इसवी 1847 में एक घटना घटी, जिससे जोतीराव फुले के ‘महात्मा’ बनने की नियती लिखी जा चुकी थी। हुआ कुछ ऐसा कि नौजवान जोतीराव को अपने एक ब्राह्मण मित्र के शादी का आमंत्रण मिला।
वह उनका प्रिय मित्र था इसलिए वह अच्छे से तयार होकर विवाह में गए। दूल्हा सज धज कर घोड़े पर बैठकर बारातियों के साथ दुल्हन के घर जा रहा था। जोतीराव भी अपने अंदाज में बारातियों के साथ चले जा रहे थें।
कुछ देर बाद शहर के ब्राह्मणों ने जोतीराव को अपने साथ चलते देखा और वह आग बबूला हो गए। उनमें से एक ने क्रोध भरे स्वर में जोतीराव से पूछा, “क्यों रे शुद्र के लड़के! तू हमारे साथ कैसे चल रहा है। तेरी हिम्मत कैसे हुई?” इस पर जोतीराव ने कहा, “इसमें हिम्मत की बात कहां आती है। दूल्हा सखाराम मेरा दोस्त है और उसने मुझे शादी पर बुलाया है।”
जोतीराव का उत्तर सुनकर एक ब्राह्मण ने कहा, “सखाराम तुझे लाख बुलाए लेकिन, तुझे तो अपनी हैसियत को भूलना नहीं चाहिए था! जाती-पाती के सारे बंधन तोड़ कर और सामाजिक प्रथा को ताक पर रखकर तू हमारी बराबरी करना चाहता है, यह हमारा और हमारे धर्म का घोर अपमान है। चल हट यहां से।” और फिर वह अन्य ब्राह्मण की ओर देखते हुए बोला, “अंग्रेजों के शासन के कारण सचमुच यह लोग बेशर्म होते जा रहे हैं।”
वैसे सामाजिक भेदभाव कि यह परिस्थिती आज 250 साल बाद भी नही बदली हैं। पिछडे समुदाय के शादी, बारात और दूल्हे के घोडी चढने को लेकर आये दिन विवाद होते रहते हैं। परंतु जोतीराव के साथ हुई य़ह घटना महज सामान्य नही थी, बल्कि उनके जीवन को और हिन्दुस्तान के पिछडोंं और शुद्रों के जिन्दगी के अंधकार को दूर करने का सबब बनी।
वर्णभेद का शिकार
शादीवाली इस घटना ने जोतीराव फुले के अंदर के व्यक्तित्व को हिला कर रख दिया था। उस ब्राह्मण के शब्द उनके कानों में अमानवीयता और परायेपन का भाव पैदा कर बार-बार चिख उठती थी।
जोतीराव आग बबुला हो गए और संतप्त होकर अपने घर चले गए। उनके जीवनीकार धनंजय कीर लिखते हैं, “उनके मन में विचारों का तूफान मचा हुआ था। वह सोचने लगे कि मैं सुशिक्षित हूँ। भला बुरा समझ सकता हूँ और यह ब्राह्मण एक ही धर्म के हैं। फिर मैं कनिष्ठ क्यों हूँ? ये अपने आप को शास्त्री पंडित कहलाते हैं, ईश्वर का अवतार समझते हैं, पर इनमें तो ईश्वर की बात तक दूर रही, पर शैतान के भी लक्षण नहीं है।”
इस तरह सामाजिक भेदभाव वाले अनेक किस्से महात्मा फुले के चरित्रों में पढने को मिलते हैं। मुरलीधर जगताप अपनी किताब ‘युगपुरुष : महात्मा फुले’ में लिखते हैं, “अपने ही विचारों में मग्न जोतीराव तूफानी गती से घर में घुसे। बाहर खुली जगह में पिता गोविंद राव एक खाट पर बैठे हुए थे।
जोतीराव को तेजी से आता देख वे समझ गए कि अवश्य कोई बात हुई है। चिंतामग्न जोतीराव को उन्होंने बुलाया और पूछताछ की तो उन्होंने सारा हाल सुनाया। तब वे बोले बेटा, तुझे ब्राह्मण के विवाह में जाना ही नहीं चाहिए था। हम ठहरे नीची जात वाले लोग, हम उनकी बराबरी कैसे कर सकते हैं?
इसे सुन जोतीराव गुस्से में उबल पड़े, हम नीची जातवाले? किसने बताया हमें नीच? यह सारा ब्राह्मण का ढकोसला है। बारात की घोड़ी को छूने से उन्हें कोई छूत नहीं लगती और हमारे छुने पर छूत लग जाती हैं? क्या हम जानवरों से भी गये-गुजरे हैं। इस पर गोविंद राव ने कहा, बेटा यही हमारा भाग्य लिखा है।”
अमानवीयता कैसे होती बरदाश्त
इस घटना के बाद जोतीराव चुप से हो गए। उनके मन में एक टीस उठी जो उन्हें बार-बार सालती रही। वह कई दिनों तक बैचन रहे। उन्हें रात रात भर नींद नहीं आती थी। पर उनका विवेक जागृत था। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, बुकर टी वाशिंगटन और मार्टिन लूथर की जीवनीयों से प्रेरणा प्राप्त की थी।
वे सोंचते रहे कि ब्राह्मण धर्म के नाम पर सामान्य लोगों को प्रताडित करता हो, उन्हे परेशान करता हैं, मैं इस अमानवीय बर्ताव को भला कैसे बरदाश्त कर सकता हूँ। यह ब्राह्मण आम लोगों को सताते हैं, वह भला भगवान कैसे हो सकते हैं। गं. बा. सरदार लिखते है, “सच मानो तो इस घटना को बाद जोतीराव के विचारों में परिवर्तन आने लगा।”
अपने स्कूली शिक्षा से समय उन्होंने पाया था कि इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म में सामाजिक और धार्मिक समानता है, इसके विपरीत हिंदू धर्म में कई जातियां और कठोर वर्ण भेद है। ईसाई अपना पवित्र धर्म ग्रंथ कहीं भी पढ़ सकते हैं। इस्लाम धर्म में कुरआन को पढने में कोई रोक-टोक नहीं है। फिर ब्राम्हण वेदों तथा मनुस्मृति को छुपाकर क्यों रखते हैं।
अपने इस उधेडबुन ने उन्हें हिन्दू धर्म ग्रंथो के मूल तक पहुँचाया। जिसके बाद भगवान बुद्ध, तीर्थंकर, रामानुज, रामानंद, बसवेश्वर, गुरु नानक, पैगम्बर मुहंमद, कबीर, दादू का साहित्य पढ़ा। उन्होंने संत तुकाराम की गाथा भी पड़ी। ज्ञानेश्वरी जैसे भागवत धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया।
प्रोफेसर विल्सन, सर विलियम जोन्स आदि की हिन्दू धर्म पर लिखी अंग्रेजी कृतियों का अध्ययन किया। जिसके बाद उनमें केवल तर्कशिलता (Reason) ही विकसित नही हुई बल्कि हिन्दू धर्म नाम पर हो रहे ढकोसले पहचान करने में भी सफलता मिली। उन्हें एहसास हुआ कि हिन्दू धर्म के इस पाखंड बाहर निकालना जरूरी है।
प्रारंभिक जीवन
जोतीराव के जीवन का एक और किस्सा काफी मशहूर है। उनके पिता गोविंद राव एक समझदार और सुलझे हुए इन्सान थे। उनके पिताजी शेटीबा पेशवाओ के यहां नोकरी करते थें। उन्होंने अपने बचपन से ही शिक्षा का महत्व समझ लिया था। वे अपनी औलाद को पढ़ाना है।
कहा जाता हैं कि, धर्म प्रचार के लिए ही भारत में ईसाई संस्थाओं ने कई स्कूल खोल रखे थें। पहले पहल भारत के लोगों को शिक्षित कराना और उन्हें अपने धर्म कि ओर खिंचना इस मकसद से मिशनरी स्कूल शुरू हो चुके थें। ऐसे ही एक स्कूल में जोतीराव की शुरुआती पढाई हुई थीं।
गं. बा. सरदार अपनी किताब ‘महात्मा फुले : व्यक्ति और विचार’ में लिखते हैं, “गोविंद राव ने पुणे शहर के एक पाठशाला में जोतीराव का दाखिला करा दिया। तब वह केवल 7 साल के थे। ज्योतिराव पाठशाला में गए उन्होंने अच्छी पढ़ाई में अच्छी प्रगति प्राप्त कर ली।”
एक अधर्मी झुठ
पाठशाला में जोतीराव ने अच्छी तरह पढना लिखना, हिसाब-किताब सिख लिया। जोतीराव के इस प्रगति से जलकर गोविंद राव की फुलों कि दुकान पर काम करने वाले एक ब्राह्मण मुन्शी ने उनके कान भर दिए। पंढरीनाथ सीताराम पाटील अपनी 1938 में प्रकाशित किताब, ‘महात्मा फुले अल्प परिचय’ में लिखते हैं,
“वह ब्राह्मण बोला, आप बेटे को पढ़ा तो रहे हो, लेकिन उसकी शिक्षा का क्या उपयोग? पढ़ने के बाद वह घर का रहेगा ना घाट का! ना बागबानी (पुश्तेनी कारोबार) के काम लायक रहेगा और ना ही बुढ़ापे में इस व्यवसाय का बोझ उठा पाएंगा।
दूसरी बात यह है कि सात समुंदर पार से यह जो अंग्रेज आए हैं, वह क्या सिर्फ राज्य करने के लिए आए हैं। वास्तव में वह शिक्षा देकर तुम शूद्र को ईसाई बनाना चाहते हैं। अगर जोतीराव शिक्षा प्राप्त करके समझदार बन भी जाए और अंत में ईसाई बन जाए तो आपकी सात पुश्ते नरक में चली जाएंगी।”
भोले स्वभाव के गोविंद राव उसकी बातों में आ गए। कथित रुप से अधर्म को देखते हुए उन्होंने जोतीराव को पाठशाला से निकाल दिया। तब तक वे चार साल की पढ़ाई पूरी कर चुके थे। कलम छूटने के बाद उनके हाथ में खेती के औजार आ गये। नन्हे जोतीराव को खेतों में काम करता देख गोविंद राव अंदर ही अंदर खुश हो जाया करते, कि बेटा काम के लायक हो गया है।”
मि. लिजिट और मुन्शी बेग
जोतीराव की पढने की लगन कम न थीं। वह दिनभर बागान में काम करने के बाद रात को रास्ते कि टिमटिमाते दीए की रोशनी में पढ़ा करते। इतिहास के किताबों में लिखा है कि पड़ोस वाले कुछ सज्जनों का ध्यान इस बालक कि ओर गया। उनमें दो विद्वान व्यक्ति थे, पहले गफ्फार बेग मुन्शी और मिस्टर लिजिट।
मुन्शी उर्दू-फारसी के अध्यापक थे तो लीजिट साहब ईसाई पादरी थे। उन्हें जोतीराव जैसे होनहार छात्र की शिक्षा में आई रुकावट उचित नहीं लगी। इसलिए वे दोनों गोविंद राव से मिले और जोतीराव की शिक्षा के प्रति रुचि, लगन, समझदारी और परिश्रम से उन्हे आगाह किया।
जगताप अपनी किताब में लिखते हैं, “मुन्शी जी ने उनसे कहा शिक्षा धर्म के मार्ग में बाधा नहीं है। हमारे मजहब का तो हुक्म है कि हर मुसलमान औरत-मर्द को कुरआन पढ़ने का बराबर का हक है। लिजिट साहब बोले शिक्षा देकर अंग्रेज आपके बच्चों को ईसाई बनाना चाहते हैं, यह धारणा किसी सडियल दिमाग की उपज है। यदि ऐसा होता तो ब्राह्मण अपने बच्चों को सरकारी पाठशाला में बड़ी संख्या में क्यों भेज रहे हैं।”
इन दोनों की बातें सुनकर गोविंद राव के एहसास हुआ कि मैं अपने बच्चे के साथ गलत कर रहा हूं। सन 1841 की बात है, जोतीराव को फिर से स्कॉटिश मिशन के अंग्रेजी पाठशाला में भर्ती कराया गया। तब ज्योतिराव लगभग 14 वर्ष के थे।
तर्कवादी विचारधारा से रुबरू
स्कॉटिश मिशन के विद्यालय में जाने पर ही सही मायनों में जोतीराव का धर्म चिंतन आरंभ हुआ। जोतीराव बचपन से ही गरीब और श्रमिकों की दयनीय स्थिति देखते आ रहे थे। अंग्रेजी पाठशाला में जाने के बाद उनका ऊंची जातियों के छात्रों से परिचय हुआ। इससे उन्हें समाज की भिन्न-भिन्न जातियों और उनके पारस्परिक संबंधों का निरीक्षण करने का अवसर मिला। अमीर-गरीब तथा वर्ण और वर्ग संघर्ष को करीब से समझने का मौका मिला।
स्कूल में उनके आरंभिक मित्रों में कुछ तर्कवादी लड़के शामील थे। जिनसे कभी-कभी धर्म की आलोचना सुनते थें। जिससे उनको हिन्दू धर्म के विद्यमान ऊंच-नीच का भेद, अन्याय और धर्म आचरण में निहित स्वार्थ का ज्ञान होने लगा। आगे चलकर वे सोचने लगे कि अपने धर्म के अंदरुनी स्वरूप की निष्पक्ष रूप से जांच करना आवश्यक है। उन्हे एहसास हो गया था कि ब्राह्मण केवल अपने समुदाय तक ही शिक्षा को रखना चाहते हैं।
जोतीराव के अल्फाज में कहे तो इस्लाम और ईसाई धर्म के अध्ययन ने मुझे में तर्क विकसित किया हैं। वे लिखते है “मैं अपने बचपन में पड़ोसी मुसलमान मित्रों के संपर्क में आया, तब स्वार्थी हिंदू धर्म के बारे में और उसमें मौजूद जातिभेदों कि आदि जैसी कई मिथ्या धारणाओं के बारे में मन ही मन में विचार आने लगे। इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ।”
उन्होंने कई यूरोपीय तत्वज्ञानी और दार्शनिकों को पढा था। इसी तरह ईसाई धर्म प्रचार का साहित्य भी उन्होंने पढ़ा था। यूरोपीय दार्शनिक पढने से उन्हे धर्म के नाम पर शोषण और उसके निहित स्वार्थी उद्देशों का पता चला। इस पाखंड को उजागर करने मिशन उन्होंने अपने हाथ में लिया।
सदाशिव बल्लाल गोवंडे, मोरोपंत विट्ठल वालवेकर और सखाराम यशवंत परांजपे यह तीन ब्राह्मण सहपाठी उनके अंतरंग मित्र थे। इन चारों मित्रों में समाज सेवा की लगन थी। सभी मिलकर समाज की प्रगति के लिए कुछ करना चाहते थे। पश्चिमी शिक्षा और इसाई पादरियों के सेवाभाव के आदर्श उनके सामने थे।
जगताप लिखते हैं, “इन चारों युवकों पर के मन पर गहरा असर हुआ। छात्र अवस्था के में ही इनके हिन्दू धर्म के प्रति रही श्रद्धा कम होती गई और वह इसाई धर्म के और आकर्षित हुए। लेकिन इन चारों ने सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और अन्त में यह निष्कर्ष निकाला कि हर धर्म में कुछ ऐसे तत्व हैं जिन्हें सिर्फ श्रद्धा ही से ही मानना होता है। इसलिए सभी धर्मों में जो समान तत्व है उसका पालन किया जाए।”
और बने ‘महात्मा’
स्कॉटिश मिशन पाठशाला में सातवी कक्षा में ही जोतीराव ने पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया था। इस शिक्षा से उन्हें मनुष्य के कर्तव्य तथा मानव अधिकारों का ज्ञान हुआ। कहते हैं, उस दौर में अगर कोई अच्छा अंग्रजी पढ-लिख पाता तो उसको प्रशासन में बडे ओहदे मिलते।
अगर वह चाहते तो अच्छी सी नौकरी कर अपना गुजर-बसर कर सकते थे। पर उन्हें शिक्षा पाने के लिए जो संघर्ष करना पड़ा। समाज के जिन रूढ़िवादी लोगों ने उनकों नफरत के निगाह से देखा, उनके समाज के प्रति घृणा और अस्पृश्यता की जो भावना उन्होंने रुढीवादी लोगों के मन में देखी, इससे उन्हें लगा कि मुझे दबे, कुचले लोगों के मानवीय अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ना होगा।
उम्र के 20 साल से उन्होंने समाज कि सेवा शुरु की थी। दास प्रथा, सतिप्रथा, विधवा विवाह, सत्यशोधकी विचारधारा का प्रसार और प्रचार, दलितों के लिए पीने के पानी के संघर्ष, किसान और मजदूरो के लिए पर्याप्त सुविधाए, विधवाओ के बच्चों का लालन-पालन, लडकियों के लिए शिक्षा संस्थाए, घरेलू कामकाजी महिलाओं के लिए रात का स्कूल, दलित तथा पिछडे जातीयों के लिए स्कूली शिक्षा जैसे कई महत्वपूर्ण कामों को उन्होंने अपने जीवन में किया।
उनके इस काम के लिए सन 1888 में 19 मई को मुंबई के एक कार्यक्रम में उन्हे ‘महात्मा’ के उपाधि से नवाजा गया। जोतीराव तब 60 साल के थे। 40 साल के सामाजिक कार्य के लिए उन्हे यह सम्मान दिया गया। इस कार्यक्रम में न्यायमूर्ती रानडे, डॉ. भाण्डारकर, तुकाराम तात्या आदी गणमान्य लोग उपस्थित थें। इससे पहले पुणे में सितम्बर 1887 को एक कार्यक्रम मे उन्हें महात्मा उपाधि से विभूषित किया गया था।
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल :kalimazim2@gmail.com
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