अलीमुद्दीन अलीम की कलम से :
ये शख्स नव्वद की उम्र भी कई मसाइल झेलने पर भी ऐतेमादी लहजा लिये था। वह न थकने वाला कलम का सिपाही, शायरी का ‘वली सानी’ था। उनके कलाम में हमेशा नयापन रहता। गंगा जमुनी तहजीब का ये नुमाईंदा जब माईक पर आता तो उनकी मिठी तरन्नूम सुनने के लिए हर कोई बेताब नजर आता।
अपने हुरफ व लफ्ज़ को शायरी के मौसिकी में पिरोने वाले इस शख्स़ियत जिसे दुनिया शम्स ज़ालनवी के नाम से जानती और पहचानती थी, वह जिन्दगी अब साइकल पर दौड़ते और मुशायरे में धड़कते माइक पर मचलते अब नजर नहीं आयेगे। बागों बहार शख्सियत के मानिंद शम्स साहब का बतारिख 21 जुलाई 2020 को अपने आबाई मकान में इंतकाल हुआ। उस वक्त उनकी उम्र 91 बरस की थी।
बिगड़ने को संवरने नही देती दुनिया
कश्ती स उभरने नही देती दुनिया
जख्मोंपर छिडकती हैं नमक हंस हंसकर
जख्मों को भी भरने नही देती दुनिया
जैसे ही उनके इंतकाल की खबर आई, उन्हें खिराजे अकिदत पेश करने का सिलसिला चल पडा। खबरीया वेबसाईटों से लेकर सोशल मीडिया, व्हॉट्सएप तक उन्हें इसाले सवाब पहुंचाया गया। लोगों ने शम्स के साथ अपने फोटो शेअर कर यादों का ताजा किया।
जनाब शम्स ज़ालनवी का पूरा नाम मुहंमद शमसुद्दीन इब्ने मुहंमद फाजिल अन्सारी (पहलवान) था। आप की पैदाइश 1929 को कदीम जालना के इलाके बरवार मुहल्ले में एक जुलाहा खानदान में हुई।
उनके वालिद पेशे से निजाम हुकूमत वक्फ खाते में दफेदार के हैसियत से मुलाजिम थे। ताहम पहलवानी आप का खानदानी मशगला रहा। पहलवानी में महारत की वजह से वे फाजिल पहलेवान के नाम से मशहूर और मारुफ थे। मरहूम शम्स साहब ने बुनियादी तालिम सरकारी मदरसे तहतानिया (प्राथमिक) व फ़ोकानिया (माध्यमिक) कदीम जालना से पाई।
पढ़ें : मुज़तबा हुसैन : उर्दू तंज का पहला ‘पद्मश्री’ पाने वाले लेखक
पढ़ें : कवि नही दर्द की जख़िरा थे सय्यद मुत्तलबी फ़रीदाबादी
बिड़ी कारखाने मे मुलाजिमत
शहर के इसी स्कूल से उन्होंने 1946 को मॅट्रीक पास किया। 1947 में लाहौर से फारसी में फाजिल (एम.ए.) कामयाब कर लिया। सने शरूर की उम्र में शम्स साहब ने पुलिस एक्शन (Operation Polo) में आम लोगों कि मजबुरी, लाचारी, मायूसी, ख़ौफ और डर को अपने आँखों से देखा।
हैदराबाद में पनपी इस सियासी नफरत के आँधी ने पूरे मराठवाडा के मिल्लत के नौजवानों के बीच आर्थिक बदहाली, तंगदस्ती, गुरबत, फाख़ाकशी कि एक बडी सी दिवार खडी कर दी। इस हालात से शम्स छुटे नही। रोजी-रोटी के लिए उन्होंने शहर के एक बिड़ी कारखाने में बतौर मॅनेजर मुलाजिमत शुरू की।
नफरतों का करम ढ़ाना अब जरूरी हो गया
जहर में अमृत बनाना अब जरूरी हो गया
शम्स जो दार व रसना की सुनने बेताब है
हौसले उनके बढ़ाना अब जरूरी हो गया
यहाँ पर उन्होंने कई सालों तक काम किया। अपने बेहतरीन काम के ऐवज उन्हें बीड़ भेज दिया गया, जहां एक और नया कारखाना बनाया गया था। यहां पर शम्स करीबन 25 साल रहकर खिदमत अंजाम दी। यहां के नौजवान शम्स के शागिर्द थे। जिनमे बशीरुद्दीन ‘रौनक’ का जिक्र मिलता हैं। बाद में नांदेड के मशहूर इस्मानिया मिल्स याने नांदेड टेक्साईल में काम किया।
पढ़ें : क्या हिन्दी को रोमन लिपि के सहारे कि जरूरत हैं?
पढ़ें : ‘रोमन’ हिन्दी खिल रही है, तो ‘देवनागरी’ मर रही है
अदबी जिन्दगी
बचपन से ही आपको मौसिकी (संगीत) और ग़ज़ले सुनने का बहौत शौक था। इसी शौक ने उन्हें अदब के तरफ मुतासिर किया। शम्स ने ग़ज़ल लिखने का आग़ाज 18 साल की उम्र से किया। रोजमर्रा के काम से जब भी वक्त मिलता तो वे लिखने बैठ जाते।
जब आप शेर कहने लगे तो अपने बड़े भाई बशीरुद्दीन ‘शाकिर’ से इस्लाह ली। बाद में नातीख गलावटी (नागपूर) के साथ मिलकर उर्दू अदब को समझा। जो अल्लामा द़ाग देहलवी के जानशीन थे। जब तरक्कीपसंद तहरीक का दौर था तो शम्स भी इस तहरीक से वाबस्ता हो गये और मखदूम मोहिउद्दीन के नजर के हामी बन गये।
शम्स साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल 1950 में नांदेड के एक मुशायरे में सुनाई, जो कम्युनिस्ट पार्टी के जानिब से मखदूम मोहिउद्दीन के जेल से रिहाई पर उनकी सदारत में मुनक्किद हुआ था। इस मुशायरे में उन्होंने 15 ग़ज़ले सुनाई। उस दौर की याद ताजा करते हुए उनके ये अशहार मुलाहिजा करें -
जब दामन बवक्त इंतेहाँ छोड़े नहींशम्स के बारे में आमिर फहीम लिखते हैं, “शम्स साहब की शायरी में कदीम (प्राचीन) रिवाज (परंपरा), हकीकत पसंदी (यथार्थवाद) जिन्दगी की कड़वाहट और समय-समय पर होने वाली बहस में एकजुटता की अभिव्यक्ति नजर आती है। इसी तरह सामाजिक बुराइयों पर तनकीद (आलोचना), सामाजिक मूल्यों के निर्माण के सफल प्रयास प्रमुख है। उन्होने अपनी भावनाओ को निर्मिक और बेबाक तरीके से साहस और आत्मस्वीकार की तरह व्यक्त किया।
गुलिस्ताँ जलता रहा पर आशियाँ छोड़े नहीं
गो रविदा हमने बदल दी इस जहाँ के साथ-साथ
पर कभी भूले से याद रफतगाँ छोड़े नहीं
‘शम्स’ हम भी वक्त के सांचे में ढ़लते ढ़ल गये
जिन्दगी के रात दिन काटे, जहां छोड़े नहीं
पढ़ें : परवीन शाकिर वह शायरा जो ‘खुशबू’ बनकर उर्दू अदब पर बिखर गई
पढ़ें : बेशर्म समाज के गन्दी सोंच को कागज पर उतारते मंटो
मुशायरों कि रौनक
मौसूक ने अपने-अपने शायरी में सिर्फ हालात (परिस्थिति) और मसाईल (समस्या) पर सीना बहस नहीं की, बल्कि उसके बेहतरीन समाधान के लिए रहनुमाई के अपने हक का भी इस्तेमाल किया है। शम्स साहब समाजी हालात पर गहरी नजर रखते और उसे शिद्दत से महसूस करते। उसमे कही संजीदगी भी है और बरबादी ए इजहार की चुभन भी है, तो तरक्की कभी एक संजिदा आदमी जो सुनने-पढने से महसूस होता है। उन्हें पढ़ना और सुनना मानो जिन्दगी को हौसला बख्शनेवाली उम्मीदें और दिलासा होती।
उनकी शायरी और गजलें उर्दू अदब का बेशकिमती सरमाया हैं। मराठवाडा में होनेवाला हर मुशायरा और गज़लों कि महफिलों में शम्स को जरूर बुलाया जाता। या यूँ कहो तो बुरा नही हगा कि शम्स के बगैर कोई महफिल पुरी ही नही होती।”
उनका ग़ज़ल पेश करने का अंदाज निराला होता। वे तरन्नूम मे अपनी रचना सुनाते। जब वे गज़ल पढ़ने उठते तो मौजूद लोग तालिया और वाहवाही से उनका इस्तेखबाल करते। हर एक शेर पर उन्हें खूब दाद मिलती। हॉल में मौजूद हर एक शख्स मुशायरे के बाद उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए बेबस दिखता। मैने भी जब अपनी किताब ‘तज्किरा ए शुराए मराठवाडा’ उन्हे पेश की तो मै भी तस्वीर खिंचवाने से खुद को रोक नही सका।
हम नशीं वक्त के सांचे में ढलना होगाउनकी शायरी पर बहुत कुछ लिखा गया है। हमारा मकसद यहां तसबरी (टिप्पणी) करना नहीं है बल्कि नौजवान नस्ल को उसके मुख्तलिफ पहलुओं को बताना और तारुफ करवाना है। मैने अपनी किताब ‘तज्किरा ए शुराये मराठवाडा’ मे उनके ताल्लुक बाय़ोग्राफी लिखा हैं। उसमे शम्स कि कई अशआर भी मौजूद हैं।
शमा बनना है तो हर रंग में जलना होगा
वक्त कहता है निकल आये ऐवानों से
अज़म जिन्दा हे तो टकराइये तुफानों से
उनका मिजाज मिले हैं मिजाज बेहद इन्सानी था। हर किसी से वे मिलते-बात करते। हमारे उम्र के अदब के शौकिन उनसे हर वक्त सिखने कि जुगत में रहते।
उनकी एहसासे बरतरी ने, ऐतनाई ने और बेनियाज़ी में शम्स साहब का एक मुकम्मल शख्सियत का अमीर बना दिया था। अपनी आखरी सांस तक उन्होंने सोई हुई कौम को अखबारों से रूबरू कराने का काम किया। शायरी और अखबारों के जरीये उन्होंने माशरे को जगाने का फरीजा अंजाम दिया।
पढ़ें : क्या हिन्दुस्तानी जबान सचमूच लुप्त होने जा रही हैं ?
बैठुंगा तो मर जाऊंगा
शम्स ने एक जगह कहा था, “अपनी सेहतमंदी और तबानाई का राज भी यही है कि आज 45 सालों से मौसम की परवाह किए बगैर साइकल पर पूरे शहर घर-घर जाकर अखबारात तकसीम कर रहा हूँ। अगर मैं बैठ गया तो हमेशा के लिए बैठ जाऊंगा। यहीं से मेरी हरारत जिन्दगी जीने का वसीला है। इसी शौक से मुझे शेर वारीद (निकलते) हैं। मुझे चलना है, मुझे चलने दो जब तक मैं चल सकूं।”
शम्स उर्दू अदब के नायाब व्यक्तित्व है, जिन्होंने अपनी अशआरों से भारत के ‘कंपोझिट कल्चर’ को बनाये रखा। शायरी से वे अपनी बात बेहद आसानी से कहते थे। उनकी शायरी हर एक पढ़ा-लिखा या फिर अऩपढ़ दोनो को आसानी से समझ आती थी। वे बेहद सादगी से जीते रहे, पर शायरी के जरीये उन्होंने जो मुकाम बनाया इसका तसव्वूर भी आसानी से नही किया जाता।
नफरतों का करम ढ़ाना अब जरूरी हो गयामुहंमद नसरुद्दीन लिखते हैं, “वह अपनी फिक्र सही को लफ्ज़ के सहारे गजलों के सांचे में ढ़ालने का हुनर बखूबी जानते हैं। यह कहना बे जाना होगा कि शम्स एक फितरी शायर है, जिनकी मौरल वैल्यू जिन्दगी के तजरबात वाकीय़ात व मुशाहेदात का अक्स मिलता हैं।”
जहर में अमृत बनाना अब जरूरी हो गया
शम्स जो दार व रसना की सुनने बेताब है
हौसले उनके बढ़ाना अब जरूरी हो गया
शम्स जालनवी मुश्क से मंझे हुये शायर थे। पूरे मुल्क में आप के सैकड़ों शागिर्द है, जो अपनी शायरी पर इस्लाह लेते हैं। शम्स साहब पौन सदी तक खामोशी से उर्दू अदब की खिदमात करते रहे।
उन्हें जेद्दाह और दुबई में मुसायरे में बुलाया गया, पर किसी वजुहात के वजह वे वहां नही जा पाये। पर अब उनकी शायरी वहां पहुंच गई हैं। यूट्यूब के माध्यम से वे दुनिया भर में पहुँचे है, इस तरह उनके चाहने वालों कि तादाद और ज्यादा बढ़ी हैं। ऑनलाईन प्लैटफॉर्म पर उनकी शायरी सुनी और पंसद की जाती हैं।
मुल्क के वजीरे आज़म अटल बिहारी वाजपेयी की मौजूदगी में लाल किला के एक मुशायरे में उन्हें अपना कलाम सुनाने का मौका मिला। यह सम्मान उन्हें दो बार मिला। यहीं पर उन्हें देश के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी, मंशा उर रहमान मंशा, बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली वगैरा के साथ वह कलाम पढ़ने का मौका मिला।
शबे गम के शहर होंगी यकीनन होगीउनकी शायरी का संग्रह ‘तमाजत’ के नाम से 1996 में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा संग्रह जल्द ही प्रकाशित होनेवाला था। उनकी अचानक मौत के बाद इसे जल्द प्रकाशित करने कि बात कही गई हैं। ‘तमाजात’ हिंदी (देवनागरी) संस्करण ‘मध्यान्ह का सूर्य’ के नाम से शाया (प्रकाशित) हुआ हैं।
सब के माथे पर भी गंदा है उजाले किसने
मौसुक को अदबी खीदमत के लिए रियासती और मरकज़ी सरकार के जानीब से मुख्तलिफ इनायतों से नवाजा गया है। अलग-अलग अकादमीयों ने उन्हें कई मोमेंटो और शालों के इज्जत भी बख्क्षी हैं।
शम्स ज़ालनवी को अपनी हयात में सरकार की तरफ से 1000 रुपया पेंशन मिलती थी। शम्स का इंतेकाल मराठवाडा के अदब का नाकाबील तलाफी नुकसान हुआ हैं। वो अदबी असासा (दौलत) और सरमाया (पूंजी) थे। शम्स ज़ालनवी की ये खला पुरी होने से तो रही।
(लेखक मुंबई स्थित साहित्यिक और कवी हैं)

वाचनीय
ट्रेडिंग$type=blogging$m=0$cate=0$sn=0$rm=0$c=4$va=0
-
जर्मनीच्या अॅडाल्फ हिटलरच्या मृत्युनंतर जगभरात फॅसिस्ट प्रवृत्ती मोठया प्रमाणात फोफावल्या. ठिकठिकाणी या शक्तींनी लोकशाही व्यवस्थेला हादरे द...
-
“जो तीराव फुले और सावित्रीमाई फुले के साथ काम फातिमा कर चुकी हैं। जब जोतीराव को पत्नी सावित्री के साथ उनके पिताजी ने घर से निकाला तब फातिमा ...
-
उस्मानाबाद येथे ९३वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन पार पडत आहे. या संमेलनाचे अध्यक्ष फादर फ्रान्सिस दिब्रिटो आहेत. तर उद्घाटन म्हणून रान...
-
अ खेर ४० वर्षानंतर इराणमधील फुटबॉल स्टेडिअमवरील महिला प्रवेशबंदी उठवली गेली. इराणी महिलांनी खेळ मैदानात प्रवेश करून इतिहास रचला. विविध वे...
-
मध्यपूर्वेतील इस्लामिक राष्ट्रात गेल्या 10 वर्षांपासून लोकशाही राज्यासाठी सत्तासंघर्ष सुरू आहे. सत्तापालट व पुन्हा हुकूमशहाकडून सत्...
-
फिल्मी लेखन की दुनिया में साहिर लुधियानवी और सलीम-जावेद के उभरने के पहले कथाकार, संवाद-लेखक और गीतकारों को आमतौर पर मुंशीजी के नाम से संबोधि...
-
इ थियोपियाचे पंतप्रधान अबी अहमद यांना शांततेसाठी ‘नोबेल सन्मान’ जाहीर झाला आहे. शेजारी राष्ट्र इरिट्रियासोबत शत्रुत्व संपवून मैत्रीपर्व सुरू...
/fa-clock-o/ रिसेंट$type=list
चर्चित
RANDOM$type=blogging$m=0$cate=0$sn=0$rm=0$c=4$va=0
/fa-fire/ पॉप्युलर$type=one
-
को णत्याही देशाच्या इतिहासलेखनास प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष रीतीने उपयोगी पडणाऱ्या साधनांना इतिहाससाधने म्हणतात. या साधनांचे वर्गीकर...
-
“जो तीराव फुले और सावित्रीमाई फुले के साथ काम फातिमा कर चुकी हैं। जब जोतीराव को पत्नी सावित्री के साथ उनके पिताजी ने घर से निकाला तब फातिमा ...
-
इ थे माणूस नाही तर जात जन्माला येत असते . इथे जातीत जन्माला आलेला माणूस जातीतच जगत असतो . तो आपल्या जातीचीच बंधने पाळत...
-
2018 साली ‘ युनिसेफ ’ व ‘ चरखा ’ संस्थेने बाल संगोपन या विषयावर रिपोर्ताजसाठी अभ्यासवृत्ती जाहीर केली होती. या योजनेत त्यांनी माझ...
-
राजा ढाले यांच्या लेखनीतून : घड्याळाच्या काट्यावर चालणाऱ्या अजस्त्र पण सुस्त मुंबईत काही घटना, घडामोडी घडताहेत. खरं म्हणजे मुंबईची घडी-मोड ह...
अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com