सिकंदर अली वज्द और वली दकनी के बाद ‘सिराज औरंगाबादी’ मध्यकाल के तिसरे ऐसे बडे कवि थे, जिन्होने दकनी भाषा को काव्य के लिए चुना था। उनका जन्म ईसवी 1712 में औरंगाबाद में हुआ। उनका मूल नाम सय्यद सिराजुद्दीन नाम था परंतु बाद में ‘सिराज औरंगाबादी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसवी 1764 में मात्र पचास साल के आयू मे उनकी मृत्यु हुई।
सिराज को औरंगाबाद का महाकवि भी कहा जाता
हैं। वे मध्यकाल नामचिन कवियों ने अपना रुतबा रखते थे। उनकी ख्याति वली जैसी नहीं, पर उनके
बाद दूसरे स्थान पर जरूर थी। वली के बाद उन्होने दकनी भाषा को दक्षिण से कोसें दूर
ले जाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
सिराज अभी पूरी तरह से युवावस्था को भी
नहीं पहुंचे थे कि उन पर सुफी परंपरा का गहरा असर हुआ। वे सुफी फकिरों के सहवास में
रहने लगे। फिराख के अनुसार वे ख्वाजा सय्यद शाह अब्दुर्रहमान चिश्ती के पास पहुंचे
और उनके आध्यात्मिक शिष्य हो गये। कहा जाता हैं कि समय बितते वह और ज्य़ादा सुफियाना
हो गए। एक समय ऐसा आया जब उन्होने शायरी छोड सारा जिवन सुफी संतो के संग व्यतित किया।
सब जगत ढूढ फिरा प्यु को न पाया हरगिज।
दिल के गोशे मैं मका था मुझे मालूम न था।
फिराख गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू
भाषा और साहित्य’ मे सिराज औरंगाबादी के व्यक्तित्व को लेकर एक कथन
बयान किया हैं, जिससे सिराज कि जिवनी बयां होती हैं, “वे अपने
बारे में लिखते हैं कि बारह वर्ष की अवस्था से सात वर्ष तक फ़क़िराना भावान्माद रहा, जिसमें
वे शाह बुऱ्हानुद्दीन ग़रीब दौलताबादी नामक प्रख्यात सुफ़ी संत की समाधि के चक्कर लगाते
रहे। इस अरसे में बहुत फ़ारसी शेर कहे, लेकिन उन्हें लेखनीबद्ध नही किया। लिखे
गये होते तो उनका भारी-भरकम संग्रह तैयार हो जाता।”
फिराख आगे लिखते हैं, “अपने
एक गुरुभाई अब्दुल रसूल खान के कहने पर उन्होंने फ़ारसी की बजाय उर्दू में शेर कहना
शुरू किया। कई सालों तक शेरो शायरी का सिलसिला चला। उनकी उर्दू तथा फ़ारसी रचनाओं का
संपादन उनके गुरुभाई ने ही किया और उसे काव्यप्रेमियों के पास भेजा। किन्तु काव्य-रचना
का क्रम अधिक न चला क्योंकि आपके गुरु ने आपको आदेश दिया कि काव्य रचना छोड़कर पूरी
तरह फ़क़ीर बन जाओ।”
खबर-तहय्युरे-इशकर सुन, न जुनू रहा नपरी रही।
न तो तू रहा, न तो में रहा, जो रही सो बेखबरी रही।
उर्दू साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक प्रो.
एहतेशाम हुसेन के अनुसार सिराज बचपन से ही सौन्दर्य और प्रेम की परिकल्पना कि ओर आकृष्ट
हुए थे। उम्र के सात साल बीतने के पश्चात जब यह स्थिति समाप्त हो गई, तो सुफ़ियों
और फ़कीरों के संग रहने लगे और सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत हो गया।
बहुत से लोग उनके शायरी के बारे में अनभिज्ञ
नजर आते हैं। उनके चाहनेवाले उन्हे सिर्फ सुफी फकीर के रूप में पहचानते हैं। यही वजह
हैं कि औरंगाबाद में स्थित उनकी मजार पर लोग खिराजे अकिदत भेजने के लिए आये दिन जमा
होते हैं।
कहा जाता है कि सिराज के घर एक हफ्ते में
बार गोष्ठी हुआ करती थी, जिसमें कव्वाल और गवैया अपना कमाल दिखाते
थे। इस बैठक में नगर के समस्त विद्वान एकत्र होते थें। इस महफिल में खूब मुशायरे हुआ
करते. इस महफिल में लोगों के आग्रह पर सिराज कभी-कभी शेर सुना देते थें। उनके स्वभाव
में फकिरी कूट-कूटकर भरी थीं। अतिथि-सत्कार तथा दीनों, अनाथों की सहायता करने में विख्यात थें।
अपना बहुत सारा समय फकिरी मे व्यतित करने
के कारण उनका काव्य एक उर्दू तथा एक फ़ारसी दीवान से अधिक नहीं हुआ। पर सिराज 'बोस्ताने
खयाल' (Bostan-e-Khayal) मसनवी के ज्यादा परिचित हुए। जैसा की उपर
कहां जा चुकी हैं कि, सिराज अपने शुरुआती दौर में फारसी में रचनाए
किया करते थे। परंतु आज उनकी फारसी नज्मे उपलब्ध नही हैं,
क्योंकि
उस समय उन्हे सहेजा नही गया था। परंतु उनके कविताओं पर फारसी का प्रभाव स्पष्ट रूप
से देखा जा सकता हैं। कई विश्लेषकों का मानना है कि उनके रचनाए दकनी भाषा कि विषेश
अनुभूती महसूस कि जा सकती हैं।
चली सम्ते-गैब से वो हवा कि चमन सुरूर का जल गया।
मगर एक शाख-नेहाले-गम, जिसे दिल कहें सो हरी रही।
'बोस्ताने खयाल'
सिराज
कि महत्वपूर्ण मसनवी हैं। जो इसवी 1747 में लिखा गई थी। इसमें कुल 1 हजार 160 शेर है।
माना जाता है कि यह शेर सिराज ने केवल दो दिन में लिखे थे। प्रो. एहतेशाम हुसेन के
अनुसार इसकी कहानी बड़ी सरल और सीधी है और आप बीती के ढंग पर लिखी गयी है। एक कवि और
प्रेमी के जीवन का ऐसा वास्तविक और सुन्दर चित्रण करना किसी साधारण कवि के बस की बात
नहीं।
'बोस्ताने-ख्याल' नूतनता
की दृष्टि से भी यह मसनवी उर्दू की प्रमुख कृतियों में गिनी जाती है। गजलों मे उन्होंने
'वली औरंगाबादी' का अनुकरण किया है और अपनी कविताओं में
उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लिया है।
वली औरंगाबादी की तरह सिराज कि रचनाए भी
सिधी और स्पष्ट हैं। उनकी शायरी के अभिव्यक्ती में कोई रहस्यवाद नही हैं। उनकी रचनाए
साफ़ सुथरी और सरल हैं। उनमें न भारी भरकम शब्दजाल है न द्वि अर्थो का मायाजाल हैं
और न ही अंधाधुंध अलंकारों का प्रयोग। उनकी ऱचनाए सफ़ाई और सादगी ने वर्णित हैं। जिसमे
भावो का जबरदस्त प्रवाह पैदा होता हैं। इस आलेख में बिखरे 'सिराज' के कुछ
शेरों से इस बात कि अनुभूती होती हैं।
मुद्दत से गुम हुआ दिले-बेगाना ऐ ‘सिराज‘
शायद कि जा लगा है किसी आशमा के हाथ।

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अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com