया। मुक्ती आंदोलनों के बारे मे लिखे इतिहास में बशर साहब को कोई जगह नहीं मिली।
आगे चलकर उन्होंने कई सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व भी किया। सामाजिक सुधार के कार्यक्रम चलाएं। उन्होंने राजनीति में भी अपना हुनर आजमाया। एक कार्यकर्ता के रुप में उन्होंने गरीबों के समस्याओं को प्रशासन तक पहुँचाने का काम किया। औरंगाबाद महापालिका के पार्शद (कॉर्पोरेटर) के रूप में तीन बार वे निर्वाचित हुए। तकरीबन पंधरा सालों तक उन्होंने जनता का प्रतिनिधित्व किया। राजनीति में निहित स्वार्थ के चलते उन्होंने हमेशा के लिए उससे किनारा कर लिया।
जब अपने अपने नक़ाब उलट कर
ख़ुद अपने चेहरों को हम ने देखा
प्रशासन और पार्टी में घुसे भ्रष्टाचार के चलते वे काफी नाराज थे। इस बारे में मेरे इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “लोककल्याण के जिस उसुलों के साथ वे राजनीति में आए थे अब उसकी जगह रिश्वत और झुठ ने चुकी थी। जहां मेरा दम घुटने लगा था, घुसखोरी को मान्यता मिलती जा रही थी और इमानदारी एक गाली बनती जा रही थी, वह सही वक्त था राजनीति छोडने का, तो मैं बाहर निकला।”
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राजनीति छोड़ने के बाद उन्होंने अपना पूरा समय लेखन में लगाया। जिसके चलते उन्हें कई बार आर्थिक बदहाली का समना भी करना पड़ा। वे शहर में होनेवाले हर छोटे-बडे मुशायरों मे शिरकत करते। यहां से जो मिलता उसी से गुजर-बसर करते। आर्थिक तंगी को लेकर घर में कई बार फ़ाके कि नौबत आती। पर हार कर उन्होंने कभी अपने उसुलों से समझौता नही किया।
उनका वामपंथ किताबी नहीं था बल्कि उसे वे जिते थे। अपने विचारधारा के चलते उन्हें समाज कि उपेक्षा भी झेलनी पड़ी। लोगों में उनकी पहचान एक बेकार शख्स कि थी, उपर उल्लेखित अशआर उनकी उस स्थिति को दर्शाते हैं। बहरहाल वे लिखते रहे। देशभर में उनकी गज़ले गायी और पढ़ी जाती थी।
फिल्मों मे लिखे गीत
उनकी ग़ज़लों पर मशहूर संगीतकार खय्याम फिदा थे, यहीं वजह थी कि उन्होंने बशर से फिल्मी गीत भी लिखवाएं। मगर मुंबई के चकाचौंध उन्हें कतई नही भायीं, वे अपना बोरिया बिस्तर समटकर वापस औरंगाबाद लौटे।
तब तक उनकी ‘बाजार’, ‘लोरी’, ‘जाने वफा’ और ‘तेरे शहर में’ फिल्में परदे पर आ चुकी थी। कुछ फिल्में मंजरे आम पर नहीं आ सकी। बॉलीवूड में उनके गीतों कि चर्चा भी होती थी। निदा फ़ाजली, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और जां निसार से उनकी दोस्ती थी। उनके लाखं रोकने के बावजूद बशर हमेशा के लिए औरंगाबाद आ गए।
न जाने कितने बरस परेशान धूल की तरह से जमे थे
जिन्हें रिफ़ाक़त समझ के हम दोनों मुतमइन थे
इसी बीच 1971 में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘रायगां’ प्रकाशित हुआ। 1973 में ‘नया अदब नये मसाईल’ समीक्षा ग्रंथ मंजरे आम पर आया। इस किताब को आज भी उर्दू साहित्य कि बेहतरीन आलोचना के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।
1998 में उनका ‘अजनबी समंदर’ और ‘करोगे याद तो..’ शीर्षक से ग़ज़लों और नजमों का संकलन प्रकाशित हुआ। उर्दू के साथ उनकी एक किताब देवनागरी में भी छपी हैं। इसके अलावा उनके कई अशआर और रचनाए अभी संकलन से दूर है। अगर उन्हें इकठ्ठा करे तो उर्दू अदब का एक बड़ा सरमाया लोकार्पित हो सकता हैं।
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रोमानी शायर
बशर साहब को स्थानीय प्रशासन, प्रदेश कि सरकार तथा साहित्यिक संघठनों ने कई सम्मानों से नवाजा। मराठी के साहित्यिक हलकों में उनका हमेशा आना-जाना रहता। साहित्य संमेलनों में उनके परिसंवाद रखे जाते।
साथ ही वे बाबासाहब अम्बेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में फैकल्टी लेक्चरर के रुप में अपनी सेवाएं देते। यहीं मेरे उनसे पहचान हुई। ये विभाग हमारे जनसंचार के पडोस में ही था। यहां बैठकर मैंने उनकी अदबी समीक्षा और शायरी कि बारिकीयों को घंटो सुना हैं।
उन्होंने फलसफ़ी शायरी के साथ रोमानी शायरी भी की हैं। वे फुल पौधों को प्रेम का प्रतीक बनाते। उनकी ज्यादातर रचनाएं समाजी और राजनैतिक होती।
जंगल, पेड, पौंधे, गली, मोहल्ला, इमारते, बाजार, होली, गणपति, मुहर्रम, ईद, इबादत, राखी, भाषा, साहित्य, तंज, उपहास, आलोचना, इत्यादि प्रतीक उनके शायरी के मुख्य केंद्र में रहते।
कहीं इक फुल की पत्ती, कहीं शबनम का इक आंसू
बिख़र जाता है सब कुछ रूह के सुनसान सहरा में
आम लोगों का हित उनके शायरी में निहित था। समाजिक सद्भाव और आपसी संवाद को वे शायरी में जगह देते। इस बारे में उन्होंने एक जगह कहा हैं, “शायरी के जरिए एक ही मकसद है, उसे मोहब्बत की जुबान करो।
अगर जो बात की आसानी ने की जाती है तो वह ज्यादा दिलों तक पहुंचती है, ज्यादा दिनों तक जिन्दा रहती है। मैं कोशिश करता हूं कि जो भी मुझे कहना है वह मुहब्बत की जुबान में कहूं।
आपसी संवाद पर था जोर
स्थानीय प्रशासन से लेकर केंद्रीय शासन कि आलोचना उनकी शायरी में होती। उसी तर दुनियाभर में पनपते सामंतीवाद और फासीवाद के खिलाफ वे खुलकर लिखते-बोलते। उनका मानना था, साहित्य और शायरी से लोगों के टुटते हुए दिलों को जोडा जा सकता हैं। राजनैतिक विचारधारा के चलते लोगों में पनपी नफरत को शाय़री से कम कर सकते हैं।
बशर नवाज़ आपसी अंतरधार्मिक संवाद पर जोर देते। अपने भाषणों तथा साहित्यिक महफिलों में शायरी के साथ सांस्कृतिक रखरखाव पर भी बात करते। वे सियायत से ज्यादा जरुरी इन्सानों को जरुरी मानते।
जब समाज में ‘इन्सान’ ही नहीं रहेंगे तो सियासत क्या काम की, ऐसा उनका मानना था। इन्सानी मजबह को दर्शाती उनकी शायरी यूट्यूब पर बिखरी पडी हैं। जिसे औरंगाबाद के ‘आफताब फिल्म्’ ने संकलित कर डॉक्युमेंटेशन किया हैं।
हर आदमी है अपनी जगह एक दास्तां
हर शख्स अपने आप में पूरी किताब है।
बशर नवाज पर एक डॉक्युमेंट्री भी बनी हैं। जिसे यशवंतराव प्रतिष्ठान नें 2010 में उसे रिलीज किया है। उन्हें साहित्य अकादमी से लेकर राज्य सरकार नें कई सम्मानों ने नवाजा हैं। इसी साल दिल्ली के ग़ालिब अकेडमी ने उन्हें ‘इफ्तेखार ए अदब’ से सम्मानीत किया था।
देर से मिले सम्मानों पर अफसोस जताते हुए उन्होंने कहा था, “देर से ही सही उन्हे याद तो आयी।” याद रहे की, उनपर बनी इस फिल्म के बाद उन्हें कई सम्मान मिले, उनका नागरी सत्कार भी किया गया।
अदबी और सरकारी संघठनों ने उन्हें इज्जत बख्क्षी। मराठवाडा में उर्दू अदब कि विरासत संजोने वाले इस हुनरमंद शायर को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए, उन्हें खिराजे अकीदत पेश करते हैं।
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल :kalimazim2@gmail.com

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- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com