सोशल मीडिया के दौर में मुसलमानों में फातेमा शेख कि पोस्ट आए दिन वायरल किए जाती हैं। उसके साथ यह मेसेज होता हैं कि उन्होंने कथित रूप से ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई को अपने घर में पनाह दी थी। इससे अधिक जानकारी मुझे अब तक नही मिल पाई हैं।
जबकि मुझे तो लगता हैं कि फातेमा शेख नाम कि कोई महिला महाराष्ट्र में हुई ही नही थी। हां, मुसलमान लडकियों के लिए पहला स्कूल खोलने वाली रुकैया सखावत हुसैन (1880-1932)के बहुत जानकारी उपलब्ध हैं। परंतु यह व्यक्ति हमारे जानकारी से ओझल हैं।
कोलकाता के लॉर्ड सिन्हा मार्ग पर स्थित ‘सखावत मेमोरियल गव्हर्मेंट गर्ल्स हाईस्कूल’ का लोहे से बना बडा सा प्रवेश द्वार हैं। जिसपर स्कूल के स्थापना का सन लिखा हैं। जो दर्शाता हैं कि करीब 108 साल पहले इस स्कूल की नींव रखी गई थी। यह स्कूल आज भी अपने उच्चतम गुणवत्ता के लिए विख्यात हैं।
1911 में बना यह स्कूल मुसलमानों के लडकिय़ो के शिक्षा के मकसद से बिहार में स्थापित किया गया था। यह वो समय था जब मुसलमानों मे सिर्फ लडको को शिक्षा दी जाती थी, पर लडकियो को वंचित रखा जाता था।
मुसलमान लडकियो को घर में रहकर ही सिर्फ धार्मिक शिक्षा कि सुविधा उपलब्ध की जाती थी। ऐसे समय में लडकियों को आधुनिक शिक्षा देने के मकसद से इस स्कूल कि स्थापना की गई।
इन्कलाबी वातावरण में हुई परवरीश
पुरुषसत्ताकता कि प्रखर विरोधी रही बेगम रुकैया हुसेन (Begum Rokeya) नामक महिला ने इस स्कूल कि नींव रखी थी। नारीवादी कही जाने वाली रुकैया खातुन का जन्म 9 दिसंबर 1880 में उत्तरी बंगाल याने आज का बांगला देश के रंगपुर (Rangpur) ज़िले के पैराबंद (Pairaband) गांव में हुआ था। (जन्म के तारीख को लेकर कई धारणाए हैं)
उनके पिता जहीरुद्दीन मुहंमद अबू अली हुसेन साबेर इलाके के जमींदार और पढे-लिखे इन्सान थें। उनका रुतबा भी देखते बनता था। जबकी उनकी माँ राहेतुन्निसा (Rahatunnessa Sabera Chowdhurani) एक घरेलू कामकाजी महिला थीं।
इस दम्पत्ती को पांच संताने थी। अब्दुल असद इब्राहिम तथा खलीलुर रहमान और रुकैया। रुकैया इस परिवार कि तिसरी संतान थी। उनके बाद खैरुनिस्सा और हुमैरा दो बहने थीं।
रुकैया जब वह पैदा हुई तब भारत में स्वाधिनता कि लडाई अपने चरम पर थीं। 1857 के सशस्त्र विद्रोह के बाद देशभर में अंग्रेज विरोधी हवा चल निकली थी।
इसी बरतानीयां हुकूमत के विरोधी नारे, इन्कलाबी घोषणा और आजादी के जज्बे के जनाआंदोलनों के बीच रुकैया हा बचपन बिता। एक ओर पारंपरिक सभ्यता और संस्कृति तथा रुढीयों कि जकडे तो दूसरी तरफ इन्कबाली वातावरण, ऐसी माहौल में वे पली बडी।
बेगम रुकैया के बारे मे कहा जाता हैं कि वह शुरू के ही बागी किस्म के महिला रही। मुसलमानों के संभ्रात परिवार लडकियों के शिक्षा को बुरा माना जाता था।
कहा जाता हैं कि, उस समय लडकियों को सिर्फ घर के काम करना और अरबी में कुरआन पढना इतना ही सिखाया जाता था। मौलाना आजाद के अंगेजी शिक्षा का भी घर से विरोध हुआ था, तब उन्होंने छ्पिकर अंग्रेजी का तालीम हासील की थीं।
रुकैया को फिर भी लडकी थी, उनका विरोध होना तो लाजमी था। हाईस्कूल तक की शुरुआती पढाई घर पर ही हुई। पर आगे कि पढाई रोकी गई। पर तमाम विरोध के बावजूद उन्होंने घर में ही छुप-छुप कर अपनी पढाई जारी रखी।
उनके पढाई के इस जज्बे को देखते हुए उन्हे कलकत्ता के प्रतिष्ठित सेंट झेवियर कॉलेज (St. Xavier college) भेजा गया। इसमें उनके भाई ने उनका साथ दिया। उर्दू, बांगला के साथ साथ वे अंग्रेजी की शिक्षा भी हासील करती रही। भाईयों के मदद से उनकी पढाई जारी रही। पर उनकी बहनों को यह लाभ नही मिल सका।
उनके भाई रुकैया हुसेन के पढाई के प्रति लगन को समझते थें। इसलिए उन्होंने रुकैया के लिए ऐसे रिश्ते को मंजुरी दी और उसके लिए कोशिशे कि जहाँ शोहर उन्हे घर में बंद रखने के बजाए आजादी और बेखौफ होकर पढाई का वातावरण दे।
1898 में अठाराह साल के उम्र में ब्रिटिश सरकार (Bihar region of Bengal Presidency) डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट पर नियुक्त रहे सय्यद सख़ावत हुसैन (Syed Sakhawat Hossain) से उनकी शादी हुई। जो रुकैया से उम्र में 16 साल बड़े थे। जिनकी पहले एक और शादी हो चुकी थी।
पर उनके भाई को लगा कि वे रुकैया के लिए बेहतर इन्सान साबित हो सकते है। सख़ावत हुसैन बिहार के भागलपुर के रहने वाले थे। वे एक होशियार और सुधारवादी व्यक्ती थें।
एक बागी महिला
शादी के बाद रुकैया ने लिखना शुरू किया। वह पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ खुलकर लिखने-बोलने लगी। स्त्रियों के अधिकार-उन्नती, उनके दमन, महिलाओं को पुरुषो के बराबरी का दर्जा तथा उनके अधिकारों पर वे आये दिन अपने कॉलमो में बहस करती।
उनका लिखे लेख ‘इंडियन लेडीज़ मैगझिन’ (The Indian Ladies’ Magazine) जैसे जाने-माने पत्रिका में प्रकाशित होते थें। जिसकी खूब चर्चा होती थी। समाज के बढते विरोध के चलते उन्होंने ‘आर. एस. हुसेन’ (R. S. Hossain) नाम से लिखना शुरू किया।
बेगम रुकैया ने अपना पहला बांगला उपन्यास ‘स्त्रीजातिर अबोनीति’ लिखा जिसका मतलब ‘स्त्री जाति की अवनति’ था। इस उपन्यास नें उन्हे काफी सराहा गया, तथा उसका विरोध भी किया गया। कुछ ही दिनो में वह बांगला साहित्य मे परिचित हो नाम हो गई।
उन्होंने कई कथा-कहानियाँ तथा उपन्यास लिखे हैं। उनका ‘सुलतानाज् ड्रीम’ काफी लोकप्रिय हुआ, जो एक भाषण था। उनकी कई किताबे आज भी उपलब्ध हैं।
लडकियों के स्कूल की नींव
बेगम रुकैया को शौहर सखावत हुसैन का साथ ज्यादा समय तक नही मिला। कहते हैं, लगभग 14 साल साथ रहने के बाद 1909 में सखावत हुसेन इंतकाल कर गए।
इस घटना के बाद रुकैया बहुत दिन तक भागलपुर में ही रही। पती ने अपनी विरासत में बहुत ज्यादा धन (10 हजार) रुकैया के नाम छोडा था। जिसका उन्होंने लडकियों के स्कूल खोलने के लिए इस्तेमाल किया।
पती वियोग के पाँच महिने बाद ही उन्होंने सन 1909 में भागलपुर में लड़कियों के इस स्कूल की शुरुआत की। जिसका नाम ‘सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल’ था। इस स्कूल में शुरू में सिर्फ 5 स्टूडेंट्स थे। पर बाद में धीरे धीरे इस स्कूल की खबर लोगो तक पहुंची और बाद में इस स्कूल में बच्चो कि चहल-पहल बढ गई।
स्कूल की प्रसिद्धी देख पती के परिवार के कुछ लोगों ने प्रॉपर्टी को लेकर विवाद पैदा किया। जिसके बाद रुकैया कलकत्ता चली गई और वहां उन्होंने 16 मार्च 1911 को सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल (Sakhawat Memorial Girls’ School) की पुर्नस्थापना कर दी।
जिसके बाद भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल कि पत्नी लेडी चेम्सफोर्ड (Lady Chelmsford) के निगरानी में यह स्कूल विकास करता रहा।
गवर्नर कि पत्नी के निगरानी कि वजह से कई संभ्रात परिवार के लोग इस स्कूल से जुड गए। उन्होंने अपने बच्चों को इस स्कूल में शिक्षा के लिए दाखिल करा दिया। देखते-देखते इस स्कूल कि ख्याती बंगाल प्रांत में होने लगी। 1930 में इसे दसवीं रँक मिली। बंगाली भाषा के साथ अंग्रेजी के कई कोर्स नये से शुरु किए गए।
आज सौ साल बाद भी इस स्कूल ने अपनी गुणवत्ता को बरकार रखा हैं। ये स्कूल परिसर में काफी प्रतिष्ठित स्कूल माना जाता है। इसमे सभी धर्म और जाति-समुदायों के बच्चें शिक्षा ग्रहण करते हैं। आज यह स्कूल पश्चिम बंगाल सरकार मदद से चलाया जाता है।
नारीवादी आंदोलक
रुकैया हुसैन ने 1916 में मुस्लिम महिलाओं के लिए सुधारवादी कार्यक्रम चलाएं। जिसके लिए उन्होंने ‘अंजुमन ए खवातीन ए इस्लाम बंगाल’ (Anjuman-e-Khawatin-e-Islam, Bangla) की स्थापना की। इस संघठन के महिलाओं की शिक्षा और उनका सक्षमीकरण प्रमुख कार्यक्रम रहे।
1926 में रुकैया हुसैन कलकत्ता में आयोजित बंगाल महिला शिक्षा सम्मेलन की अध्यक्षता भी की। जिसके बाद वे अलीगढ़ में भारतीय महिला सम्मेलन में भी आमंत्रित की गई।
वहाँ अध्यक्ष के रुप मे उन्होंने महिलाओं की उन्नति से संबंधित क्रांतिकारी भाषण दिया। जिसमें उन्होंने महिलाओं को रुढीवादीता के चंगुल से निकलने के लिए प्रेरीत किया। साथ ही शिक्षा के रास्ते मुख्य धारा में आने की बात कहीं। यह भाषण पुस्तिका के रुप में प्रकाशित हुआ हैं, पर हमे उपलब्ध नही हो सका।
आगे चलकर अलीगढ के कई महिलाओं ने स्वाधिनता संग्राम में भाग लिया। बेगम निशातुनिस्सा (हसरत मोहानी कि पत्नी) ने कई महिलाओ के संघटित किया।
अलीगढ में महात्मा गांधी, मौलाना शौकत अली और हकीम अजमल खान तथा जाकिर हुसैन के प्रयत्नों से ब्रिटिश सत्ता विरोधी ‘सविनय अवज्ञा’ मुहीम चली। उसमें कई महिलाओं ने सहभाग लिया था।
बेगम रुकैया एक उच्चकोटी की नारीवादी और साहित्यिक मानी जाती हैं। उनकी सारी रचनाए क्षेत्रीय भाषा बंगाली में लिखी गई हैं। उन्हें मुसलमानों में बागी महिला भी कहा जाता था।
साहित्य तथा स्त्री सुधारवादी क्षेत्र के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता, नारीवादी आंदोलक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई थी। बाद में वे एक शिक्षाविद् के रूप में प्रसिद्ध हुई।
बेगम रुकैया युनिव्हर्सिटी
9 दिसंबर 1932 में 52 साल के उम्र मे बैगम रुकैया सखावत हुसैन का निधन हुआ। दिल की बीमारी ने उन्हे असमय काल के अंधेरे में धकेल दिया। उनकी मृत्यु पर कई पुरुष और महिलाओं तथा हिन्दू और मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने शोक व्यक्त किया, जिसमें शिक्षकों के साथ-साथ उदारवादी नेता भी शामिल थें।
निधन से पहले वे ‘नारी अधिकार’ (The Rights of Women) विषय पर शोधनिबंध लिखने काम कर रही थीं। जो बाद में 1932 में अधुरे रुप में ‘Third World and Third World Women’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ।
पडोसी राष्ट्र बांगलादेश ने उनके नाम से सन 2001 में ‘बेगम रुकैया युनिव्हर्सिटी’ (Begum Rokeya University) स्थापित की हैं। यह विश्वविद्यालय उनके पैत्रूक गांव रंगपूर में हैं। जो विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांगलादेश में गया हैं।
बेगम रुकैया आख़िरी सांस तक मुसलमान लडकियो तथा स्त्रियो के शिक्षा के अधिकार के लिए लडती रही।
जहाँ आये दिन फातिमा शेख को लेकर मॅसेज व्हायरल होते हैं, वहाँ बेगम रुकैया हुसैन की यादे हमारे बीच जगह भी नही बना पाती। फातिमा शेख के बारे में कोई जानकारी नही हैं।
पर उन्हे मुसलमानों ने कंधे पर उठा रखा हैं। दुसरी ओर बेगम रुकैया सखावत हुसेन की यादे आज भी योग्य पहचान के लिए तरस रही हैं। मुसलमान लडकियों के लिए प्रथम शिक्षा के दरवाजे खोलने वाली बेगम रुकैया का भावभिनी श्रद्धाजंली..
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल :kalimazim2@gmail.com
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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com