‘भारतीय मुसलमानों की समाज संरचना और मानसिकता’ यह किताब मूलत: १९९२ में मराठी किताबचे की शक्ल में पेश हुई थी। जो मडंल कमिशन और बाबरी के शहादत के बाद की स्थिती और उस वक्त की मुसलमानों के हालात ए हाजरा का बयान था। यह किताब उसी समय पहल ने हिंदी में छापी थी। लेखक प्रो फकरुद्दीन बेन्नूर के दोस्त और हिंदी के जानेमाने आलोचक तथा अनुवादक प्रो. सूर्यनारायरण रणसुभे ने इसका हिंदी रूपांतरण किया था।
बेन्नूर ने २०१२ में मूल मराठी किताबचे को मुकम्मल किताब कि शक्ल में पेश किया। जिसका मराठी नाम ‘भारतीय मुसलमानांची समाजरचना आणि मानसिकता’ था। पुणे में इसका प्रकाशन प्रो. खालिद अन्सारी, जहीर अली और अन्य मान्यवरों के हाथों से हुआ था।
मगर यह किताब मराठी में गुमनाम ही रही उसकी अलग-अलग वजह रही होगी। मगर एक वजह यह भी थी कि इसका प्रकाशन ऐसे संस्था ने किया तो जो व्यावसायिक नही थी और आंदोलनों के जगह तक उसकी पहुंच थी।
अब यह पुरी किताब हिंदी में ‘भारतीय मुसलमानों की समाज संरचना और मानसिकता’ के नाम से हिंदी मे प्रकाशित हुई हैं। जाहिर हैं किताब प्रो. रणसुभे सर ने ही रूपांतरित की हैं। लोकभारती प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया हैं।
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यह किताब कई मायनों में खास हैं। पहली बार मुसलमानों के मानस को लेकर किसी मुस्लिम व्यक्ति ने सटिकता लिखा हैं। यह किताब कई मिथ्याओं को तोड़ती हैं। जनसंख्या से शुरू होकर स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं बदनामी, उलेमा वर्ग का रोल, वहाबी आंदोलन, अहरार आंदोलन तथा पाकिस्तान विरोधी जनमानस की और पाठकों का ध्यान निर्धारित करती हैं।
इसी तरह औपनिवेशिक इतिहास का विमर्श पूरे किताब का मध्यवर्ती सूत्र रहा हैं। ब्रिटिशों के सियासी षड्यंत्र, मुसलमान विरुद्ध हिंदू इतिहास की परिचर्चा, अभिजन और ब्राह्मण्यवादी सियासत का समाचार लेती हैं।
किताब पसमांदा विमर्श को भी आगे बढ़ाती हैं। १९९२ में शुरू हुए महाराष्ट्र के पसमांदा आंदोलन, उसकी भूमिका, सियासत, जन आंदोलन आदि पर बहस करती हैं। ‘मुसलमान में जाति और वर्ण’ को लेकर किताबों में एक पूरा अध्याय हैं। जिसमे बेन्नूर ने मुसलमानों की जाति और उसकी संरचना पर विस्तारित बहस की है। जाति व्यवस्था के स्वरूप और इतिहास की मीमांसा की है। मुसलमानों में पनपते जाति-बिरादरी वाद पर सटीक टिप्पणी की है।
लेखक कहते हैं, मुसलमान को धार्मिक पहचान देकर उलेमा वर्ग सैकड़ों सालों से अपनी सियासत करते आया है, इसी सियासत को दक्षिणपंथी ताकतों ने आगे बढ़ाया। धर्म के आधार पर मुसलमान की पहचान करवा कर उन्हें अस्मिता की संघर्ष में लिप्त किया है। बेन्नूर के मुताबिक भारतीय जाति व्यवस्था से ही मुसलमानों में अंधविश्वास पनपा है, इसके स्वरूप में वे ताबीज- टोटका, मन्नत-मुरादे करते हैं।
किताब में मुसलमान की समाज रचना पर विस्तारित बहस की गई है। २०० साल पुराने ऐतिहासिक संदर्भ को जोड़कर नया नजरिया पेश किया है। इस तरह भारतीय मुसलमान की संस्कृति पर भी काफी अहम बहस की है। ब्राह्मणी संस्कृति का अतिवाद और भाषा शुद्ध की मानसिकता को मुस्लिम संस्कृति पर हावी करने और उसको धार्मिक पहचान देने की बात कही है। बेन्नूर का दावा हैं की, मुस्लिम संस्कृति कोई अलग संस्कृति नहीं है बल्कि भारतीय परंपरा से निकली संस्कृति है जिसमें इस्लाम का कोई दखल नहीं है।
बेन्नूर के मुताबिक भारतीय इस्लाम lived Islam है। भारत की बहूधर्मीयता, सभ्यता तथा परंपराओं को लेकर आगे बढ़ा है। उन्होंने खान पान, रहन-सहन, मोहल्ले-बस्ती, तालीम, दरिद्रता आदि द्वारा बनता मानस को भी संस्कृति का ही हिस्सा माना है।
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किताब में मानसिकता के जटिलता को अभी विस्तारित विमर्श दिया गया है। दक्षिणपंथी ताकत है और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उभरते आंदोलन में पिसता मुस्लिम और उसका जीवन दर्शाया गया है। किताब का अहम पहलू भारतीय मुसलमान की आज की दशा है। जिसमें राजनीति से लेकर मुसलमान की आर्थिक, समाजी और सांस्कृतिक रूपरेखा पेश की गई है।
बाबरी के बाद बदलते हालात, राम जन्मभूमि आंदोलन, गुजरात दंगा आदि द्वारा मुसलमानों का दानवीकरण हुआ इसके स्वरूप में आने वाले ३० साल की सियासत चली। बेन्नूर ने दंगों को दक्षिणपंथी सियासत का एक अहम हथियार माना है। दंगों के जरिए मुसलमानों को आर्थिक रूप से बर्बाद करना, उन्हें निहत्था करना, उनके मोरल को खत्म करना, उनके सकारात्मक सोच को बर्बाद करना आदि सियासत पर विस्तृत बहस की है।
किताब में चरमपंथ के नाम पर होती सियासत को भी प्रमुखता से दर्शाया गया है। गुजरात दंगों के बाद आतंकवाद का नाम लेकर मुसलमान के खिलाफ जो मुहिम चलाई गई उसका सामाजिक दर्शन बेन्नूर ने किताब में पेश किया है। साथ ही इसके ब्राह्मणी सियासत पर काफी महत्वपूर्ण बहस की हैं। आतंकवाद के नाम पर खड़ी हुई मार्केट इकोनामी को भी नंगा किया है।
किताब में अफगान-इराक जंग तक के घटनाक्रम को उकेरा हैं। अरब पेट्रो-डॉलर, जियोनिस्ट सियासत, अमरीकन साम्राज्यशाही, जिहाद और उसकी कथित सियासत को भी किताब में जगह मिली हैं।
एक बेहतरीन किताब को हिंदी पाठकों तक पहुचाने के लिए प्रा. रणसुभे सर का बेहद शुक्रिया...
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नाम : भारतीय मुसलमानों की समाज संरचना और मानसिकता
भाषा : हिंदी
लेखक : प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर
अनुवादक : डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे
प्रकाशन : लोकभारती
पन्ने : २३०
कीमत : ३५०
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कलीम अज़ीम, पुणे
मेल: kalimazim2@gmail.com
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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com