प्रगतीशील लेखक संघ की जरुरत आज क्यों हैं?


जावेद अख्तर का नजरिया:

कुछ थोड़ी सी राज़ की बात आप लोगों को बताता हूं, फिर शुरू करुगा। मैं बैठा था छगन भुजबल साहब के पास में। उनसे कहा, यहां बहुत बड़े लोग बैठे हैं तो मुझे किस-किस का नाम लेना चाहिए, अगर कोई मुझे लिखकर दे देगा, तो मैं बोल दूंगा। मै कुछ को पहचानता हूं, कुछ को नहीं पहचानता हूं। उन्होंने किसी को हुक्म किया और लिस्ट मेरे पास आ गई। जो काफी लंबी थी।

मैंने कहा, भुजबल साहब लिस्ट तो बहुत लंबी है, तो कहने लगे कि आप मेरा नाम मत लीजिए। या लीजिए भी तो एंड में लीजिएगा। वह तो मैं नहीं करूंगा... क्योंकि मुझे अगले साल भी आना है।

लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि जब मैंने नाम गौर से पढ़ें, लगा यह इतने बड़े लोग हैं और इतने रिस्पेक्टेड और इतने माननीय लोग हैं कि इनका नाम न लू तो इन के सम्मान में कोई इजाफा नहीं होने वाला, बढ़ने वाला नहीं। वह पहले से है, इन्हें मेरी जरूरत नहीं है। तो मैं जितने मंच पर बैठे हैं, देवियों और सज्जनों सब को मैं सादर प्रणाम करता है और आगे बात शुरू करता हूं।

जब मुझे यह इनविटेशन मिला, निमंत्रण मिला, मैंने अपने आप को बहुत सम्मानित भी महसूस किया। लेकिन साथ ही मन में एक शंका भी हुई कि मैं इस योग्य हूं कि नहीं! कि मैं मराठी साहित्य सम्मेलन में जाकर बोलूं। लेकिन फिर मुझे याद आया कि मैंने पढ़ा हुआ है, कि पेशवाओ के दरबार में भक्ति के कवि, अभंग, पोवाड़ा, भारुड के माने हुए लोग होते थे। तो वहां शायर भी आया करते थे।

और यह बात छत्रपति शिवाजी के दरबार में भी सच्ची है। तो मैंने कहा कि यह दरबार है, मराठी साहित्य का और मैं छोटा मोटा मामूली शायर – मैं इस दरबार में पूरे आदर, पूरे सम्मान के साथ जाता हूं। आप लोगों का मेरा प्रणाम, मेरा सलाम। नासिक के धरती को, नासिक के आकाश को मेरा सलाम, नासिक के रहने वालों को मेरा सलाम।

अजीब मुश्किल है, भाषा दुनिया में इसलिए बनी थी कि मैं बोलूं और आप समझे, और आप बोले और मैं समझू। लेकिन हम देखते हैं दुनिया में भी और खुद अपने देश में भी, की भाषा ही बातचीत की दीवार बन जाती है। हमारे यहां कितनी भाषाएं हैं और दुनिया मे तो हैं, हमारे देश में भी इतनी भाषाएं हैं, कि कितनी भाषा सीखेंगे आप! तो होता यह है कि धीरे-धीरे हम लोग जिसे संस्कृत में कहते हैं कूपमंडूक, हम वो हो जाते हैं।

हम अपनी भाषा, अपनी सभ्यता, अपनी भाषा सिर्फ बोलचाल की चीज नहीं है। भाषा हो गाड़ी है जिसमें संस्कृति चलती है। बस हम समझते हैं यही दुनिया है। और हम भूल जाते हैं कि इससे बाहर भी कुछ दुनिया है, इसके बाहर भी कुछ भाषाएं हैं।

मैं उन्नीस बरस का था जब मैं मुंबई आया, महाराष्ट्र आया। नार्थ में रहता था, हमको तो हिंदी-उर्दू पता थी। कुछ यूरोप की लिटरेचर पढ़ी थी। कुछ बंगाली, उर्दू, हिंदी में ट्रांसलेटेड थी वह पढ़ी थी। बंगाली क्लासिकल राइटर... मगर हम तो समझते थे कि हम हैं, हम जैसा तो कोई नहीं है। जो हमारी भाषा, जो हमारा लिटरेचर, जो हमारा फिक्शन है, जो हमारी पोएट्री है उसके आगे कौन है भाई!

यहाँ मेरे कुछ दोस्त थे जो मुझे एक मराठी प्ले देखने ले गए। मैंने कहा, मुझे मेरे तो समझ में कुछ नहीं आएगा। कहने लगे कि चलो हम तुम्हें बताते रहेगे ना! मैंने वह प्ले देखा, ‘शांतता आता कोर्ट चालू आहे।’

मुझे ऐसा लगा कि किसी ने मेरे मुंह पर ऐसा थप्पड़ मारा है मैं कुर्सी से नीचे गिर गया। और मुझे अपने ऊपर शर्म आई। के मैं इस महान राइटर के बारे में कुछ जानता नहीं, जबकि मैं ऐसे परिवार में पैदा हुआ था जहां लिटरेचर ही लिटरेचर है।

मैंने विजय तेंदुलकर के दूसरे प्ले देखे, मेरे साथ मेरे महाराष्ट्रीयन मित्र बैठे रहते थे, वह मुझे बताते थे। जो नहीं समझ पाता था बाहर सुनता था, जब बाहर का सुनता तो दोबारा जाकर देखता था, तो पूरा समझ में आता था।

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पी.एल. देशपांडे साहब से परिचित कराया। ऐसे इंसान हमने तो देखे नहीं थे, सुने नहीं थे। जो जैसे बोलते थे, कहते थे तो आंखें खुल गई। अजीब बात है जो मातृभाषा होती है आदमी की, उससे आदमी अतीत से वर्तमान में आता है। बचपन से पढ़ता है, पुराने कवियों को, पुराने लेखकों को, उसके बाद नए-नए आते रहते पढ़ता रहता है पढ़ता रहता है।

लेकिन जो बाहर से आते हैं वह वर्तमान से अतीत में जाते हैं। सबसे पहले वह तो वर्तमान के राइटर है, वर्तमान के लेखक है, वर्तमान के कवि हैं, उनसे उनका सामना होता है और उसमें उनकी रूचि पैदा होती है। तो मैंने सोचा कि यह जो लोग हैं, यह कहां से आए हैं। इनके पीछे का सिलसिला क्या है।

मेरे मराठी के दो-तीन दोस्त हैं, शायद आपने नाम भी सुना होगा। अच्युत वझे - मराठी लिटरेचर के बहुत बड़े आदमी हैं। उन्होंने मराठी टीवी भी बहुत किया हैं। पुणे के पास एक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे हैं। उनकी पत्नी बहुत बड़ी पेंटर है। एक और हमारे सर्जन दोस्त हैं पूना में, आनंद जोशी साहब। वह भी बड़े रसिक आदमी है। उनको इतनी मराठी पोएट्री याद है, जितनी मुझे उर्दू पोएट्री याद है। और वह मुझे सुना के समझाते रहे।

मेरी तो एक अजीब हालत हो गई है और मैंने समझा कि मुझे तो खजाना मिल गया। कुछ चीजें कभी-कभी क्या होता है कि आप बैठे चेस खेल रहे हैं, या शतरंज खेल रहे हैं, या ताश खेल रहे हैं - तो आदमी पीछे से आता हैं, वह पिछे से देख रहा होता हैं, वह वह देख लेता हैं, तो आप खेल रहे नही देख पा रहे।

तो कुछ चीजें मैंने भी नोट की, समझी है मराठी साहित्य के बारे में। एक तो चाहे वह 800 बरस हो, या 400 बरस हो या 200 बरस हो। मराठी साहित्य का बड़ा रायटर वही है जिसने सिर्फ जनता से बात की है।

जिसने यह नहीं बताया कि मैं कितना बड़ा-बड़ा इंटेलेक्चुअल हूं। जिसने वह फिलॉसफी नहीं छांटी जो एक आम आदमी की समझ में ना आए। वह आम इंसान से बात कर रहा था। वह चाहे संत तुकाराम हो, संत नामदेव हो, संत एकनाथ हो, उससे पहले संत ज्ञानेश्वर।

संत ज्ञानेश्वर उनके भाई और उनकी बहन मुक्ता देवी.. दो बातें आपको बताऊं जो बड़ी अजीब है, पता नहीं आप लोगों के ध्यान में आई या नहीं। इनके एक समांतर तकरीबन उनके – वह तो 800 साल पुराने हैं, 400 साल बाद उधर बनारस में हुआ, जो थे महाकवि तुलसीदास जी।

तुलसीदास जी ने कहा रामायण की कथा, अवधी में ‘राम चरित मानस’ लिखी। गांव-गांव फैल गई। संस्कृत तो सब नही जानते थे, लेकिन यह भाषा तो किसान की भाषा थी, मजदूर की भाषा थी, आम इंसान की भाषा थी। यह बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगी; कि तुमने आम आदमी तक यह बात पहुंचा दी। उनका सोशल बॉयकॉट हो गया और उस पर उन्होंने एक चौपाई लिखी तुलसीदास ने।

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मस्जिद में सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥

(मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझ को तो माँग के खाना और मसजिद में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।)

हम यह देखते हैं कि जब कोई राइटर जनता को ज्ञान देने की कोशिश करता है, आम इंसान को जगाने की कोशिश करता है, उसके संस्कार, उसको उसका ऐतिहासिक जो विरास है, जो उसका गौरव है उसे देने की कोशिश करता है, तो यह बात कुछ लोगों को बहुत बुरी लगती है, ऐसा नहीं करना चाहिए।

ऐसा नहीं हैं, बड़े लोग होते हैं - बादशाह, नवाब, राजे-महाराजे, जमींदार, जागीरदार - इनको कला से बड़ी मोहब्बत रही है। आज के भी जो जमींदार, जागीरदार अलग तरह के हैं। उन्हें भी कला से बड़ी मोहब्बत है। लेकिन कला इनको तब तक अच्छी लगती है, जब वह खूबसूरत तस्वीरें बनाती है।

जब तक यह चांद की, सितारों की, फूल की, भंवरे की बात करती हैं। जब यह शमां और परवाने का जिक्र करते हैं। या फिर मोहब्बत की बैचेनी और रातों को जागने का जिक्र करती हैं।

मगर जब यह दिन के उजाले की बात करने लगती हैं, जब महफिल और दरबान के निकल के एक कवि और एक लेखक सड़क पर चलते हुए आदमी के दुख पढ़कर लिखता है, जब फुल, सितारे और चांद के बजाय - आंसू और पसीने की बूंदों के जिक्र आता है, तो फिर आप खतरनाक हो जाते हैं। पहले तो बुरे हुआ करते थे, अब तो अँटी नेशनल भी हो जाते हैं।

ऐसा क्या है, हमारे देश में रोशनी के बहुत सारे आइलैंड है, टापू है। लेकिन वह एक दूसरे से कनेक्ट नहीं है। वह एक दूसरे के बारे में जानते नहीं हैं। दूसरी एक बहुत अहम बात - जिस से मराठी भाषा और मराठी समाज जितना भी गर्व करें कम है।

संत ज्ञानेश्वर की एक बहन थी - मुक्ता देवी वह भी कविता लिखते थी। और यह आपको और मुझे मालूम है। यूरोप में तो कोई 800 साल पहले कोई लिखने वाली नहीं थी। 18वीं और 19वीं सदी को तो छोड़िए - 800 साल के बात फ्रांस में एक बहुत बड़ी नॉवेलिस्ट थी, जॉर्ज फैन्ड - मर्द के नाम से लिखती थी। इंग्लैंड में एक औरत जॉर्ज इलियट के नाम से लिखती थी। बिग राइटर मगर पेन नेम से लिखती हैं, औरत कैसे लिख सकती है?

200-250 बरस पहले - हमारे पास 800 साल पहले की कवियत्री है। हम उसे उस पर गर्व कर सकते हैं। बहुत बड़ी बात है, मामूली बात नहीं है। यह Brontë Sisters यह 18-19 सेंचुरी की है। यह तीनों बहनों ने पहले पुरुष के नाम से लिखा, फिर पब्लिशिंग हाउस से वह बात खुल गई। और लोगों को मालूम हुआ कि यह नॉवेल तो औरतें लिख रही है।

आपको दुख से बताता हूं, इसलिए कि इसमें कुछ ऐसे बड़े-बड़े राइटर के नाम है, जिसमें कुछ मुझे बहुत पसंद है। उन बड़े-बड़े राइटर ने इन औरतों से कहा, के तुम्हें क्या अधिकार है लिखने का? बाकीओं तो छोड़िए। बड़े-बड़े राइटर बोल रहे थे।

अब यह हमारे यहां देखीए, मुक्ताबाई थी। इसके बहुत बाद आई – बहिणाबाई, वोह भी थी। हमारी मीरा तो इनके 400-350 साल पहले हुई, लेकिन मुझे ध्यान नहीं है कि 800 बरस पहले सिवाय मराठी के हिंदोस्ताँन के कोई भाषा में कोई विमेन पोयटिक थी।

हैरत की बात नहीं है कि पहली हिंदोस्ताँन की पहली लेडी डॉक्टर जो है, वह एक महाराष्ट्रीयन थी। तो कहीं इस जगह की, महाराष्ट्र की, सभ्यता में कहीं नारी के लिए कही दुसरी जगह से ज्यादा महिला के लिए दूसरी जगह से ज्यादा इज्जत होती है कुछ तो थी ना, कुछ तो था!

अब हमारे दोस्त (विश्वास पाटील –पानिपतकार) ने अन्नाभाऊ साठे का जिक्र किया। उनके बारे में मैं भी बोलना चाहता था। इससे पहले कि उनके बारे में हम बात करें, यहां बहुत से सारे कवि, लेखक बैठे हैं, ऐसा मुझे बताया गया हैं। और यह सवाल हम सबके सामने आता है कि साहित्य और पॉलिटिक्स - राजनीति का रिश्ता क्या है? और कितना गहरा है, और है भी के नही? और है भी कि नहीं और है तो कैसा है?

मुझे कुछ लोग मिलते हैं, जो अभी भी बड़े प्यारे-प्यारे गीत लिख रहे है। बड़ी प्यारी-प्यारी कहानियां लिखते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, कि “आई एम नॉट इंटरेस्ट इन पॉलिटिक्स!”

मैंने उनसे कहा, कि यह तो ऐसा ही है कि जैसे आप कहे कि मैं पोलूशन में इंटरेस्टेड नहीं हूं। अरे आप पोलूशन में इंटरेस्टेड हो नहीं हो - सांस तो उसी की ले रहे हैं। वह तो आपके सिस्टम में जा ही रहा है। यह तो ऐसा है जैसे कि आप बीच नदी में खड़े हैं और पानी बढ़ रहा है। गले-गले तक आ चुका है, आप कह रहे हैं मैं पानी में इंटरेस्टेड नहीं हूं। अरे भाई, तुम इंटरेस्टेड नहीं हो, मगर पानी तो बढ़ रहा है। वह तो तुम्हें डुबो भी सकता है।

तो फिर क्या साहित्यकार को कवि को, नोवेलिस्ट को साहित्य - राजनीति में घुस जाना चाहिए। कमिट कर देना चाहीए अपने आप को; वह भी गलत होगा। वह इसलिए गलत होगा कि हर पार्टी का विदाउट एक्सपशन एक डिसिप्लिन होगा, उनकी अपनी एक कॉन्सिटयूएनसी होगी।

आप यह कह सकते हैं, यह भी कह सकते हैं, वह भी कह सकते है, लेकिन यह नही कह सकते। यह मत कहेना भाई.. अगर कहोगे तो जरा गड़बड़ होगी, हमें नुकसान हो जाएगा। तो कहीं ना कहीं एक भ्रांत हैं।

मैं समझता हूं कि जनतंत्र के लिए जहां एक पार्लिमेंट जरूरी है, जहां एसेंबली जरूरी है, जहां पॉलिटिकल पार्टीज् जरूरी है, जहाँ सत्ताधारी सरकार जरूरी है, जहां अपोजिशन भी जरुरी है। वहीं ऐसे नागरिक भी जरूरी है जो किसी भी बंधन में ना हो। जो वह बोल सके, जो उनका दिल चाहे। वह लिख सके उनका दिल चाहे। साहित्यकार को किसी पार्टी का वफादार नहीं होना चाहिए। साहित्यकार को एक संस्कार का, एक आदर्श का, अपने देश का वफादार होना चाहिए।

हम समझते हैं यह सही है, हम बोलेंगे! जिसे अच्छा लगे, अच्छा लगे, बुरा लगे बुरा लगे। यह आज़ादी साहित्यकार के पास होनी चाहिए। और सच यह है कि यह आजादी चाहे आम नागरिक हो, चाहे कवि हो, या लेखक हो – कम-कम होती जा रही है। कलम ठिठक गए हैं, जबान लड़खड़ा रही है। शक्ति हमें तो एकता से मिलेंगी।

मैं समझता हूं कि आप लोगों ने इतना बड़ा जलसा किया है, मैं आपको बधाई देता हूं। पर मेरी एक विनती है एक काम के लिए, जो 1936 में हुआ था। जहां अन्नाभाऊ गए थे। 1936 में एक ऑर्गेनाइजेशन फॉम हुई थी, जिसका नाम होता है प्रगतिशील लेखक संघ  - ‘प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन।’

उसका पहला जलसा लखनऊ में हुआ। उसको प्रीसाइट किया मुंशी प्रेमचंद ने। वहां पर मैसेज दी, रवींद्रनाथ टैगोर ने। वहां हर भाषा के, मराठी के, गुजराती के, हिंदी के, उर्दू के, बंगाली के, तमिल के, तेलगू के हर जबान का राइटर था।

वहां रिजोल्यूशन पास हुआ कि आज से हमारा यह कलम मोहब्बत की कहानियां नहीं लिखेगा, आज से हमारा यह कलम फूलों की और तारों की तारीफ नहीं करेगा, आज से हमारा यह कलम हमारे देश आजादी के लिए होगा। आज से हमारा यह कलम समाजी ना बराबरी के लिए होगा, उससे लड़ने के लिए होगा। आज से हमारा यह कलम नारी जाति के उत्थान और उनके इम्पावरमेंट के लिए होगा। सारे राइटर - जिन्होंने इसके लिए लिखा।

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1950 का एक दौर था, जब किसी यूनिवर्सिटी में सर्वे किया गया, आप प्रोग्रेसिव या लिबरल क्यो हैं? उन्होंने यह नही बताया की हमने किसी इकोनॉमिक्स को पढ़ा हैं, किसी सोशियॉलॉजिस्ट को पढ़ा हैं। हमने किसी पोलिटिकल साइंटिस्ट को पढ़ा हैं। उन्होंने कहा, हमने प्रगतीशील साहित्य पढ़ा हैं, और उससे हम प्रगतीशील हुए हैं, उससे हम सेक्युलर हुए हैं। उससे हम लिबरल हुए हैं। उससे हमारे मन में महिला की इज्जत जागी हैं।

मैं समझता हूँ 1936 में रही होगी जरुरत, बहुत जरुरत रही होगी। मगर क्या आज से ज्यादा! यह जरुरत तो आज हैं। और में आप लोगो से यह कहता हू, लेखक कवि और बुद्धिजीवीयों ने एक साथ आकर प्रगतीशील लेखक संघ जैसे प्रयोग नये से करने चाहीए। दुनियाभर क लेखकों को आमंत्रित करना चाहीए।

जाते जाते एक नज्म सुनाता हूँ जो मैने ही लिखी हैं। (तालीयो की गूंज) पहले सून तो लीजिए क्या पता, अच्छी नही लगे।

जो बात कहते डरते हैं सब, तू वह बात लिख

इतनी अंधेरी थी न कभी पहले रात, लिख

जिनसे क़सीदे लिखे थे, वह फेंक दे क़लम

फिर खून-ए-दिल से सच्चे क़लम की सिफ़ात लिख

जो रोज़नामों में कहीं पाती नहीं जगह

जो रोज़ हर जगह की है, वह वारदात लिख

जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे

अब आ खुली फ़िज़ाओं में अब कायनात लिख

जो वाक़ियात हो गए उनका तो ज़िक्र है

लेकिन जो होने चाहिए वह वाक़ियात लिख

इस बाग़ में जो देखनी है तुझ को फिर बहार

तू डाल-डाल से सदा, तू पात-पात लिख

आदाब...

(दिसम्बर के पहले हप्ते में महाराष्ट्र के नासिक शहर में ‘अखिल भारतीय मराठी साहित्य समेलन’ का आयोजन हुआ। जिसमें प्रसिद्ध शायर जावेद अख्तर का भाषण बहुचर्चित रहा। कलीम अजीम ने इस भाषण का ट्रान्सक्रिप्ट नजरिया के लिए किया हैं।)

वाचनीय

Name

अनुवाद,2,इतिहास,49,इस्लाम,37,किताब,24,जगभर,129,पत्रव्यवहार,4,राजनीति,292,व्यक्ती,17,संकलन,61,समाज,246,साहित्य,77,सिनेमा,22,हिंदी,53,
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नजरिया: प्रगतीशील लेखक संघ की जरुरत आज क्यों हैं?
प्रगतीशील लेखक संघ की जरुरत आज क्यों हैं?
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