1- औरंगजेब ने जितने मंदिर तुड़वाए, उससे कहीं ज्यादा बनवाए थे
अतीत में मुगल शासकों द्वारा हिंदू मंदिर तोड़े जाने का मुद्दा भारत में 1980-90 के दशक में गर्म हुआ. भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए एक आंदोलन शुरू हुआ जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के रूप में हुई. इस आंदोलन की बुनियाद में यह धारणा थी कि संबंधित स्थल पर भगवान राम का जन्म हुआ था.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस कालखंड यानी मुगलकाल में मंदिरों को तोड़े जाने की बात इतनी ज्यादा प्रचलन में है, उसमें हिंदुओं द्वारा कहीं इस बात का विशेष जिक्र नहीं मिलता. तर्क दिया जा सकता है कि उस दौर में ऐसा करना खतरे से खाली नहीं रहा होगा, लेकिन 18वीं शताब्दी में जब सल्तनत खत्म हो गई तब भी इस बात का कहीं जिक्र नहीं मिलता. विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन के मुताबिक मुगलकाल में मंदिरों को ढहाना दुर्लभ घटना हुआ करती थी और जब भी ऐसा हुआ तो उसके कारण राजनीतिक रहे. ईटन के मुताबिक वही मंदिर तोड़े गए जिनमें विद्रोहियों को शरण मिलती थी या जिनकी मदद से बादशाह के खिलाफ साजिश रची जाती थी. उस समय मंदिर तोड़ने का कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था.
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इस मामले में कुख्यात कहा जाने वाला औरंगजेब भी सल्तनत के इसी नियम पर चला. उसके शासनकाल में मंदिर ढहाने के उदाहरण बहुत ही दुर्लभ हैं (ईटन इनकी संख्या 15 बताते हैं) और जो हैं उनकी जड़ में राजनीतिक कारण ही रहे हैं. उदाहरण के लिए औरंगजेब ने दक्षिण भारत में कभी-भी मंदिरों को निशाना नहीं बनाया जबकि उसके शासनकाल में ज्यादातर सेना यहीं तैनात थी. उत्तर भारत में उसने जरूर कुछ मंदिरों पर हमले किए जैसे मथुरा का केशव राय मंदिर लेकिन इसका कारण धार्मिक नहीं था. मथुरा के जाटों ने सल्तनत के खिलाफ विद्रोह किया था इसलिए यह हमला किया गया.
ठीक इसके उलट कारणों से औरंगजेब ने मंदिरों को संरक्षण भी दिया. यह उसकी उन हिंदुओं को भेंट थी जो बादशाह के वफादार थे. किंग्स कॉलेज, लंदन की इतिहासकार कैथरीन बटलर तो यहां तक कहती हैं कि औरंगजेब ने जितने मंदिर तोड़े, उससे ज्यादा बनवाए थे. कैथरीन फ्रैंक, एम अथर अली और जलालुद्दीन जैसे विद्वान इस तरफ भी इशारा करते हैं कि औरंगजेब ने कई हिंदू मंदिरों को अनुदान दिया था जिनमें बनारस का जंगम बाड़ी मठ, चित्रकूट का बालाजी मंदिर, इलाहाबाद का सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर और गुवाहाटी का उमानंद मंदिर सबसे जाने-पहचाने नाम हैं.
इसी से जुड़ी एक दिलचस्प बात है कि मंदिरों की तोड़फोड़ भारतीय इतिहास में सिर्फ मुगलकाल तक सीमित नहीं है. 1791 में मराठा सेना ने श्रृंगेरी मठ पर हमला कर शंकराचार्य मंदिर में तोड़फोड़ की थी क्योंकि इसे उसके दुश्मन टीपू सुल्तान का संरक्षण हासिल था. बाद में टीपू सुल्तान ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया.
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2- औरंगजेब के शासनकाल में संगीत भी फला-फूला
औरंगजेब को कट्टरपंथी साबित करने की कोशिश में एक बड़ा तर्क यह भी दिया जाता है कि उसने संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन यह बात भी सही नहीं है. कैथरीन बताती हैं कि सल्तनत में तो क्या संगीत पर उसके दरबार में भी प्रतिबंध नहीं था. बादशाह ने जिस दिन राजगद्दी संभाली थी, हर साल उस दिन उत्सव में खूब नाच-गाना होता था. कुछ ध्रुपदों की रचना में औरंगजेब नाम शामिल है जो बताता है कि उसके शासनकाल में संगीत को संरक्षण हासिल था. कुछ ऐतिहासिक तथ्य इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि वह खुद संगीत का अच्छा जानकार था. मिरात-ए-आलम में बख्तावर खान ने लिखा है कि बादशाह को संगीत विशारदों जैसा ज्ञान था. मुगल विद्वान फकीरुल्लाह ने राग दर्पण नाम के दस्तावेज में औरंगजेब के पसंदीदा गायकों और वादकों के नाम दर्ज किए हैं. औरंगजेब को अपने बेटों में आजम शाह बहुत प्रिय था और इतिहास बताता है कि शाह अपने पिता के जीवनकाल में ही निपुण संगीतकार बन चुका था.
औरंगजेब के शासनकाल में संगीत के फलने-फूलने की बात करते हुए कैथरीन लिखती हैं, ‘500 साल के पूरे मुगलकाल की तुलना में औरंगजेब के समय फारसी में संगीत पर सबसे ज्यादा टीका लिखी गईं.’ हालांकि यह बात सही है कि अपने जीवन के अंतिम समय में औरंगजेब ज्यादा धार्मिक हो गया था और उसने गीत-संगीत से दूरी बना ली थी. लेकिन ऊपर हमने जिन बातों का जिक्र किया है उसे देखते हुए यह माना जा सकता है कि उसने कभी अपनी निजी इच्छा को सल्तनत की आधिकारिक नीति नहीं बनाया.
3- औरंगजेब के प्रशासन में दूसरे मुगल बादशाह से ज्यादा हिंदू नियुक्त थे और शिवाजी भी इनमें शामिल थे
मुगल इतिहास के बारे में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि दूसरे बादशाहों की तुलना में औरंगजेब के शासनकाल में सबसे ज्यादा हिंदू प्रशासन का हिस्सा थे. ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि औरंगजेब के पिता शाहजहां के शासनकाल में सेना के विभिन्न पदों, दरबार के दूसरे अहम पदों और विभिन्न भौगोलिक प्रशासनिक इकाइयों में हिंदुओं की तादाद 24 फीसदी थी जो औरंगजेब के समय में 33 फीसदी तक हो गई थी. एम अथर अली के शब्दों में कहें तो यह तथ्य इस धारणा के विरोध में सबसे तगड़ा सबूत है कि बादशाह हिंदू मनसबदारों के साथ पक्षपात करता था.
औरंगजेब की सेना में वरिष्ठ पदों पर बड़ी संख्या में राजपूत नियुक्त थे. मराठा और सिखों के खिलाफ औरंगजेब के हमले को धार्मिक चश्मे से देखा जाता है लेकिन यह निष्कर्ष निकालते वक्त इस बात की उपेक्षा कर दी जाती है कि तब युद्ध क्षेत्र में मुगल सेना की कमान अक्सर राजपूत सेनापति के हाथ में होती थी. इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि एक समय खुद शिवाजी भी औरंगजेब की सेना में मनसबदार थे. कहा जाता है कि वे दक्षिण भारत में मुगल सल्तनत के प्रमुख बनाए जाने वाले थे लेकिन उनकी सैन्य कुशलता को भांपने में नाकाम रहे औरंगजेब ने इस नियुक्ति को मंजूरी नहीं दी.
4- औरंगजेब की मातृभाषा हिंदी थी
औरंगजेब ही नहीं सभी मध्यकालीन भारत के तमाम मुस्लिम बादशाहों के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि उनमें से कोई भारतीय नहीं था. वैसे एक स्तर पर यह बचकाना और बेमतलब का तर्क है क्योंकि 17वीं शताब्दी के भारत में (और दुनिया में कहीं भी) राष्ट्र जैसी अवधारणा का तो कहीं अस्तित्व ही नहीं था.
हालांकि इसके बाद भी यह बात कम से कम औरंगजेब के मामले में लागू नहीं होती. यह मुगल बादशाह पक्का उच्चवर्गीय हिंदुस्तानी था. इसका सीधा तर्क यही है कि उसका जन्म गुजरात के दाहोद में हुआ था और उसका पालन पोषण उच्चवर्गीय हिंदुस्तानी परिवारों के बच्चों की तरह ही हुआ. पूरे मुगलकाल में ब्रज भाषा और उसके साहित्य को हमेशा संरक्षण मिला था और यह परंपरा औरंगजेब के शासन में भी जारी रही. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से जुड़ी इतिहासकार एलिसन बुश बताती हैं कि औरंगजेब के दरबार में ब्रज को प्रोत्साहन देने वाला माहौल था. बादशाह के बेटे आजम शाह की ब्रज कविता में खासी दिलचस्पी थी. ब्रज साहित्य के कुछ बड़े नामों जैसे महाकवि देव को उसने संरक्षण दिया था. इसी भाषा के एक और बड़े कवि वृंद तो औरंगजेब के प्रशासन में भी नियुक्त थे.
मुगलकाल में दरबार की आधिकारिक लेखन भाषा फारसी थी लेकिन औरंगजेब का शासन आने से पहले ही बादशाह से लेकर दरबारियों तक के बीच प्रचलित भाषा हिंदी-उर्दू हो चुकी थी. इसे औरंगजेब के उस पत्र से भी समझा जा सकता है जो उसने अपने 47 वर्षीय बेटे आजम शाह को लिखा था. बादशाह ने अपने बेटे को एक किला भेंट किया था और इस मौके पर नगाड़े बजवाने का आदेश दिया. आजम शाह को लिखे पत्र में औरंगजेब ने लिखा है कि जब वह बच्चा था तो उसे नगाड़ों की आवाज खूब पसंद थी और वह अक्सर कहता था, ‘बाबाजी ढन-ढन!’. इस उदाहरण से यह बात कही जा सकती है कि औरंगजेब का बेटा तत्कालीन प्रचलित हिंदी में ही अपने पिता से बातचीत करता था.
5- औरंगजेब द्वारा लगाया गया जजिया कर उस समय के हिसाब से था
औरंगजेब के शासनकाल का यह सबसे विवादित मुद्दा है लेकिन इसे तत्कालीन राज व्यवस्था के हिसाब से देखें तो इसमें कुछ भी असामान्य नहीं था.
अकबर ने जजिया कर को समाप्त कर दिया था, लेकिन औरंगजेब के समय यह दोबारा लागू किया गया. जजिया सामान्य करों से अलग था जो गैर मुस्लिमों को चुकाना पड़ता था. इसके तीन स्तर थे और इसका निर्धारण संबंधित व्यक्ति की आमदनी से होता था. इस कर के कुछ अपवाद भी थे. गरीबों, बेरोजगारों और शारीरिक रूप से अशक्त लोग इसके दायरे में नहीं आते थे. इनके अलावा हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर आने वाले ब्राह्मण और सरकारी अधिकारी भी इससे बाहर थे. मुसलमानों के ऊपर लगने वाला ऐसा ही धार्मिक कर जकात था जिसे औरंगजेब ने खत्म कर दिया था.
आधुनिक मूल्यों के मानदंडों पर जजिया निश्चितरूप से एक पक्षपाती कर व्यवस्था थी. आधुनिक राष्ट्र, धर्म और जाति के आधार पर इस तरह का भेद नहीं कर सकते. इसीलिए जब हम 17वीं शताब्दी की व्यवस्था को आधुनिक राष्ट्रों के पैमाने पर इसे देखते हैं तो यह बहुत अराजक व्यवस्था लग सकती है. लेकिन औरंगजेब के समय ऐसा नहीं था. उस दौर में इसके दूसरे उदाहरण भी मिलते हैं. जैसे मराठों ने दक्षिण के एक बड़े हिस्से से मुगलों को बेदखल कर दिया था. उनकी कर व्यवस्था भी तकरीबन इसी स्तर की पक्षपाती थी. वे मुसलमानों से जकात वसूलते थे और हिंदू आबादी इस तरह की किसी भी कर व्यवस्था से बाहर थी.
उस दौर में भारतीय समाज हिंदू-मुसलिम ध्रुवों में नहीं बंटा था बल्कि उसमें जाति व्यवस्था केंद्रीय भूमिका में थी. यदि हम आज के मानकों के हिसाब से देखें तो उस दौर में जाति व्यवस्था कहीं ज्यादा दमनकारी थी. इसका सबसे सटीक उदाहरण पेशवा राज के दौरान महाराष्ट्र में देखने को मिलता है. यहां तब महार दलित जाति के लोगों को अपने पीछे एक झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था ताकि जब वे चलें तो उनके कदमों से अपवित्र भूमि का उसी समय शुद्धिकरण भी होता चले. नियम यह भी था कि जब वे बाहर निकलें तो गले में एक कटोरा बांधकर रखें ताकि उनके मुंह से निकला थूक जमीन पर न गिरे. वे कोई भी हथियार नहीं रख सकते थे और उनकी शिक्षा पर भी प्रतिबंध था. महारों के लिए इन नियमों का पालन न करने की दशा में मौत की सजा का प्रावधान था.
इसमें कोई दोराय नहीं है कि अतीत की दमनकारी व्यवस्थाओं का हमारा मूल्यांकन इतिहास के तटस्थ अध्ययन (यदि ऐसा कुछ संभव है तो) पर आधारित नहीं है बल्कि यह ज्यादातर हमारे आधुनिक पूर्वाग्रहों और राजनीति पर निर्भर करता है. इसीलिए औरंगजेब के जजिया कर की तो बार-बार चर्चा होती है लेकिन मराठों के जकात और जातिगत दमन को कालीन के नीचे दबा दिया जाता है.
मूल लेख : शोयब दानियाल
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