फातिमा शेख : शिक्षा क्षेत्र में काम करनेवाली मुस्लिम महिला


डॉ. सुरेश खैरनार नजरिया :

ज ही के दिन (13 अक्टूबर) फातिमा शेख जो आजसे 175 साल पहले पुणे मे फातिमा शेख का निधन हुआ था। और वह परिवार की सदस्य थी जिनके भाई उस्मान शेख ज्योतिबा फुले के अभिन्न मित्र थे। ज्योंतिबा को उनके परिजनों ने जब उन्हें सनातनी यो के खिलाफ चल रहे अभियान को बंद करो अन्यथा घर छोड़कर चले जाने का कहा तो इतने बड़े पुणे में उनके किसी और साथियों ने उन्हें पनाह देने की पहल नहीं कि वह उस्मान शेख और उसकी बहन फातिमा शेख ने कीया है।

कोई साधारण बात नही है उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जहाँ पेशवाई के समाप्त होने के 9 साल बाद। और तुरंत ऊनका रूका हुआ स्रीशिक्षा के काम को अंजाम देने में थोड़ी भी देर ना करते हुए तुरंत अपने ही घर के दुसरे हिस्से में 6 लडकियों को लेकर पाठशाला शुरू कर दिया है। यह भारतीय स्री शिक्षा का काम उस समय के संपूर्ण भारत का पहला काम है। और उस हिसाब से इस कामका ऐतिहासिक महत्व है।

एक मुसलमान परिवार हिन्दू ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को उनके परिजनों द्वारा घर से निकाल बाहर कर दिये जाते हैं। और एक मुसलमान परिवार पावने दो सौ साल पहले के पेशवा के राज्य खत्म होने के 10 सालों के भीतर जो की लोगों का दिमाग पूरा पेशवाओने दलित और सभी पिछडी जातियों के लोगोंके लिये जो सामजिक बंधन लादकर रखे हुए थे उस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो उस्मान शेख और फातिमा शेख का यह साहसिक कदम उठाने की बात भी ऐतिहासिक महत्व रखती है।

थोड़ी कल्पना कीजिए कि अगर ज्योतिबा के परिवार के लोगों द्वारा उन्हें घरके बाहर निकालने के बाद पुणे में कोई और सहारा नहीं मिला होता तो?

और उन्हे सिर्फ सहारा देकर रुके नहीं उनके अधुरे काम को अंजाम देने में अपने आप को तुरंत जोड़ कर अपनी बहन फातिमा शेख को सावित्रीबाई फुले के साथ महिला शिक्षा का काम करने के लिए ट्रेनिंग के लिए भेजा है।

वह दोनों ट्रेनिंग के बाद दोबारा स्री शिक्षा का काम कर ते हुए अगल बगल के सनातनी लोगों के ताने, गालियां और कंकड़, गोबर, किचड फेके जाने के बावजूद दोनों महिलाऐ किस मिट्टी की बनी होंदी। यह बात मेरे जेहन में बार बार आती है कि आजसे लगभग, 200 सालों के पहले। अगर उस समय इन दोनों ने यह जुनून नहीं दिखाया होता तो आज जितनी भी शिक्षित महिलाएं और जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई दे रहे हैं वह दींखाई दी होती?

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जिस मनुस्मृति का महिमा मंडन संघ परिवार गाहे-बगाहे करते रहता है उसीके अनुसार स्री, शूद्र पैर के अंगूठे से पैदा होने के कारण भले वह स्त्री सवर्णो में से क्यों न हो उसे अक्षर ज्ञान से शूद्रों के साथ वंचित रखा गया है और उस परंपरा को तोडते हुए सावित्रीबाई फुले के साथ महिला शिक्षा का काम फातिमा शेख का बहुत बड़ी बात है।

और सबसे बड़ी बात फातिमा शेख ने किया है उसका महत्व मेरे जैसे मुसलमान-हिन्दूओ की समस्याओं पर गत 30 सालों के काम करने के वाले कार्यकर्ता को मुसलमान समाज में रहते हुए उस्मान और फातिमा शेख का काम उनके सौ साल बाद के हमीद दलवाई जी के काम के साथ तुलना हो सकती है।

उस हिसाब से सावित्रीबाई फुले के साथ देर से ही सही लेकिन काफी न्याय हुआ। है पुणे जैसे पेशवाई के राज्य रहे शहर की यूनिवर्सिटी को सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय नाम दिया गया है। और उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया गया है। और कई-कई पुरस्कार भी दिये जा रहे हैं।

लेकिन उस तुलना में फातिमा शेख का काम और उनके जीवन के बारे में कुछ विशेष दखल नहीं ली क्यो? वह मुसलमान परिवार से थीं इसलिये? मैंने यह पोस्ट लिखने से पहले आज सुबह से लेकर अभि रातके पौने बारह हो रहे हैं और बारह घंटे सिर्फ फातिमा शेख के बारे में गूगल, विकिपीडिया, और मेरे पास के किताबों में ढूंढने से भी कुछ खास नजर नहीं आया।

क्यो कि वह एक अल्पसंख्यक समुदाय से थी और आज गत कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को संघ परिवार के 95 सालों के दौरान फैलाया गया जहरीला प्रचार के कारण देश में मुसलमानों को लेकर जबरदस्त गलत फहमीया फैल चुकी है और उनके और अन्य लोगों के बीच एक दिवार बन चुकी है और उन्हे देशद्रोहियों की कैटिगरी में डालने का काम बदस्तूर जारी है। फिर वह कोरोना जैसा महामारी से लेकर हाथरस के दलित उत्पीड़न का मामला हो सभी मे मुसलमानोंको दोषी ठहराया जा रहा है।

और यह देशद्रोही करार देना तो छुआ-छूत से भी अधिक घृणास्पद और भयावह है इस मे पढा लिखा हो या अनपढ़ हो गरीब हो या अमीर हो सभी मुसलमानों को सताया जा रहा है। हालांकि भारत की आजादी के आंदोलन के बारे में भी लिखा हुआ इतिहास में मुसलमानों को लेकर फातिमा शेख जैसा ही अज्ञान है। एक बंगाल के सेक्युलर आंदोलन के और वामपंथी शांतिमोय रॉय की द कॉट्रिब्युशन ऑफ मुसलमान इन इंडियन फ्रीडम मूवमेंट एनबीटी ने छापी हुई छोटी सी किताब अंग्रेजी में 30-40 साल पहले लिखी है बाकी उसके अलावा कुछ भी नहीं है।

और अभी हालही में राष्ट्र सेवा दल के काम से अलाहाबाद मे गया था तो हमारे लोहिया जी के अनुयायी मित्र शाहनवाज हुसैन कादरी जीने कमसे कम 500 पन्नों की मुसलमानों का भारत के स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा नाम की किताब छोड़ कर कुछ भी नहीं है।

गुरु गोलवलकर के अनुसार मुसलमानों को अगर भारत में रहना है तो दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। उन्हें कोई भी बराबर के अधिकार नहीं रहेंगे और उन्हें सिर्फ और सिर्फ हिंदूओं की सदाशयता (शायद - दया) पर जिना होगा।

हाथरस का 14 सितम्बर को दलित बच्चिके साथ जिस तरह से सवर्णो ने अंत्यत घृणास्पद अमानवीय कृत्य करने के बावजूद उस घटना का दोषी मुसलमानों को लेकर वह भी विदेशी षडयंत्र के साथ। आदित्यनाथ को शर्म नहीं आती अपनी लॉ अॅण्ड ऑर्डर की जिम्मेदारी का ठीकरा खुद को नियंत्रित करना नहीं आ रहा तो अचानक केरल के चार पत्रकार हाथरस की घटना को कवर करने के लिए जा रहेथे तो हायवे के टोल नाके पर मथुरा के पास उन्हे रोककर जैसे ही पता चला कि यह सब मुसलमान है तो तुरंत मलेशिया का कनेक्शन दिखाकर उनको गिरफ्तार किया गया है।

वर्तमान समय में संघ परिवार के लोगों मे स्पर्धा जारी है कि सबसे बड़ा मुसलमानों के खिलाफ कौन है? और आदित्यनाथ इस काम में सबसे आगे बढ़ने की कोशिश करने वाले लोगों मेसे एक है।

क्योंकि वर्तमान समय में राजनीति का करिअर बनाने के लिए यह बात काफी मायने रखती है नरेंद्र मोदी और अमित शाह उसके सबसे बडे उदाहरण है।

अभी कल के ही नागपूर के नव भारत नाम के हिंदी के अखबार में खबर है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाये। और इस मांग के लिए आयोध्या के तपस्वी छावनी के महंत परमहंस दास ने भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा की है। वह सोमवार से याने कल से ही अनशन पर बैठे हैं। और उन्होंने कहा कि वे सोमवार से आमरण अनशन कर सरकार पर दबाव बनायेंगे कि भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर मुस्लिमों की नागरिकता समाप्त करे हालाकि महंत परमहंस दास को शायद पता नहीं दिखता है कि तथाकथित नागरिक सुधार कानून लागू कराने के पिछे यही उद्देश्य है।

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महंत परमहंस दास ने बंगला देश और पाकिस्तान में रह रहे हिंदूओं को भारत लाने तथा भारत में रह रहे मुसलमानों को पाकिस्तान और बंगला देश भेजने की मांग की है। यह सौ साल पहले से ही संघ परिवार अपनी शाखाओं में कहते आ रहा है। जो आज परमहंस दास ने कहा और इस तरह के विचार को गत तिस सालों से लगातर मंदिर-मस्जिद, गाय, कृष्ण जन्मभूमि और स्थानीय स्तर पर छोटे मोटे विवादों को लेकर बारह महीने चौबीस घंटों सिर्फ और सिर्फ यही आलम जारी है और इस सब स्तिथि का असर जनमानस पर होता है और इसके कारण हमारे इतिहास लेखन करने वाले लोगों पर भी असर होता है। जिसका उदाहरण फातिमा शेख के बारे में दो सौ साल होने मे आ रहा है लेकिन उनके द्वारा की गई महिला शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण कृती को अनदेखा कर दिया है।

उसी तरह अविभाजित बंगाल में बेगम रोकिया शेखावत नाम की 1880 और 1932 दरमियांन इस नाम की महिला (वर्तमान समय में बंगला देश में) मे जन्म हुआ था और वह भागलपुर बिहार के परिवार मे ब्याही गई थी जो कभी बंगाल प्रोव्हिस का हिस्सा था और उन्होंने भी आजसे 100 साल पहले बंगाल में महिलाओं की शिक्षा का काम किया है और कुछ अंग्रेजी और बंगला मे साहित्य रचना भी की है और कलकत्ता में लार्ड सिन्हा रोड पर उनके नाम से एक लडकीओ का स्कूल चल रहा है। लेकिन जितना नाम इश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राम मोहन राय का है उसके मुकाबले बेगम रोकिया शेखावत का नाम नहीं है।

कल इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपने बयान में पीडिता के परिवार के लोगों ने कहा है कि हमारे आक्षेप के बावजूद हमारी बेटी का शवो को हमे ना देते हुए और दिखाया तक नहीं। जिला प्रशासन ने खुद अपने तरफ से जलाने का काम किया है।

और हाथरस पुलिस के अफसरों ने अपने बयान में स्वीकार किया है कि 14 सितम्बर को दलित बच्ची की मा बाप ने तक्रार करने के बावजूद हम लोगो ने कोई कारवाई नहीं कि। लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आये दिन नये नये षडयंत्र बताते जा रहे हैं।

कहीं हमारे तथाकथित उदार और प्रगतिशील लोग भी फातिमा शेख, हमीद दलवाईजी को इग्नोर करने का काम करते हुए दिख रहें। क्योंकि इस देश में जबसे तथाकथित संसदीय लोकतंत्र के चुनावों की पुरी एक्सरसाइज़ सिर्फ और सिर्फ भेड बकरियां जैसे मतदाताओं को एकमुश्त अपने तरफ खींचने की सर्कस में।

सामाजिक सुधार करने वाले लोगों को जान बुझकर अनदेखा करते हैं जिसका ताजा उदाहरण सुशांत के मौत को लेकर कितना तमाशा गत दो महीने से भी अधिक समय से लगातार चल रहा था! और डाक्टर दाभोलकर, कल्बुर्गी, पानसरे और गौरी लंकेश कि हत्या होकर कितना समय बीत गया है लेकिन हमारे देश के मीडिया से लेकर राजनीति के खिलाडियों ने क्या किया है?

क्योंकि वे चारों फातिमा शेख जैसा समाज सुधारक थे और उनके कारण मतदान पर कोई खास असर होता नहीं यही कारण है कि इतने दिनों बाद भी उनके हत्याओं के इन्क्वायरी कछुआ गती से चल रही है और मुझे तो संशय है कि सचमुच जाँच हो रही है या सिर्फ जाँच करने का नाटक कर रहे हैं।

मुख्य बात आज फातिमा शेख का पुण्य स्मरण दिवस के अवसर पर महाराष्ट्र हो या देश के कोई भी प्रगतिशील लोग भी (कुछ अपवादों को छोड़कर) इस विषय पर मौनव्रत धारण किये हुए हैं।

मै फातिमा शेख और उनके परिजनों की तहे-दिल से माफी मांग कर रहा हूँ कि मैं भी आपने आपको प्रगतिशील ही मानता हूँ इसलिये मेरी संपूर्ण बिरादरी की तरफ से मैं फातिमा शेख के स्मृति दिवस के उपलक्ष्य में उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह श्रद्धा सुमन के रूप में कुछ शब्द लीखा हूँ।

(डॉ. सुरेश खैरनार 12-13 अक्तूबर 2020 नागपुर)

(संबंधित आलेख का केवल शीर्षक बदला गया, बाकी सब मूलत: हैं। यह आलेख यहां एक दखल के तौर पर लिया गया हैं। जिस पर कुछ सवाल लेखक से करने हैं, जिसकी सुरत में इसे यहां पोस्ट किया हैं।)

वाचनीय

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फातिमा शेख : शिक्षा क्षेत्र में काम करनेवाली मुस्लिम महिला
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