जावेद अख्तर की कलम से:
उर्दू बुनियादी तौर पर उत्तर भारत की एक ‘अर्बन जुबान’ रही है। उसकी फोनोटिक पर, उसके सैटर्लिटी पर उसके नोअर्सिस पर सीरियसली काम किया गया है। इस हद तक कि आप यह सोचों गालिब की एक किताब है, जिसे उनके दो दोस्त थे, उन्होंने एडिट किया है। उसका एक शेर था -
है
कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया
*दश्त-ए-इम्काँ=संभावनाओं
का रेगिस्तान;
नक़्श-ए-पा=पदचिन्ह
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
मगर यह शेर के उनके दीवान में नहीं हैं, इसलिए कि उनके दोस्तों
ने कहा ‘नक़्श-ए-पा पाया…’ यह पा पाया क्या होता है? यह साउंड ठीक नहीं है! जहां इतना फॉनेटिक की वजह से
वर्क किया गया हो, की पा पाया की वजह से इतना अच्छा शेर काट दिया गया। बरसों तक यानी
कम से कम दो ढ़ाई सौ साल इसके लैंग्वेज पर, इसके नोअसिस पर काम हुआ है। इसकी साउंड
पर जिसे फोनेटिक कहते हैं उस पर काम हुआ है। इसकी सैटर्लिटी पर काम हुआ है। जिसके बाद
इसकी जो बारीकियाँ, मुलानियत और जो पॉलिश आई वह कमाल की हैं।
जब फारसी थिएटर आया उसने भी इसे इस्तेमाल किया। कोई हैरत की बात नहीं है कि जब टॉकी फिल्म बनी ‘आलम आरा’ तो उसकी ज़बान उर्दू थी और बावजूद इसके के हमारे फिल्मों की ज़बान हिन्दुस्तानी है वह प्युअर उर्दू भी नहीं है। हिन्दुस्तानी जो हिन्दी और उर्दू से मिली हुई होती है। आज तक वो है।
आप अगर फिल्मों में डायलॉग राइटर की लिस्ट देखेंगे, या गीतकारों
की लिस्ट देखेंगे तो वह सारे उर्दू से हैं। जिसमें इस्मत चुगताई, कृष्ण चंद्र, राजेंद्र
सिंह बेदी, इंद्रराज आनंद, गुलजार, आनंद बक्क्षी, राजेंद्र कृष्णा, वज़ाहत मिर्जा,
साहिर लुधियानवी,
मजरुह यह सारे के सारे उर्दू डिसिप्लिन से आये हैं।
आप रिवायत (legend) देखेंगे तो ज्यादातर डायलॉग
राईटर और जो साँग राइटर है वह उर्दू से आये हैं। अगर वह उर्दू में नहीं भी लिखते और
वह राइटर है तो उनका भी झुकाव उर्दू की तरफ मिलता है।
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फिल्मों की जुबान होती हैं
कहते हैं, पहले थॉट आती हैं फिर जुबान आती हैं, मैं कहूं तो
थॉट बगैर जुबान के आ ही नहीं सकती। आपको फिलिंग बगैर जुबान के आ सकती है, अगर कोई चिंगारी
लगाए तो वह जलेगी, उसके लिए कोई लैंग्वेज की जरुरत नहीं है। वहां आग जलनी की फिलिंग
होगी। आपको कोई मिठी चीज खिलाये वहां किसी लैंग्वेज की जरूरत नहीं है कि आपको मुंह
में मिठास महसूस होगी। लेकिन थॉट बगैर शब्दों के आ ही नहीं सकते। यह ‘थॉट’ और ‘फिलिंग’ में फर्क हैं। शब्द
विचार नहीं होते मगर शब्द अल्फाज थॉट को ब्रेक कर सकते।
आप इटालियन, कॉन्टिनेंटल फुड खाइए लेकिन आप अल्टीमेटली जब दाल
चावल और रोटी खाते हैं तो जो आपको सुकून मिलता है, वह आपको दूसरे खाने में मिल ही नहीं
सकता। आप कितनी ही वेस्टर्न म्यूजिक सुन लीजिए उसे अप्रिशियट कर लीजिए, लेकिन जब ढोलक
बजेगी तो आपके वह डीएनए में घुसा है वह बाहर निकलेगा। ढोलक आपके DNA में
है, जुबान आपके डीएनए है होती हैं, तो यह बात हैं जिसे लगता हैं आप अपने घर आ गए।
हम डायलॉग लिखते हैं जो उस कैरेक्टर की जुबान होती है। मैंने
टेन कमांडेड अंग्रेजी में देखी, जिसमें गॉड अमेरिकन अंग्रेजी में बोल रहा था। तो ऐसा
नहीं है कि आप बनहर बनाते है तो उसमें रोमन अंग्रेजी में बात कर रहा है। देवदास जब
मलयालम में बनी थी तब देवदास मलयाली में ही बात कर रहा था। तो ऐसा तो नहीं है कि हमने
हिन्दी में देवदास बनाई वह उसमें दिलीप कुमार या शाहरुख हिन्दी में डायलॉग बोल रहे
थे। वह बंगाली में बनती तो डायलॉग बंगाली में होते।
इसमें कोई शक नहीं है, फिल्मों की भी एक जुबान होती है। लेकिन
उसमें थोड़ा सा लिवे होता है। अलग-अलग केरेक्टर को आप अलग-अलग करते हैं, उन्हें ज़बान
देते हैं। यह सिर्फ डायलॉग में नही हैं, बल्कि वह गाने में भी है। अगर नहीं है तो खराब
साँग राइटर है। जब साहिर नहीं चित्रलेखा के गाने लिखे वह उर्दू के शब्दों का शायर तो
लिखता है-
मन अरे तू काहे ना धीर धरे
वह निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करें
उतना ही उपकार समझ जितना कि कोई साथ निभा दे
जनम मरण का मेल है सपना यह सपना बिसरा दे
कभी न संग मरे, मन रे तू काहे ना धीर धरे..
आपको उर्दू वालों की एक कमाल की बात बता दू, उर्दू के जीते
अच्छे राइटर हो चाहे गद्य के हो या पद्य के; या कोई भी हो। वह बेहद अच्छे हिन्दी
लिखते हैं। उन्हें अच्छे हिन्दी लिखनी ही चाहिए इसलिए कि हिन्दी और उर्दू इतने पास
है कि उनका पूरा सिंटेंक्स, इनका पूरा ग्रामर तो एक ही है। 90 फिसदी होक्याब्लरी एक ही है।
उर्दू थी फॉनेटिक की ट्रेनिंग बहुत स्ट्रांग होती है आप ऐसा
वर्ड इस्तेमाल ही नहीं करेंगे के जो कान को खराब लगे। फिर जब हिन्दी लिखता है तो हिन्दी
उतनी ही सिंथेटिक लगती है। तो उर्दू दो शायर जैसी हिन्दी लिखता है वह अच्छे-अच्छे हिन्दी
कभी-कभी नहीं लिख पाएंगे, इसमें कोई शक नहीं है।
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दुसरी जुबानों पर भी रहम करे
मुझे बहुत से लोग मिलते हैं और बड़े प्यार से जा़वेद साहब,
आप से मिलकर जो ख़ुशी हुई है... ज़ावेद साहब मुझे आपसे बहुत ज़रुरी बात करनी है, अगर
यहां वो गैरजरुरी बिंदी हटा दे बहुत अच्छा रहेगा। वे बिन्दी ‘जा’ से निकाल कर उधर वाले ‘जा’ में
लगा दे तो उनका भी भला हो जाएगा और मेरा भी।
यह जुल्म उर्दू ही नहीं हर जुबान के साथ हो रहा हैं। आप देखिए
उर्दू वाला जो उर्दू में पढ़ा-लिखा है, वह प्रकाश, प्रदीप, स्मिता कह ही नहीं सकता।
वह तो परकाश, परदीप और समिता बोलेगा। आपको एक बात बता दू पंजाबी भी परदीप कहते हैं
धर्मेंदर कहते हैं, धर्मेंद्र नही कह सकते। क्योंकि इसलिए कि इनके भी बुजुर्गों ने
बरसो तक उर्दू ही पढ़ी है और उर्दू का प्रोनसेशन आज तक पंजाबी के पास हैं। यह उर्दू
का करम हैं, उर्दू कि वजह से गलती हैं. परकाश, परदीप यह पंजाबियों में भी आया है उर्दू
के वजह से।
अब अंग्रेजी के अल्फा जहम उर्दू में इस्तेमाल करते हैं कालेज
और नालेज यह क्या है? मतलब जहां हम यह सोचते हैं कि हमारे अल्फाज दूसरे लोग अच्छे से प्रोन्ससेशन
करें तो थोड़ा हम भी दूसरी जबानों पर रहम करे तो अच्छा है।
(रेख्ता के एक कार्यक्रम से शब्दांकित)
शब्दांकन :
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल: kalimazim2@gmail.com
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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com