सामाजिक-सांस्कृतिक जड़े हिलाने वाले ‘दलित पैंथर’ के पचास साल

सुबोध मोरे का नजरिया:

त्ताधारियों द्वारा जाति वर्चस्व की मानसिकता को समर्थन दिया जाता है, मजदूर वर्ग में बेरोजगार युवाओं को उकसाया जाता है और दलितों पर हमले किए जाते हैं, यह हालात 50 साल पहले भी मौजूद थे। जब दलित पैंथर बना, तब से ही संगठन ने साहित्य और कविता के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति और लिखित भूमिका के साथ संघर्ष का मुद्दा उठाया। यह संघठन अब नही हैं। इसका मतलब क्या नही हैं, यह अब पता लगाने की कोशिश की जाएगी।

बोल, दलित, हल्ला बोल,

बोल श्रमिक, हल्ला बोल!

जातिवाद पर हल्ला बोल,

ब्राह्मणशाही पर हल्ला बोल,

पूंजीवाद पर हल्ला बोल!

इस आक्रामक घोषणा को अपनी बुलंद आवाज़ देते हुए, सत्तर के दशक के दलित युवा महाराष्ट्र और देश भर में सड़कों पर उतरे थे। जिनका मकसद जातिवादियों द्वारा दलितों के साथ किए जा रहे अन्याय और अत्याचारों के विरोध करना था। जिसके लिए उन्होंने ‘दलित पैंथर’ जैंसे आक्रमक संगठन का झंडा उठाया था।

एक तरफ यह युवा जो सड़कों पर उतर आये थे, तो दूसरी ओर अपनी कविताओं, कहानियों, लेखों और भाषणों के जरिए जोशिले शब्दों में अपना दर्द बयां कर रहे थे। साथ ही स्थापित जातियों, तथाकथित सांस्कृतिक ठेकेदारों और धार्मिक नेताओं के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे।

उन्होंने उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल को हिला कर रख दिया था। उन दिनों, महाराष्ट्र में जहां कहीं भी दलितों पर जुल्म होते, यह युवा वहां पहुंच कर अपराधियों को सबक सिखाने और पीड़ितों को लड़ने के लिए सशक्त बनाने के लिए हौसला देकर वापस लौट जाते थे। इस से शोषित दलित युवाओं को लड़ने के लिए प्रेरणा मिली और एक नई संगठनात्मक ताकत उभरी। कम समय में प्रभावशाली रहे ऐसे ‘दलित पैंथर’ संगठन का यह ‘गोल्डन ज्यूबली’ साल है।

भारत में सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में दलित पैंथर्स की स्थापना और उनके आंदोलन का बहुत महत्व है। डॉ. भीमराव आंबेडकर के बाद के दौर में यह एक अहम आंदोलन था।

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क्या थी पृष्ठभूमि?

आजादी के बाद के दौर में और डॉ. अम्बेडकर द्वारा 1956 में बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद, तत्कालीन दलित समुदाय ने हिंदू धर्म के मानदंडों, परंपराओं और अंधविश्वासों को झटक दिया। वे नई अस्मिता के साथ स्वाभिमान से जीने की कोशिश करने लगे थे।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन और स्मृति दिवस बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा। उन कार्यक्रमों से अम्बेडकर के सामाजिक-आर्थिक समानता के विचार, भारतीय संविधान के मूल्यों और मौलिक अधिकारों की भाषा को कार्यकर्ताओं ने इस्तेमाल करना शुरू किया।

आरक्षण कम था, मगर सही नौकरी मिलने के वजह से दलित व्यक्ति गर्दन तानकर और स्वाभिमान के साथ समाज में रहने लगा था। यह स्वाभिमानी जिंदगी जातिवादी मानसिकता वाले समाज के कुछ कट्टर, धर्मांध लोगों को परेशान करने लगी।

दलितों को अपने ‘औकात’ में रहने की कामना की गई थी, जिस के पूरे न होने पर उन्हें सताया जाने लगा। दलितों द्वारा पुरानी अपमानजनक बातों को अस्वीकार करने से सामाजिक तनाव बढ़ता जा रहा था, इन जातिवादियों द्वारा दलितों पर हमले बढ़ते गए और महाराष्ट्र के परभणी के ‘ब्राह्मणगांव’ नामक गांव में एक दलित महिला का नग्न जुलूस निकाला गया।

पुणे के नजदीक इंदापुर बावड़ा में दलितों का सामूहिक बहिष्कार किया गया। अकोला के धाकली गांव में जातिवादी मानसिकता वालों ने गवई बंधुओं की आँखे निकाल दी। इस तरह दलितों पर अमानवीय अत्याचार की घटनाएं बढ़ती ही जा रही थीं।

दूसरी ओर, चूंकि सत्ताधारी दल भी ऊंची जाति का था, इसलिए उन्होंने जातिवादी झुंड का समर्थन करना शुरू कर दिया। शासक वर्ग की पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के कारण, पहले जिन्हें ‘उच्च वर्ग’ माना जाता था, उस जातियों में विषमता, खास तौर पर पढ़े-लिखे शिक्षितों में बेरोजगारी बढ़ने लगी थी।

दलितों को आरक्षण की वजह से सरकारी नौकरी मिलने लगी थी, वैसे उनकी संख्या काफी कम थी। मगर ऊंची जातियों द्वारा उन्हें ‘सरकार के दामाद’ बता कर बुरा-भला कहा जा रहा था और साथ ही अपमानित भी किया जा रहा था। तत्कालीन रिपब्लिकन पार्टी का नेतृत्व इस जुल्म, सितम और अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ चुप्पी साथे बैठा था। वह इस अन्याय के खिलाफ स्वाभिमानी संघर्ष की भूमिका नहीं ले रहा था। असल में यह लोग तत्कालीन शासकों के बगल में बैठकर अपने लिए सुविधाए इकट्ठा कर रहे थे। साथ ही अपने लिए सहुलते और ओहदे हासील करने में मश्गुल थे।

अम्बेडकर के बाद के दौर में युवाओं की नई शिक्षित पीढ़ी में इस तरह के नेतृत्व के खिलाफ गुस्सा, आक्रोश, असंतोष भरा था। उसी नाराज पीढ़ी के संवेदनशील कवि और लेखकों ने ‘दलित पैंथर’ नाम से एक आक्रमक संगठन बनाने की पहल की। इन युवाओं ने अपनी पहली जनसभा 9 जुलाई 1972 को मुंबई के कमाठीपुरा में ली।

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राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव

इस जनसभा को संस्थापक नामदेव ढसाल, ज.वि. पवार, राजा ढाले ने प्रमुख मार्गदर्शन प्रदान किया। उस सभा के बाद कुछ दिनों में भारतीय स्वतंत्रता का रजत जयंती समारोह आनेवाला था। इस  दिन मराठी साप्ताहिक ‘साधना’ ने 15 अगस्त 1972 को अपना विशेष अंक निकाला।

इसमें राजा ढाले ने ‘काळा स्वातंत्र्यदिन’ शीर्षक से एक विवादित लेख लिखा। लेख में राष्ट्रीय ध्वज के बारे में की गई टिप्पणी को लेकर बाद में काफी विवाद हुआ। यहां तक साधना में इस्तिफे भी हुए। इस लेख की वजह से राजा ढाले और दलित पैंथर को कम समय में बहुत शोहरत मिली।

इस आंदोलन से नामदेव ढसाल, ज. वि. पवार, राजा ढाले, अविनाश महातेकर, भाई संगारे, प्रल्हाद चेंदावणकर, विट्ठल साठे, लतीफ खाटीक जैसे नये युवा नेतृत्व, नये लेखक, साहित्यकारों का उदय हुआ। जाति-वर्ग संघर्ष का विचार एक नये रूप में सामने आया। अम्बेडकरवादी विचारों का यह एक सांस्कृतिक मंथन था। इसका असर पूरे देश में महसूस किया गया।

गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और दिल्ली, पंजाब और अन्य हिंदी भाषी राज्यों में कई इकाईयों का गठन किया गया, नये लेखक, साहित्यिक भी उभरे। दलित साहित्य का अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ।

सन 1974 में मुंबई के वरली में शिवसेना के साथ हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद दलित पैंथर एक आक्रमक संगठन के रूप में उभरा। 1974 में हुए लोकसभा के उपचुनाव इसके पिछे की वजह थी।

इन चुनावों से पहले, दलित पैंथर्स ने वामपंथी युवा-छात्र और सामाजिक संगठनों के साथ, नस्लीय अन्याय से लेकर बेरोजगारी आदी सवालों पर सत्तारूढ़ दल के खिलाफ ‘काला स्वतंत्रता दिन’ मनाने तक के कई मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन किया था।

जिसमें पैंथर्स ने सार्वजनिक रूप से गीता को जला दिया, शंकराचार्य पर जूते फेंके। उनके प्रखर भाषणों ने सामाजिक माहौल को झकझोर कर रख दिया। ऐसे में दलित पैंथर उपचुनाव में अपनी भूमिका ऐलान करने की घोषणा की। जिसके लिए 5 जनवरी 1974 को वरली स्थित डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर मैदान में एक जनसभा हुई।

इस सभा में पैंथर का नेतृत्व ‘चुनावों के बहिष्कार’ की घोषणा करने जा रहा था, जिसका सबसे बड़ा झटका सत्तारूढ़ गठबंधन के उम्मीदवार पर पड़ेगा और वह हार जाएगा, इसकी शंका उत्पन्न की गई। क्योंकि उसे ‘दलित वोट’ नहीं मिलने की सूरत में अपनी हार दिख रही थी। उसी बैठक में दलित पैंथर्स ने बढ़ते जातिगत अन्याय और सरकार के कुछ न करने के नीतियों का विरोध किया।

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पैंथरों पर जुल्म

इसी गुस्से में जब उस सभा में नामदेव ढसाल का जोशीला भाषण चल रहा था, तब पास के बीडीडी चाल की छत से शिवसैनिकों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया। इसी स्थिति में ढसाल ने अपना भाषण जारी रखा, लेकिन पुलिस सिर्फ देखते रहने की अपनी भूमिका निभाती रही।

बाद में राजा ढाले ने पथराव कर रहे गुंडों को खुली चुनौती दी। अपने भाषण की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा, “हिम्मत हो तो सामने आ कर हमला करो!” ढाले के भाषण ने सभा में माहौल को गर्म कर दिया। शिवसैनिकों ने पथराव कर उस सभा को तितर-बितर किया। दूसरी ओर पुलिस ने रैली में शामील हुए लोगों की पिटाई करनी शुरू कर दी।

इतना ही नहीं राजा ढाले को भी मंच से घसीटा गया और पीटते हुए उन्हें गिरफ्तार किया गया। उसके बाद वरली, नायगांव, दादर, परेल, लालबाग, डिलाइल रोड, भायखला और मुंबई के दलित बस्तियों में भारी प्रतिक्रिया देखने को मिली। जिससे कुछ जगहों पर दंगे जैसै हालात पैदा हुये।

वरली में ज्यादा तादाद में दलित रहते थे, वहां बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे। कारवाई के करने के बजाए पुलिस शिवसैनिकों का समर्थन करती दिख रही थी। पुलिस फायरिंग में चमार समुदाय का युवक रमेश देवरुखकर नामक पैंथर शहीद हो गया।

उस के बाद दलित पैंथर्स और वामपंथी, प्रगतिशील संगठनों ने एक साथ आकर 10 जनवरी 1974 को दादर के नायगांव से एक विशाल मोर्चा निकाला। जब जुलूस परल रोड से गुजर रहा था, शिवसैनिकों ने एक इमारत से पत्थर फेंके। जिसमें एक बड़ा सा पत्थर फेंका गया, जो युवा पैंथर भागवत जाधव के सिर पर आकर गिर गया और उसकी मौके पर ही मौत हो गई।

यह सप्ताह की पैंथर की दूसरी शहादत थी। इसके बाद पैंथर्स भड़क गए और आंदोलन तेज हो गया। पैंथर और शिवसैनिकों के बीच तुफान मारपीट हुई। जिसके बाद नामदेव ढसाल, ज. वि. पवार, भाई संगारे, प्रल्हाद चेंदवणकर, लतीफ खटीक आदी को पुलिस ने गिरफ्तार किया। उनपर झुठे मुकदमें दायर किये गये। मगर पैंथर भी उनसे बढ़कर निकले।

पैंथर के दो धड़े

उस उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की हार हुई और कम्युनिस्ट पार्टी के कॉ. रोजा देशपांडे जीत गई। दलित पैंथर ने तत्कालीन शासकों के लिए एक बड़ी राजनीतिक चुनौती पेश की, इसलिए पैंथर की आँधी दूर-दूर तक फैल गई।

दलित पैंथर आंदोलन के दबाव में सरकार को मजबूर होकर निगम कार्यालय में सार्वजनिक उपक्रमों में दलित-आदिवासी आरक्षित सीटों का बैकलॉग भरना पड़ा और रोस्टर लागू करना पड़ा।

महाराष्ट्र विधीमंडल में पारित संकल्प के अनुसार ‘मराठवाड़ा विश्वविद्यालय’ को डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर नाम देने की घोषणा की गई। जिसके बाद विश्वविद्यालय के ‘नामांतर आंदोलन’ में दलित पैंथर्स का भी महत्वपूर्ण योगदान था। इस संघर्ष में पोचिराम कांबले, जनार्दन मवाडे, चंदर कांबले, गौतम वाघमारे और सातारा के विलास ढाणे जैसे समतावादी मराठा युवा भी अपना बलिदान देकर शहीद हो गए हैं।

इस आंदोलन से ही प्रेरित होकर घुमंतू-विमुक्त, आदिवासी, नारीवादी, मुस्लिम मराठी साहित्य, ग्रामीण बहुजनों के और विद्रोही साहित्य सांस्कृतिक आंदोलनों का उदय हुआ।

मूल दलित पैंथर का सफर 1972 से 1977 तक का रहा, फिर ‘इंडियन दलित पैंथर’ नाम से 1977 से 1990 तक का सफर जिसमें अरुण कांबले, रामदास आठवले, गंगाधर गाडे, एस. एम. प्रधान, प्रीतम कुमार शेगावकर, दयानंद म्हस्के, अनिल गोंडाणें आदि से साथ चलता रहा। बाद में इस संगठन को बर्खास्त कर दिया गया।

हालांकि, पैंथर के विद्रोह का 2022 साल स्वर्ण जयंती साल है। जनवरी 1974 में दलित पैंथर के पहले दो शहीद क्रमशः रमेश देवरुखकर और भागवत जाधव थे। 10 जनवरी, 2022 के उनके ‘संयुक्त शहीद दिवस’ से महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में पैंथर स्वर्ण जयंती समारोह की शुरुआत की जाएगी। इसे देखते हुए ‘दलित पैंथर सुवर्ण महोत्सव कमेटी’ की स्थापना के लिए बैठकें की जा रही हैं।

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क्या है नियोजन?

महाराष्ट्र के 20 शहरों में वरिष्ठ पैंथर्स, अम्बेडकरवादी, समतावादी, प्रगतिशील आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं, नेताओं और लेखकों की बैठकें आयोजित की गई हैं और स्थानीय स्तर पर समन्वय समितियों का गठन किया गया है।

शेष महाराष्ट्र में भी जल्द ही आनेवाले समय में आयोजन समितियां गठित की जाएंगी। राज्यव्यापी दलित पैंथर स्वर्ण जयंती समिति 10 जनवरी 2022 को प्रदेश में खुलेआम ‘संयुक्त शहीद दिवस’ मना रही है।

इस मौके पर महाराष्ट्र में समिति साल भर विभिन्न वैचारिक और शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। जिसके लिए विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और सामाजिक संगठनों के सहयोग लिया जाएगा। इन सब का मकसद कार्यकर्ताओं को जाति-वर्ग के मुद्दों और सांस्कृतिक जागरूकता के कार्यक्रम लेना हैं।

इस माध्यम से कार्यकर्ताओं में सामाजिक जागरूकता बढ़ाने में मदद मिलेगी। साथ ही फुले-आंबेडकरवाद को नई गति देना, प्रगतिशील सोच, संविधान के मूल्यों का संरक्षण और वर्तमान फासिवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करना, यह भी एक मकसद हैं।

दमन की स्थिति आज भी अलग नहीं है। हर तरफ झूठे राष्ट्रवाद और झूठी देशभक्ति का बोलबाला हैं। महाराष्ट्र और देश में दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। ऐसे में आज के संवेदनशील युवा राजा ढाले जैसे शब्दों का इस्तेमाल तो नहीं कर सकते, लेकिन नामदेव ढसाल के शब्दों में, ‘आओ, इन शहरों को आग लगाओ..’ तो बोल सकते हैं। या फिर अर्जून डांगले की अलफ़ाज में “छावनियां हिल रही हैं, भूखे पेट हों तूम, गाते रहो..’ यह तो कह सकते है ना, यही एक सवाल है। इसलिए आज दलित पैंथर की याद करना जरुरी हो जाता हैं!

घोषणापत्र

दलित पैंथर की भूमिका का ‘घोषणापत्र’ महत्वपूर्ण था, जिसमें उसने सांमती और पूंजीवादी शक्तियों के खिलाफ तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ स्पष्ट भूमिका निभाई थी।

उन्होंने अपने घोषणापत्र में कहा था, “हमें ब्राह्मण गली में जगह नहीं चाहिए। हम चाहते हैं कि पूरे देश में शासन हो। हमारा लक्ष्य सिर्फ व्यक्ति नहीं बल्कि व्यवस्था है.. हृदय परिवर्तनों से.. हमारे खिलाफ अन्याय और हो रहा शोषण थमेंगा नही। हम क्रांतिकारी समूह को जगाएंगे, उन्हें संघठित करेगे.”

संक्षेप में, पैंथर्स एक पूर्ण क्रांतिकारी व्यवस्था परिवर्तन चाहते थे। उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन को दुनिया और देश के सभी शोषित और श्रमिक जनता के मुद्दों पर लड़ने वाले वामपंथी, प्रगतिशील आंदोलनों के साथ भाईचारे का रिश्ता भी तैयार किया था।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे नस्लवाद की निंदा की गई थी। पैंथर्स ने फुले-आंबेडकरवादी विचारधारा के अलावा अमेरिका में चल रहे ‘ब्लैक पैंथर’ जैसे आक्रमक समूह की वामपंथी विचारधारा से भी वैचारिक प्रेरणा ली थी। हालाँकि, दलित पैंथर ने जाति-आधारित शोषण का मुद्दा उठाया, जो उसकी भारतीय विशेषता थी।

मूल मराठी लेख का कलीम अजीम ने नजरिया के लिए अनुवाद किया हैं।

वाचनीय

Name

अनुवाद,2,इतिहास,49,इस्लाम,37,किताब,24,जगभर,129,पत्रव्यवहार,4,राजनीति,292,व्यक्ती,17,संकलन,61,समाज,246,साहित्य,77,सिनेमा,22,हिंदी,53,
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नजरिया: सामाजिक-सांस्कृतिक जड़े हिलाने वाले ‘दलित पैंथर’ के पचास साल
सामाजिक-सांस्कृतिक जड़े हिलाने वाले ‘दलित पैंथर’ के पचास साल
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