कुछ हिंदू संगठनों का दावा है कि मुस्लिम शासकों ने क़रीब 60,000 हिंदू मंदिरों को ध्वस्त किया, लेकिन डीएन झा और रिचर्ड ईटन जैसे इतिहासकारों के मुताबिक़, 80 हिंदू मंदिरों को नुक़सान पहुँचाया गया था।
ध्वस्त हिंदू मंदिरों की संख्या पर इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं, “60 के दशक में अख़बारों में 300 मंदिरों के तोड़े जाने की संख्या आनी शुरू हुई थी। उसके बाद अगले दो-तीन सालों में 300 से 3,000 हो गए। उसके बाद 3,000 से 30,000 हो गए।”
ऐसा नहीं है कि पूर्व के भारत के हिंदू मंदिरों में लूटपाट सिर्फ़ बाहर से आए ग़ैर-हिंदू आक्रमणकारियों ने ही की।
इतिहासकार रिचर्ड ईटन लिखते हैं, “मंदिरों में स्थापित भगवान और उनके राजसी संरक्षकों के बीच नज़दीकी रिश्तों की वजह से शुरुआती मध्यकालीन भारत में राजसी घरानों के आपसी झगड़ों की वजह से मंदिरों का अपमान हुआ।”
ईटन लिखते हैं कि साल 642 में स्थानीय मान्यताओं के अनुसार पल्लव राजा नरसिंह वर्मन-प्रथम ने चालुक्य राजधानी वातापी (बादामी) से गणेश की प्रतिमा लूटी थी।
आठवीं सदी में बंगाली सेना ने राजा ललितादित्य पर बदले की कार्रवाई की और उन्हें लगा कि वो कश्मीर में ललितादित्य साम्राज्य में राजदेव विष्णु वैकुण्ठ की प्रतिमा को बर्बाद कर रहे हैं।
इतिहासकार हरबंस मुखिया बताते हैं कि हिदुओं ने न सिर्फ़ मंदिरों को लूटा, बल्कि मंदिरों पर हमला करके मूर्तियों को उठाकर ले गए।
वो कहते हैं, “कश्मीर के राजा हर्ष ने तो कमाल ही कर दिया था। उन्होंने एक अफ़सर बना दिया था जिसका काम था मूर्तियां उखाड़ना।”
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ईटन लिखते हैं कि नौंवी शताब्दी में राष्ट्रकूट राजा गोविंद-तृतीय ने कांचीपुरम पर हमला किया और उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। इससे श्रीलंका के राजा इतने डर गए कि उन्होंने सिंहला देश का प्रतिनिधित्व करने वाली कई (शायद भगवान बुद्ध की) प्रतिमाओं को भेजा जिन्हें राष्ट्रकूट राजा ने अपनी राजधानी के शिव मंदिर में स्थापित किया।
क़रीब-क़रीब उसी वक़्त पांड्य राजा श्रीमारा श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर हमला किया और वहां के आभूषण महल में स्थापित सोने के बुद्ध की प्रतिमा को अपनी राजधानी लेकर आए।
इतिहासकार ईटन लिखते हैं कि 11वीं सदी के शुरुआती सालों में चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अपनी राजधानी को उन प्रतिमाओं से सजाया जिन्हें उन्होंने कई राजाओं से छीना था। इनमें चालुक्य राजा से छीनी गई दुर्गा और गणेश की मूर्ति, उड़ीसा के कलिंग से छीनी गई भैरव, भैरवी और काली की प्रतिमाएं, पूर्वी चालुक्य से छीनी गई नंदी की प्रतिमाएं शामिल थीं।
साल 1460 में ओडिशा के सूर्यवंशी गजपति राजवंश के संस्थापक कपिलेंद्र ने युद्ध के दौरान शिव और विष्णु मंदिरों को ढहाया।
ईटन लिखते हैं कि ज़्यादातर मामलों में राजा शाही मंदिरों को लूटते थे और भगवान की मूर्तियों को लेकर चले जाते थे, लेकिन ऐसे भी मामले सुनाई दिए जिनमें हिंदू राजा अपने विरोधियों के राज मंदिरों को बर्बाद कर देते थे।
इतिहासकार हरबंस मुखिया के मुताबिक़, ‘राज परिवारों को मंदिरों से वैधता मिलती थी और विरोधियों के मंदिरों को तोड़ने का मतलब होता था- विरोधी की शक्ति और वैधता के स्रोतों पर हमला करना’।
वो कहते हैं, “सवाल पूछे जाते थे कि आप कैसे राजा हैं जो अपने मंदिर को नहीं बचा सके।” हरबंस मुखिया के मुताबिक़, ‘मंदिरों पर हमले की एक और वजह उनमें पाया जाने वाला सोना, हीरे-जवाहरात होते थे’।
ईटन कहते हैं कि ’ये पक्के तौर पर कभी पता नहीं चल पाएगा कि कितने हिंदू मंदिरों का अपमान किया गया, लेकिन 12वीं से 18वीं सदी के बीच 80 हिंदू मंदिरों के अपमान के क़रीब-क़रीब पक्के सबूत मिले हैं। हालांकि ये आंकड़ा कई राष्ट्रवादी हिंदुओं के 60 हज़ार के आंकड़े से बहुत दूर है।’
ईटन कहते हैं कि जब मुस्लिम तुर्क आक्रमणकारियों ने हमला किया तो उन्होंने भी वही सब किया, चाहे वो तुग़लक़ साम्राज्य के शासक हों या फिर लोधी साम्राज्य के।
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हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध तीर्थस्थलों की बर्बादी?
हिंदुओं में अत्याचारपूर्ण जाति व्यवस्था और जटिल कर्मकांडों की वजह से प्राचीन भारत में लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगे थे और माना जाता है कि हिंदू धर्म के अनुयायी इसे ख़तरे के तौर पर देखने लगे थे।
एक सोच है कि इससे निपटने के लिए हिंदुओं ने बौद्धों के ख़िलाफ़ अत्याचार किया। बौद्ध धर्म के कुछ पहलुओं का इस्तेमाल कर बौद्धों को वापस अपनी ओर खींचा और बुद्ध को हिंदू भगवान विष्णु का अवतार बताना शुरू कर दिया। हिंदू धर्म के पुनर्जागरण में आचार्य शंकर का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।
डीएन झा लिखते हैं कि ’एक तरफ़ जहां सम्राट अशोक भगवान बुद्ध को मानने वाले थे, वहीं उनके बेटे और भगवान शिव के उपासक जालौक ने बौद्ध विहारों को बर्बाद किया।’
डीएन झा राजा पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बड़ा उत्पीड़क बताते हैं जिनके बारे में माना जाता है कि उनकी विशाल सेना ने बौद्ध स्तूपों को बर्बाद किया, बौद्ध विहारों को आग लगा दी और सागल (आज का सियालकोट) में बौद्धों की हत्या तक की।
पुष्यमित्र शुंग के बारे में डीएन झा लिखते हैं कि हो सकता है कि उन्होंने पाटलिपुत्र (आज के पटना) में भी बौद्ध विहारों आदि को बर्बाद किया हो। झा लिखते हैं कि शुंग शासनकाल में बौद्ध स्थल सांची तक में कई भवनों के साथ तोड़फोड़ के सबूत मिले हैं।
चीनी यात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा का हवाला देते हुए झा कहते हैं कि शिव भक्त मिहिरकुल ने 1,600 बौद्ध स्तूपों और विहार को नष्ट किया और हज़ारों बौद्धों को मार दिया।
प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में डीएन झा लिखते हैं कि इसके पुस्तकालयों को ’हिंदू कट्टरपंथियों ने आग लगा दी’ और इसके लिए ग़लत तरीक़े से बख़्तियार खिलजी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया, जो वहां कभी गए ही नहीं थे।
डीएन झा लिखते हैं कि इस बात में कोई शक़ नहीं है कि पुरी ज़िले में स्थित पूर्णेश्वर, केदारेश्वर, कंटेश्वर, सोमेश्वर और अंगेश्वर को या तो बौद्ध विहारों के ऊपर बनाया गया या फिर उनमें उनके सामान का इस्तेमाल किया गया।
हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय में बौद्ध स्टडीज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर केटीएस सराओ, डीएन झा के विचारों को ’पक्षपातपूर्ण’ और ’संदेहास्पद’ बताते हैं।
वो कहते हैं, “ब्राह्मणों, बौद्धों के बीच बहस या बौद्धिक स्तर पर मतभेद थे, लेकिन ये कहना कि उनमें आपस में किसी तरह की हिंसा हुई, ये सही नहीं है। मुझे आश्चर्य है कि लोग कहते हैं कि हज़ारों को मार दिया गया। ऐसा नहीं हुआ।”
‘द डिक्लाइन ऑफ़ बुद्धिज़्म इन इंडिया’ के लेखक प्रोफ़ेसर सराओ के मुताबिक़, ‘हो सकता है कि दोनों पक्षों के बीच स्थानीय या व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा हुई हो, लेकिन कोई भी बड़े स्तर पर हिंसा नहीं हुई।’
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प्रोफ़ेसर सराओ के मुताबिक़, बख़्तियार खिलजी और उसके लोगों ने नालंदा विश्वविद्यालय को तबाह किया और ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि पुष्यमित्र शुंग जैसे ब्राह्मण राजाओं के राज में बौद्धों या फिर उनके तीर्थ स्थलों के ख़िलाफ़ हिंसा हुई या फिर ब्राह्मणों ने बौद्धों के ख़िलाफ़ अत्याचार किया।
वो ऐसी सोच को विक्टोरियाकालीन इंडोलॉजिस्टों का फैलाया हुआ ’ज़हर’ बताते हैं। वो कहते हैं, “प्राचीन काल में अल्पसंख्यकों का संस्थागत उत्पीड़न नहीं होता था।”
हालांकि ख़ुद के धर्म को सच्चा मानने वालों का दूसरे धर्म के लोगों के ख़िलाफ़ अत्याचार सिर्फ़ भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी देखने को मिलता है। अहिंसा बौद्ध धर्म के केंद्र में है, लेकिन हमने देखा है कि श्रीलंका और म्यांमार में बहुसंख्यकों पर दूसरे धर्म के लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने के आरोप लगे हैं।
भारत के पड़ोस पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान की कहानी अलग नहीं है। हाल ही में इस्तांबुल में पूर्व में कथिड्रल रहे हागिया सोफ़िया को मस्जिद में बदल दिया गया। यूरोप के धार्मिक युद्धों में गिरिजाघरों में हिंसा देखने को मिली।
लेकिन आज के भारत में इतिहास के इतने जटिल हिस्सों को टीवी पर होने वाली बहसों में पेश करने के तरीक़ों पर इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं, “पॉपुलर हिस्ट्री आसान होती है और प्रोफ़ेशनल हिस्ट्री जटिल। एक प्रोफ़ेशनल हिस्ट्री की किताब 1,000 लोग पढ़ेंगे। टीवी चैनल को 10 लाख लोग देखेंगे। (तो सुनने को मिलता है) लिखते रहिए 1,000 लोगों के लिए, हम तो 10 लाख लोगों तक पहुँच जाएंगे।”
References:-
1. Essays on Islam and
Indian History by Historian Richard Eaton
2. Essays of Proff
Richard H. Davis, Professor of Religion and Asian Studies, Bard College.
3. “The Sages of India”
in The Complete Works of Swami Vivekananda, Vol. 3, Advaita Ashram, Calcutta
4. "Against the
Grain: Notes on Identity, Intolerance and History" by DN Jha
5. Romila Thaper, Ashoka
and Decline of Mauryas, London, 1961
6. ''Hindu Temples: What
Happened to them'' by Arun Shourie and Others
7.
https://www.thehindu.com/society/history-and-culture/the-temple-was-not-a-vedic-institution-manu-v-devadevan/article26149218.ece
8.
https://timesofindia.indiatimes.com/india/what-was-hinduism-like-before-temples/articleshow/84473031.cms
9. www.worldhistory.org
10.
www.learnreligions.com