उर्दू के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ प्रस्ताव

1987 का वाक़या है जब प्रलेस के अध्यक्षमंडल के अध्यक्ष डा. नामवर सिंह ने हिंदी पत्रिका, हंस में एक लेख, ‘बासी भात में खुदा का साझालिखकर उर्दू पर हमला बोला। जनवादी लेखक संघ ने की तुरंत उसका जवाब दे कर अपना रुख पेश किया कि उर्दू की और विकास का सवाल दर असल जम्हूरियत की रक्षा और विकास का सवाल है।

उसी बरस भोपाल में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में एक प्रस्ताव के ज़रिये ‘जलेस’ के रुख को दोहराया गया। अपने इस रुख को अवाम के बीच ले जाने के लिए ‘जलेस’ केंद्र ने 1988 में लखनऊ, मुंबई, पटना, कोलकाता और दिल्ली में उर्दू सम्मेलन आयोजित किये।

‘जलेस’ के दबाव का असर हुआ, 1989 में कुछ राज्यों में उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया गया। मगर उर्दू के साथ भेदभाव जारी रहा। जब 2004 में केंद्र में यूपीए-1 सरकार सत्ता में आयी तो जून 2004 में लेखकों की व्यापक शिरकत के साथ एक मांगपत्र तैयार करने के सवाल पर कन्वेंशन का आयोजन किया गया जिसमें उर्दू के साथ हो रहे सौतेले रवैये को ख़त्म करने और अनेक फ़ैसलों और सिफ़ारिशों पर संजीदगी के साथ अमल करने की मांग रखी गयी। मगर वह रवैया अभी तक जारी है। पिछले ही दिनों, फ़रवरी 2025 में योगी आदित्यनाथ ने यूपी की विधानसभा में उर्दू के ख़िलाफ़ - जो ज़हर उगला वह आर एस एस की फ़िरक़ावाराना ज़हनियत को ही - उजागर करता है।

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पृष्ठभूमि

बहुत पहले यानी 1952 में संविधान की धारा 347 के तहत उर्दू को हासिल दर्जा दिलाने के मक़सद से एक आंदोलन शुरू किया गया था। इस धारा के तहत कोई ज़बान जिसके बोलने वाले किसी राज्य में थोड़े - नहीं, भारी तादाद में रहते हों राज्य की दूसरी सरकारी ज़बान बनने की हक्क़दार है।

डा. ज़ाकिर हुसैन 1950 से 1956 तक अंजुमन-ए-तरक्क़ी-ए- उर्दू (हिंद) के सदर रहे थे, उन्होंने एक मेमो बीस लाख से ज्यादा दस्तखतों के साथ उस वक्त के राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को 15 फ़रवरी 1954 को सौंपा जिसमें मांग की गयी कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में उर्दू को सुरक्षित जगह दी जाये और संविधान के प्रावधानों के मुताबिक़ सरकारी जबान का दर्जा दिया जाये। इसमें यह भी कहा गया कि प्राथमिक और जूनियर स्तर तक पढ़ाई और इम्तिहान का माध्यम बच्चे की मातृभाषा होनी चाहिए।

अंत में उसमें यह भी मांग रखी गयी कि जहां किसी राज्य की सरकारी ज़बान से अलग बच्चों की मातृभाषा दूसरी है तो उन बच्चों के लिए उनकी ज़बान में पढ़ाई और इम्तिहान का बंदोबस्त करना चाहिए। इस तरह की व्यवस्था न हो कि यह इंतज़ाम तब तक नहीं होगा जब तक कम से कम 40 बच्चे उस स्कूल में और कक्षा में दस न हों। हुआ यही था कि जहां उर्दू बोलने वाले बच्चे थे वहां ये शर्तें रखी गयी थीं।

1958 में भारत सरकार ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसमें यह माना गया कि सरकार उर्दू के बारे में सही पालिसी लागू करने में नाकाम रही। उसमें यह संकेत भी दिया गया कि दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे खास इलाक़ों में उर्दू को हिंदी के बराबर का स्थान दिया जाना चाहिए।

उसके बाद सरकार ने तीन भाषाओं का फ़ार्मूला तैयार किया जिससे बच्चे सेकेंडरी स्तर पर अपनी पसंदीदा जबान का ज्ञान भी हासिल कर सकें। इस आदेश के मुताबिक़ उत्तरी भारत के राज्यों को देश के अन्य भागों की आधुनिक भाषाएं सिखाने का मंशा था। मगर मुख्य मंत्रियों ने उसमें तीसरी जबान संस्कृत चुन ली और उर्दू के लिए जगह ही नहीं छोड़ी, जबकि संस्कृत पुरातन भाषा है। आखिर में इंगलिश को दूसरी भाषा चुन लिया क्योंकि उसमें दुनिया भर में संप्रेषण संभव था। जिन बच्चों की मादरी जबान उर्दू थी उनके लिए कोई अवसर ही नहीं छोड़ा।

उर्दू बोलने वाले अवाम के दबाव में सरकार ने तमाम शिकवे गिले निपटाने के लिए गुजराल कमेटी का गठन 1972 में किया था। उसकी रिपोर्ट 1975 में आयी थी, मगर उसकी सिफ़ारिशों पर किसी भी रंगत की सरकार ने अमल नहीं किया।

धीरे धीरे जनवादी मूल्यों में गिरावट और जम्हूरियत के लिए बढ़ते खतरे ने फ़िरक़ावाराना ताक़तों को उभार दिया जिसकी परिणति हिंदुत्वादी तत्वों के हाथों 6 दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद के ध्वंस में हुई। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस शर्मनाक घटना से देश के धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक ताने बाने को नुक़सान हुआ। इसका असर उर्दू पर भी पड़ा।

पहले उर्दू हमारे देश के जनतांत्रिक और सेकुलर ताने बाने का मज़बूत स्तंभ थी। हिंदी के बाद दूसरी सबसे ज्यादा तादाद में बोली जाने वाली जबान के रूप में उसे उसका सही दर्जा हासिल होता तो वह हमारी जम्हूरियत को मज़बूत करने में अपना सही रोल अदा कर सकती थी। मगर ऐसा हो नही सका।

सच्चाई यही है कि आज़ादी के बाद वह उपेक्षा का शिकार ही रही, केंद्र और राज्यों में तरह तरह की रंगत की सरकारें आयीं और गयीं मगर हमारी साझा संस्कृति की आधारशिला बनी उर्दू के प्रति बरते गये अनाचार का निवारण नही हुआ। तरह तरह की कमेटियां बनीं, रहे ढाक के वे ही तीन पात। आख़िरी कमेटी 1990 में वी पी सिंह सरकार के ज़माने में अली सरदार जाफ़री की सरपरस्ती में बनी। इसे यह बताने का जिम्मा दिया गया कि गुजराल कमेटी की किन सिफ़ारिशों पर अमल हुआ।

पहले जो कमेटियां 1979 और 1983 में इस काम के लिए बनी थीं, वे यह सच्चाई बताने में नाकाम रही कि 95 फ़ीसद सिफ़ारिशों पर कोई अमल ही नहीं हुआ। अली सरदार जाफ़री कमेटी ने कम से कम यह सच तो सामने ला दिया।

जैसा कि शुरू में बताया गया है कि 1987-88 में जनवादी लेखक संघ ने उन राज्य सरकारों पर दबाव डालकर उर्दू को दूसरी सरकारी जबान बनवाने के इरादे से आंदोलन शुरू किया जहां भारी तादाद में उर्दू बोलने वाले रहते हैं। कुछ 1989 का चुनावी दबाव भी था, सो यूपी और बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी जबान का दर्जा हासिल हो गया, मगर इसे पूरी तरह से अमल में अभी तक नहीं लाया गया।

यूपी में नारायण दत्त तिवारी सरकार ने विधानसभा के आख़िरी सत्र के आखिरी दिन 29 सितंबर 1989 को एक्ट पारित करवाया, 6 अक्टूबर 1989 को गजट में छपा। काग़ज़ पर तो कानून छप गया मगर अमल में उर्दू को सात कामों के लिए दूसरा दर्जा मिला, इससे उर्दू के फ़रोश में या स्कूली तालीम में शामिल होने जैसा कोई फायदा नहीं हुआ। आरएसएस की शह पर हिंदी साहित्य सम्मेलन ने कोर्ट में केस डाल दिया जो इलाहाबाद हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने भी फ़ैसले को सही माना। सरकारी मशीनरी ने एक्ट के प्रावधानों पर अमल ही नहीं किया। अब तो घनघोर सांप्रदायिक फ़ासिस्ट ताक़तों की तथाकथित डबल एंजिनकी सरकार है उससे तो उर्दू के लिए -मुहब्बत की कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती।

दिल्ली में भी कांग्रेस सरकार ने उर्दू को नवंबर 2003 में राज्य की तिसरी जबान का दर्जा दिया। तब से अब तक सरकारें आयीं और गयीं, मगर उर्दू के प्रति सौतेला व्यवहार जस का तस है।

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एनसीईआरटी में उर्दू

एनडीए-1 के अधीन एनसीईआरटी में उर्दू के प्रति सौतेला व्यवहार होना शुरू हो गया था। पाठ्क्रमों में आरएसएस की वैचारिकी की रंगत भरने की कोशिश तभी शुरू हो चुकी थी। इस इदारे ने स्कूली तालीम में उर्दू शामिल करने के इरादे से योजनाओं का काम ऐसे लोगों को सौंपा जिनका तालीम से कोई लेना देना ही नहीं था। उन्हीं को सभी विषयों की किताबें और पाठ्यक्रम तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी जिन्होंने उर्दू को एक स्वैच्छिक विषय बना दिया। उन्हीं को ऐसी किताबें तैयार करने का काम दिया जो उर्दू मीडियम से पढ़ाई करना चाहते थे या जिन्होने मादरी ज़बान होने की वजह से उर्दू को पहली ज़बान चुना था। इसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की ऐसी किताबें चल रही हैं जिनका आज की दुनिया से कोई वास्ता नहीं है।

ऐसी सरकार से उर्दू के फ़रोग के लिए किसी काम की उम्मीद की ही नहीं जा सकती जो आरएसएस के हिंदुत्ववादी एजेंडे पर अमल कर रही हो। जिन बच्चों की मादरी जबान उर्दू है उनमें से 66 फ़ीसद को हिंदी पढ़ने के लिए, 34 फ़ीसद को संस्कृत चुनने के लिए मजबूर किया गया, उर्दू को सिफ़र। कुछ राज्यों में संभवतः उर्दू विषय चुनने की सुविधा ही न हो क्योंकि वहां उर्दू पढ़ानेवाला उस्ताद ही नहीं।

नेशनल काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ उर्दू लैंग्वेज

केंद्र सरकार ने पहली अप्रैल 1996 को दिल्ली में एक स्वायत्त संस्था के रूप में इस इदारे का गठन उर्दू को बढ़ावा देने, उसे विकसित करने और उसका प्रचार करने के मक़सद से किया था। केंद्रीय इदारे के तौर पर इसे उर्दू ज़बान की तालीम और उसके विकास के काम में लगी बहुत सी संस्थाओं के साथ तालमेल रखने वाली प्रमुख एजेंसी के बतौर काम करना था। मगर हुआ उल्टा। देश की शिक्षा नीति के तहत उर्दू को हाशिये पर डाल दिया गया।

एनडीए-1 की भाजपा सरकार ने उर्दू का इस्तेमाल आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया। इसने उर्दू के प्रसार के लिए कोई योजना नहीं बनायी और न ही उसके आधुनिकीकरण की कोई कोशिश की। उल्टे ऐसी योजनाओं पर पैसा बरबाद किया जिनका उर्दू के प्रचार प्रसार से दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था।

मसलन, जम्मू-कश्मीर के साहित्यिक इतिहास और वहां के सांस्कृतिक अतीत और संस्कृत को लेकर एक करोड़ की योजना इस इदारे ने अपने हाथ में ली। यह जानकर ताज्जुब होता है कि इस योजना का उर्दू के प्रचार प्रसार से क्या लेना देना था।

यूपीए सरकार-1 को इसकी जांच करानी चाहिए थी जैसी कि जनवादी लेखक संघ की मांग भी थी, मगर हुआ कुछ नहीं। अब मोदी सरकार के दौरान भी वही हो रहा है। 16 सितंबर 2025 से हिंदी पखवाड़ामनाया जा रहा है। जो थोड़ा बहुत फंड काउंसिल को मिलता है उसकी बरबादी इसी तरह हो रही है। उनके काम को देखने के लिए उनकी सालाना रिपोटों पर नज़र डालें तो हक़ीक़त सामने आ जायेगी। एक काम जो 2023-2024 की सालाना रिपोर्ट में दर्ज है, उसकी ग़लत अंग्रेजी के साथ जायज़ा लीजिए:

A lecture on Three New Criminal Law’ was organized on 27th March, 2024 at the conference Room Farogh-e-Urdu Bhawan, Jasola, New Delhi.

इस तरह Farogh-e-Urdu हो रहा

जनवादी लेखक संघ ने 2004 में यूपीए-1 सरकार के सामने जो लेखक चार्टर पेश किया था उसमें उर्दूभाषी अवाम के उर्दू के मुतल्लिक़ गिले शिकवे दूर करने के लिए संविधान में शामिल प्रावधानों पर कारगर अमल करने की मांग शामिल थी। देश के संविधान में 86वें संशोधन के तहत भारत सरकार का यह अनिवार्य कर्तव्य बनता है कि राज्य नीति के निर्धारक सिद्धांतों के अनुसार 14 बरस तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा मुहैया कराने के उनके मौलिक अधिकार पर अमल करे। मांग की गयी थी कि उत्तर भारत के राज्यों में तीन भाषाओं के फ़ार्मूले के तहत उर्दूभाषी बच्चों के लिए छठी कक्षा से बारहवीं तक उर्दू की पढ़ाई अनिवार्य प्रथम भाषा के तौर पर कराने की व्यवस्था हो, उनकी दूसरी भाषा हिंदी हो सकती है और तीसरी भाषा इंगलिश या कोई भी देश की अन्य भाषा। इसी तरह हिंदीभाषी बच्चों के लिए हिंदी अनिवार्य पहली भाषा हो, दूसरी उर्दू और तीसरी अंग्रेज़ी या कोई भी अन्य भारतीय भाषा। इस तरह त्रिभाषा फ़ार्मूला यथार्थ रूप में लागू हो सकता था जिससे हमारी साझा संस्कृति विकसित हो सकती थी। मगर सरकारों ने इस तरफ़ कोई तवज्जो ही नहीं दी।

‘जलेस’ की मांग है कि दिल्ली, बिहार, झारखंड, यूपी जैसे राज्यों में जहां उर्दू को दूसरी-तिसरी सरकारी जबान का दर्जा हासिल है वहां ईमानदारी से उसे कामकाज की जबान बनाया जाये, रस्म अदायगी से काम नहीं चलेगा। ऐसा नहीं हुआ तो उर्दूभाषी अवाम को धक्का लगेगा और उनमें अलगाव की भावना पैदा होगी।

जनवादी लेखक संघ उर्दू के संवैधानिक हकूक के लिए हमेशा जद्दोजहद में शामिल रहेगा क्योंकि इसकी मान्यता है कि देश में र्दू की रक्षा और विकास का मसला दर असल जम्हूरियत की रक्षा और विकास का मसला है।इस मसले को फ़िरक्रावाराना नज़रिये से देखना सरासर गलत और अमान्य है।

(19-20-21 सितंबर 2025 को जनवादी लेखक संघ के ग्यारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन (बांदा) में पेश किया गया प्रस्ताव)

वाचनीय

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उर्दू के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ प्रस्ताव
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