तरक्कीपसंद तहरीक का मुकम्मल खाका

 

भारत देश इन दिनों अपने आज़ादी का अमृत महोत्सवमना रहा हैं। जिसके लिए देशभर में कई सामाजिक सांस्कृतिक तथा राजकीय कार्यकलापो की घोषणा की जा चुकी हैं। उसी तरह आए दिन इसे लेकर समारोह भी हो रहे हैं। अखबार, पत्रिका तथा वेबसाइटों पर विशेष लेख लिखे, लिखवाए और छपवाए जा रहे हैं। नये नये संशोधनों पर किताबे छप रही हैं। इसी कड़ी में लेखक-पत्रकार जनाब ज़ाहिद ख़ान अपनी नई किताब तरक्कीपसंद तहरीक के रहगुजरलेकर आए हैं।

यह किताब कई मायनों मे खास कही जा सकती हैं। वैसे यह उनकी पिछली किताब तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफरकी दुसरी जिल्द हैं। जिसमें प्रगतिशील अदबी दुनिया तथा संस्कृतकर्मीयो पर व्यक्तिचरित्र या फिर उर्दू में खाके कहीए, शामील हैं। वतन के जंग ए आज़ादीका गौरवशाली इतिहास तथा उस आंदोलन को दिशा देनेवाले प्रगतिशील लेखक संघजैसे साहित्य आंदोलन का तमाम इतिहास इन दो किताबों मे समाया हैं। जिसे लेखक ने अपने शैली से और भी बेहतर बना दिया हैं।

प्रगतिशील लेखक संघकी रुपरेषा जंग ए आजादी के आंदोलन के रूप में रखी गई थी, जिसका एक और मकसद परंपरावादी भारतीय समाज में सामाजिक तथा सांस्कृतिक बदलाव लाना भी था। अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए इन सेकडों अदीब, मुसन्निफ और संस्कृतकर्मीयो ने अपनी सांस से भी ज्यादा इस आंदोलन को महत्त्व दिया।

संयोगवश कहीए या कुछ और इस आंदोलन से जुडे काफी लोग वामपंथी विचारधारा से जुडे थे, या यूँ कहीए इस आंदोलन ने वामपंथी राजनीतिक विचारधारा को देशभर ले जाने का काम किया। आनेवाले कुछ महिनों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टीअपने स्थापना के 100 साल पूर करने जा रही हैं, इस संयोग से ज़ाहिद खान के इन दोनों किताबों का महत्त्व बढ़ जाता हैं। 

किताब की भूमिका के बारे में लेखक कहते हैं, तरकी पसंद तहरीक की रहगुजर को लाने का मकसद तरक्की पसंद तहरीक के माज़ी और उसकी सुनहरी यादों से एक बार फिर से सभी को वाबस्ता कराना है। खासतौर पर हमारी नई पीढ़ी को उन अजीबों, शायरों और संस्कृतिकर्मियों से तआरुफ कराना है, जो न सिर्फ नए मुल्क की तामीर में सबसे आगे रहे, बल्कि हमारे अदब और आर्ट की धारा को बदलने में भी उन्होंने अपना अहम रोल अदा किया। अंग्रेजी हुकूमत के लाख दमन के बाद भी उन्होंने कभी अपने विचारों से समझौता नहीं किया।

अंजूमन तरक्की-पसंद मुसन्निफीन अपने शुरुआती दौर से ही देश के हर प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यिक तथा कवियों का जुड़ाव रहा। मराठी के साथ, हिंदी, तमिल, पंजाबी, गुजराती, बंगाली, कन्नड - अमूमन हर जुबान के लिखनेवाले इस आंदोलन से जुड़ते रहे।

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इस आंदोलन ने कई सामाजिक तथा राजनैतिक पुन:जागरण किए। इन्सानी सोच-विचार में कई अहम बदलाव लाए। राजनैतिक, सामाजिक बदलाव ही नहीं बल्कि मानवीय रिश्ते, उसको देखने का नजरिया, उसके प्रति व्यवहार, फेमिनिज्म, महिलाओं के लिए समान हकों का मुतालबा किया। इतना ही नही समाज में लिबरल तथा आधुनिक विचारों की नींव रख दी, जो अपने अल्प समय में एक क्रांतिकारी विचार बनकर उभरा। रुढिवादिता और परंपरागत विचारों को दरकिनार कर आधुनिक विचारों का बीजारोपण किया, जिसकी फसल का जाय़का आज हम सब ले रहे हैं।

यह आंदोलन आज़ादी के आंदोलन के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। जिसनें बरतानवी सरकार के जड़ो को हिला कर रख दिया। ज़ाहिद लिखते हैं, यह आंदोलन आहिस्ता आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैलता चला गया। हर भाषा में नए सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया, इन आंदोलनों का आखरी उद्देश्य देश की स्वतंत्रता था।

आगे लिखते हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के लोकप्रियता देश के सभी राज्यों के लेखकों के बीच थी। इस आंदोलन में लेखकों का शामिल होना प्रगतिशीलता की पहचान मानी जाती थी। आंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद व हर तरह की धर्मांधता का विरोध किया, तो वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही व आंतरिक सामाजिक रुढनरुपी दोहरे दुश्मनों से भी टक्कर ली। एक समय जब ऐसा आया उर्दू के सभी साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के झंडे तले थे। (पेज-15-16)

ब्रिटिशों के शोषण पर आधारित अनियंत्रित राजसत्ता तथा शासन से अवाम को रिहाई दिलवाना इस आंदोलन का अहम मकसद था। स्वाधीनता के बाद भी इसका असर देखते बनता था गरीबी, भुखमरी, सामंती व्यवस्था के शोषण के खिलाफ, जातियता, रुढीवादिता और वर्ण आधारित समाजी भेदभाव इस तरह के हर एक परिप्रेक्ष्य को इसने रेखांकित किया हैं

जब मुल्क का बंटवारा हुआ तो, जाहिर हैं, यह संघठन भी दो हिस्सो में बंट गया। अवाम, मजदूरो और मेहनकश इन्सानों के हक में अपनी आवाज बुलंद करता रहा। इस आंदोलन के उद्देश को लेकर साहिर लुधियानवी एक जगह लिखते हैं, “…हम केवल इस डर के मारे हुए हैं कि अवामी क्रांति जहां बरतानिया के शासन को खत्म करेंगी, वहां इन सियासी दलों के समर्थक पूंजीपति और जागीरदार वर्गों को स्वार्थों को भी खतरे में डाल देंगी और आज भी जब कि हिंदोस्ताँ और पाकिस्तान के आजाद देश के वजूद में आ चुके हैं, क्या अवाम और हुकूमत के हितों में परस्पर विरोध नहीं है? क्या आज राष्ट्र की मजबूती और खुशहाली का यह तकाजा नही हैं कि किसानों की दासता से मुक्ती दिलायी जाए और देश के उद्योगो का राष्ट्रीयकरण करके मजदूरो को भूखों मरने से बचाया जाए?” (पेज- 112, नया पथ, अप्रेल-जून 2021)

संघठन से जुड़े तमाम लोग देश की अवाम को चिंतामुक्त और खुशहाल देखना चाहते थे। जिसके बारे में साहिर लिखते हैं, अंजूमन तरक्की-पसंद मुसन्निफीन अपना रास्ता चुन चुकी हैं और अपने घोषणापत्र में साफ तौर पर कह चुकी हें कि उसकी वफदारी अपने देश के अवाम के साथ हैं।यहीं वजह रही की, आज़ादी के बाद भी यह साहित्यिक सरकार के साथ जमींदार, महाजन तथा सरमायदारों के खिलाफ कलम चलाते रहे।

बकौल लेखक इन तरक्की पसंद अदिबों ने वक्त बवक्त अपनी ही सरकारों के खिलाफ लोहा लिया हैं। जिसे लेकर साहिर लिखते हैं, हुकूमत की पॉलिसी जब और जहां कहीं भी जम्हूरी हितों से टकराएंगी - और अच्छी हुकूमत की पॉलिसी को कभी और कहीं भी जम्हूरी हितों से नहीं टकराना चाहिए - तरक्की पसंद अदीब अपनी पूरी ताकत के साथ ऐसी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाएंगे। (पेज- 112, नया पथ, अप्रेल-जून 2021)

यहां साहिर का कथन प्रातिनिधिक हैं, इस तरह कई साहित्यकारों की भूमिका लेखक किताब में जगह-जगह बिखेरते नजर आते हैं। लेखक की माने तो तरक्की पसंद अंजमून का दौर - यह वह दौर था जब इन साहित्यकारों को नए दौर का रहनुमा समझा जाता था। लेखक की ये दोनों किताबें प्रगतीशील साहित्य की व्याख्या ही नही करती बल्की पाठकों आधुनिक सोच रखने वालें साहित्यिक तथा क्रांतिकारी साहित्य की पहचान भी कराती हैं।

प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने और उस को परवान चढ़ाने में उर्दू अदब बड़ा योगदान है। अपने शुरुआती दौर प्रगतिशील साहित्य आंदोलन में मूल रुप से उर्दूभाषी लेखक, साहित्यिक बड़े पैमाने पर मौजूद थे। उन दिनों उर्दू देश की ज्ञानभाषा ही नही बल्कि एक बड़ी लोकभाषा, व्यवहारभाषा हुआ करती थी। उर्दू की ज्ञानसंपदा की गूंज विश्वभर में होती थी। अक्तूबर यानी बोल्शेविक क्रांति के बाद उर्दू ने यूरोप पर अपना कब्जा जमा दिया था।

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सोवियत युनियन में हो रहे हर तरह के बदलाव को उर्दू साहित्य ने जगह दी। बतौर लेखक उर्दू के कई, अदीब, साहित्यकार तथा लेखक सोवियत की अलग-अलग प्रादेशिक भाषाओ से अवगत थे। कईयों ने सालों वहां रहकर उनकी भाषा सिखी थी। इतना ही नहीं वहां का लोकसाहित्य तथा लोकसंस्कृती को उर्दू साहित्य का अहम हिस्सा भी बनाया।

ऐतिहासिक किताबों पर नजर ड़ाले तो पता चलता है की, उर्दू साहित्य अपने शुरुआती दौर से मानवीय अस्तित्व की जड़े तलाशता और उसको मजबूती प्रदान करता रहा हैं। रंजनवादी तथा तिलिस्मी जादुई दुनिया के साथ इन्सानी बेहतरी के कलम घिसता रहा। अवामी हुकूको की हिमायत करता रहा। दुसरी ओर अंग्रेजी हुकूमत के जुल्म के खिलाफ खड़ा रहा। इसी समय जमीदारों-जहागिरदारो की सांमती व्यवस्था में दब-कुचले अवाम की आवाज बनता रहा उनके शोषण, अत्याचार, अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करता रहा। रोजाना के झिंझोडते सवाल, भूखमरी, गरिबी की आवाज बनता रहा।

तरक्की पसंद तहरीक के हमसफर और तरक्की पसंद तहरीक के रहगुजर इन दोनों किताबों में कूल मिलाकर 60 आलेख हैं। पहलें में इप्टा का रोमांचकारी सफरनामा तो दुसरे में प्रलेस के क्रांतिकारी इतिहास के अलावा बाकी व्यक्तिचरित्र हैं। दोनो किताबों को तीन-तीन विभागों में बांटा गया हैं। उर्दू अदब, हिंदी अदब तथा रंगमच। दोनों किताबों के पहले हिस्से में उर्दू के अदीबों का विस्तार से चित्रण आता हैं।

तरक्की पसंद तहरीक के हमसफर

इस में 25 व्यक्तिपर आलेख हैं, जिसमें सज्जाद जहीर, डॉ. रशीद जहाँ, कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, रजिया जहीर, फ़ैज अहमद फ़ैज, मखदूम मोहिउद्दीन, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी हैं तो दुसरे भाग में हिंदी साहित्य के प्रेमचंद, भीष्म साहनी, डॉ. कमलाप्रसाद, राही मासूम रजा, शानी, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव तथा तिसरे हिस्से में हबीब तनवीर, गीतकार शैलेंद्र, नेमीचंद जैन, ए. के. हंगल, विजय तेंडुलकर, ना.ग. बोडस इत्यादी महामहीमों की प्रोफाइलें आती हैं। साथ ही पैदाईश, तालीम, पेशा, साहित्य, रचना, भूमिका और साहित्यिक योगदान की चर्चा लेखक करते हैं। इसमें अहम 3 किताबों की समीक्षा और एक फिल्म रिव्यू भी हैं।

इस किताब का पहला आलेख सज्जाद जहीर पर हैं। जो इस संघठन के संस्थापक रहे हैं। 5 नवम्बर, 1905 को लखनऊ में जन्में सज्जाद जहीर सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए वे अवाम में बेदारी लाना चाहते थे। उनका मानना था कि अवाम में सियासी, समाजी जागरूकता और सांस्कृतिक सजगता पैदा करके ही उन्हें अपनी आजादी, हक और हुकूक को हासिल करने के लिए प्रेरित किया जा सकता हैं। उनका साफ-साफ कहना था कि देश की आजादी में लेखक, संस्कृतिकर्मी ही एक अहम भूमिका निभा सकते हैं। जिसके लिए उन्होंने ब्रिटेन में तालीम हासिल करते हुए 1935 मेंअंजूमन तरक्की-पसंद मुसन्निफीनकी नींव रखी।

बकौल लेखक जब जहीर लंदन में तालीम ले रहे थे, वह दुनियावी ऐतबार से बदलाव के साल थे। साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था। पहली आलमी जंग के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही थी। जर्मनी, इटली में क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फासिज्म का खतरा मंडरा रहा था।

खान लिखते हैं, उन्हीं दिनों जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर दिमित्रोव के मुकदमे, फ्रांस के मजदूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाकामयाब मजदूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नये युग का आगाज हुआ। चुनांचे साल 1933 में प्रसिद्ध फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ्रांस में लेखक, कलाकारों का फासिज्म के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बना। जो बाद में आगे चलकर पॉपुलर फ्रंट (जन मोर्चा) के रूप में तब्दील हो गया। इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार शामिल थे। लेखक, कलाकारों के इस मोर्चे को जनता की बड़ी तादाद की हिमायत हासिल थी। विश्व परिदृश्य की इन सब घटनाओं ने सज्जाद जहीर को अंदर तक प्रभावित किया। जिसका सबब लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी। आगे चलकर उन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया।

इस आलेख में लेखक ने संघठन की भूमिका और विकास पर विस्तार से रेखांकित किया हैं। लिखते हैं, लंदन से भारत लौटते ही उन्होंने सबसे पहले साल 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस लखनऊ में आयोजित की। इस कॉफ्रेंस की सदारत मुंशी प्रेमचंद ने की। सज्जाद जहीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गये।

इस संघठन को लोकप्रिय बनाने में शुरुआती दौर में प्रसिद्ध विद्रोही लेखिका डॉ. रशीद जहाँ ने उनका साथ दिया। जहीर के साथ देशभर दौरे कर उन्होंने कई जाने-माने साहित्यकारों को इस अंजूमन से जोड़ा। एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ बैनर तले थे।

फैज़ अहमद फैज़, अली सरदार जाफरी, मजाज़, कृश्न चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुगताई, महेन्द्रनाथ, साहिर लुधियानवी, मोहानी, उपेन्द्र नाथ अश्क, सिब्ते हसन, जोश मलीहाबादी, सागर निजामी जैसे कई नाम तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर बने।

अपने राजनैतिक, सांस्कृतिक आंदोलन के दौरान सज्जाद जहीर को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भड़काऊ लेखन व तकरीर देने के जुर्म में कई मर्तबा जेल हुई। अपनी सजा और कैद के बाजूद वे अलग-अलग नामों से अखबारों के लिए वे लगातार लिखते रहे।

अपनी शुरुआती जिंदगी में सज्जाद जहीर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य भी रहे। इलाहाबाद शहर की कांग्रेस कमेटी के महासचिव होकर उन्होंने नेहरू के साथ में काम किया। बकौल लेखक सज्जाद जहीर में रचनात्मक, संगठनात्मक गुण अद्भुत थे। अपने संगठनात्मक कौशल से ही उन्होंने कांग्रेस सोशालिस्ट पार्टीऔर ऑल इंडिया किसान सभाजैसी किसानों व मजदूरों की जबरदस्त संस्थाएं बना

लेखक की माने तो सज्जाद जहीर काँग्रेस सोशालिस्ट पार्टी और ऑल इंडिया किसान सभा के संस्थापक थे। पर आज इस संस्थापक को कितने लोग जानते हैं? आगे चलकर सज्जाद जहीर वामपंथी आंदोलन से जुड़े। पार्टी के अखबार कौमी जंगऔर नया ज़मानामें उन्होंने प्रधान संपादक की हैसियत से सेवा भी दी विभाजन के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के विस्तार के लिए आलाकमान नें उन्हें पाकिस्तान भेजा। सज्जाद बिवी-बच्चों को छोड़कर सीमा पार गए।

वहां उन्हें फैज अहमद फैज के साथ साल 1951 में रावलपिंडी कॉन्सपरंसी केस (लियाकत अली खान का तख्तापलट) में कैद कर फांसी की सजा सुनाई गई। उन्होंने पाकिस्तान की जेलों में कैद की हालत में अनमोल किताबें लिखी। .ह अलग बात हैं की, बाद में अंतरराष्ट्रीय दवाब और नेहरू के कोशिशो के चलते उन्हें रिहा किया गया। जिसके बाद वे अपने वतन भारत लौटे।

अपने अंतिम समय तक वे प्रगतिशील लेखक संघ को बढाने और सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष करते रहे। आगे चलकर उन्होंने रौशनाई - तरक्कीपसंद तहरीक की यादेंनाम की मशहूर किताब लिखी जिसमें प्रगतीशील लेखक संघठन का सारा इतिहास मिलत हैं। यह संघ का अकेला दस्तावेज नहीं है, बल्कि मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और उस वक्त के सियासी, समाजी हालात का मुकम्मल खाका हमारी नजरों के सामने पेश करती है।

जाहिद खान की किताब तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर में सज्जाद जहीर की बेगम और प्रसिद्ध कहानीकार रजिया जहीर पर भी एक महत्त्वपूर्ण आलेख हैं। जो खाविंद के बिना मुंबई में अकेले रहते हुए किए गए पारिवारीक संघर्ष को दर्शाता हैं। साथ ही साथ अपने मकसदी लेखन से भी वह उर्दू साहित्य में नये-नये अयाम स्थापित करती रही।

दुसरा आलेख रशीद जहाँ पर हैं, जो सिर्फ बाग़ी कहानीकार ही नही थी, बल्की एक पेशेवर डॉक्टर, सम्पादिका, पत्रकार और फेमिनिस्ट संघटक भी थी। बकौल लेखक रशीद जहाँ का सारा जीवन प्रगतिशील लेखक संघ के लिए समर्पित था। एक तरह यह अंजूमन उनकी संतान था जिसके लिए उन्होंने अपनी कोई औलाद होने नही दी। उनकी लिखी कहानियों ने उस समय के उर्दू साहित्य में बवाल खड़ा कर दिया था। यहां तक की परंपरावादियों ने उनके खिलाफ आंदोलन खड़े किये। जवाब में सरकार को उनकी लिखी कहानियों पर पाबंदी लगानी पड़ी।

रशीद जहाँ के बारे में यू कहे तो बुरा न होगा की, भारतीय साहित्य तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में फेमिनिस्ट विचारधारा को लाने वाली वे पहली शख्सियत थी। इस्मत चुगताई ने रशीद जहाँ को आदर्श मानकर अपना लिखना जारी रखा। इस्मत जैसे बाग़ी तेवर की महिला साहित्य जगत में आने का श्रेय भी रशीद जहाँ को जाता हैं। इस्मत आज भी साहित्य चर्चा में विराजमान हैं, जबकी रशीद जहाँ का नाम गिने-चुने लोगों के जुबान पर ही आता हैं।

किताब में इस्मत का आलेख काफी महत्वपूर्ण हैं। भारतीय आलोचको ने उन्हें फहाश यानी अश्लिल लेखिका का तमगा दिया हैं। पर इस्मत ने कभी भी मशहूर होने के लिए नहीं लिखा। बकौल इस्मत, मेरी कलम कभी मेरा रोज़ी का ज़रिया नही रही। बाजार नें उनकी एक ही प्रतिमा को बनाये रखी, यहीं वजह हैं की, आज पब्लिकेशन मार्केट में सेक्युअल डिझायर इस्मत को बेचने का यूएसपी हैं। उनकी कई कहानियां सामाजिक और राजनैतिक हैं, जो दुर्लक्षित हैं। इतना ही नही वह एक गंभीर लेखिका भी थी। जब वह अपने लेखों से ब्रिटिश हुकूमत हमला करती थी और सामाजिक रुढिवादिता पर कोड़े चलवाती थी, तब उन्हें कोई नही पहचानता था।

मगर जबसे उन्होंने स्त्री विमर्श को अपनी कहानियों के माध्यम से मुख्याधारा में लाया और परंपरावादीयों ने उनपर हमले करने शुरू किये तबसे वह विवादित लेखिका बनी। तरक्की पसंद अदब पर चर्चा करते हुए उन्होंने एक जगह लिखा हैं, तब से जब से मैं लिख रही हूँ, मैंने अपने बुजुर्गों को अपना असल दुश्मन माना हैं। मैंने तय किया कि मैं अपने आपको उनके पंजे से छुड़ाउंगी। मैंने सभी अवरोधो को कोशिश की जिससे मैं अपने घर की चारदिवारी के भीतर घुटती थी। मैंने अपने कहानियों में ऐसे स्त्री चरित्रों को पेश किया जिसने समाज की चारदिवारी के भीतर घुटती थी। (नया पथ, इस्मत विशेषांक, जुलाई-2016-मार्च 2017).

इस्मत फिल्मी कहानियां भी लिखती थी, बहुत कम लोगो को पता होगा की, देव आनंद का फिल्मी करीअर चमकाने वाली इस्मत थी। मुंबई सेंट्रल रेल्वे स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में वे खड़े देव आनंद पर इस्मत और उनके पती की नजर पड़ी। उस दिन रेलवे स्टेशन पर इस्मत चुगताई और उनके फिल्मकार पती शाहिद लतीफ किसी मेहमान को छोड़ने आये हुए थे। पुछताछ पर पता चला की, असफलता से उकता कर देव घर गुरुदासपूर लौट रहे थे। तब तक वे कुछ फिल्में कर चुके थे। पर कोई अच्छी फिल्म अब तक हाथ नहीं लगी थी।

मुंबई के मशहूर फिल्मी पत्रकार इसाक मुजावर देव चरित्र में लिखते, दिनों शाहिद लतीफ जिद्दी का डिरेक्शन कर रहे थे। उसके हिरो अशोक कुमार थे। उन्हें लगा कि तीन फिल्में करने के बाद देव का इस तरह जाना गलत हैं। बहरहाल उन्होंने देव को रोक दिया। देव ने भी सोंचा की इतने बुरे दिन काटे हैं, चलो और दो-तीन दिन ही सही। दरअसल जिद्दी के हिरो अशोक कुमार थे। शाहिद लतीफ नें उन्हें मनवाया और देव के लिए फिल्म छ़ोडने के लिए कहा। 

मुजावर आगे लिखते हैं, “दादामुनी बड़े दिल के थे, उन्होंने देव को बतौर हिरो जिद्दी के लिए हामी भर दी।और इस तरह देव जिद्दी के लीड़ हिरो बने। आगे का इतिहास आपको पता हैं। इस्मत कि लिखी जिद्दी से देव को असल पहचान मिली और वे बतौर हिरो के रुप में पहचाने जाने लगे। खैर।

बतौर लेखक इस्मत की लिखी कहानियों पर उर्दू के मशहूर लेखकों आलोचना की हैं। कई दफा उनपर मुकदमें भी दायर किए गये। मगर अपने मकसदी लेखन से वे कदापि दूर नही हटी। उनके जैसी ही कहानी सआदत हसन मंटो की हैं। बाजार ने उन्हें भी अश्लिल कहानीकार के रूप में पेश किया हैं। मगर मंटो की माने तो वह फहाश नही थे बल्कि समाज में छिपा नंगा सच लोगों के सामने रखते थे। उन्होंने कई बार कहां हैं, समाज अपना नंगा चेहरा देखना नही चाहता। लेखक ने मंटो की कहानियां पर बड़ा तवील डिक्सशन किया हैं। साथ ही उनके त्रासदी पर भी विमर्श किया हैं। उनकी कहानी टोबा टेक सिंह पर समीक्षा किताब का विशेष आकर्षण हैं।

ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी, साहिर, मखदूम मोहियोद्दीन पर लिखे आलेख काही मायनों में खास कहे जा सकते हैं। किताब में साहिर और शैलेंद्र को जाहिद खान ने साहित्यिक के रूप में पेश किया हैं। जो एक तरफ काफी रोचक हैं तो दुसरी ओर इन पात्रों के बारे में अनमोल जानकारी पाठकों को उपलब्ध कराते हैं।

इन में काफी शायरों ने बाद में फिल्मी दुनिया में कदम रखा, पर उनके पहले के जिंदगी के बारे में काफी कम जानकारी मिलती हैं, पर लेखक ने उन सभी के उन दिनों की बहुत रोचक जानकारी इकट्ठा की हैं। और बाद में उनके फिल्मी सफर पर रोशनी डाली हैं।

किताब में ख्वाजा अहमद अब्बास का हरफनमौला व्यक्तिचरित्र काफी रोचक हैं। लेखक ने उन्हें एक कलमकार, पत्रकार, पब्लिसिस्ट, पटकथाकार, निर्माता जैसे स्वतंत्र शख्सियतो के रूप में पेश किया हैं। कैफी और फैज को लोकशायर के रूप में पेश किया हैं। फैज वह अलमतरीन शायर थे, जिन्हें दुनियाभर में लोकप्रियता हासील थी। उनका खाका पाठकों को काफी जानकारी देता हैं। साथ ही उनकी मकबूलीयत का विश्लेषण भी करता हैं। लेखक की माने तो बंबईया सिने इंडस्ट्री में यथार्थवादी सिनेमा (Cinematic Realism) की नींव रखने वाले अब्बास ही थे।

हिंदी के प्रेमचंद, राही मासूम रज़ा, भीष्म साहनी को लेकर किताब अपनी दुसरे हिस्से वे प्रवेश करती हैं। तिसरा भाग इप्टा के नाट्यकर्मियो पर फोकस किया हैं। जिसमे शैलेंद्र का लेख काफी रोचक हैं। साथ ही हबीब तनवीर, विजय तेंडुलकर, नेमिचंद जैन इत्यादी रंगकर्मियो पर विस्तार से लिखा हैं। लेखक ने इप्टा के इतिहास को काफी रोचकता से लिखा हैं।

बकौल लेखक, साल 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। इस अकाल में तकरीबन तीस लाख लोग भूख से मारे गए। वह तब, जब देश में अनाज की कोई कमी नहीं थी। गोदाम भरे पड़े हुए थे, लेकिन लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था। ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात में बंगाल अकाल पीड़ितों के लिए राहत जुटाने के वास्ते खुद देशवासी आगे आए और उन्होंने बंगाल कल्चरल स्कवॉडस्थापित किया। इस सांस्कृतिक दल ने बंगाल में घूम-घूमकर अपने नाटक जबानबंदीऔर नबान्नके जरिए अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया। बंगाल कल्चरल स्कवॉडके इन नाटकों की लोकप्रियता ने ही इप्टा के स्थापना (1943) की प्रेरणा दी।मुंबई में  बकायदा इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशनका गठन हुआ।

आगे लिखते हैं, आलम यह था कि अपने शुरुआती दौर में इप्टा, सिर्फ परफार्मिंग आर्ट का एक प्लेटफार्म होकर, उसने एक तहरीक की शक्ल इख्तियार कर ली थी। उस दौर में इप्टा एक ऐसी संस्था बनी, जो सीधे तौर पर अवाम से जुड़ी और अवाम को भी अपने साथ जोड़ा। ...इप्टा ने अपने जन गीतों और नाटकों को देशवासियों की आवाज़ बनाया। जन गीतों और नाटकों के जरिए समाज को जागृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लेखक की माने तो इप्टा का नामकरण मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया था, तो वहीं उस का प्रतीक चिन्ह कॉल आफ ड्रम्सप्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद ने बनाया था। संगठन का नारा बना, इप्टा की नायक जनता है, था

लिखते हैं, इतिहास गवाह है, आगे चलकर इप्टा अपने इस एलान पर पूरी तरह से खरा उतरा। इप्टा का जन्म वैसे तो अंग्रेजी हुकूमत और फासिस्ट ताकतों के विरोध में हुआ था, लेकिन देखते-देखते उसने एक जन आंदोलन का रूप ले लिया। इप्टा एक ऐसा अज़ी आंदोलन बना जिसने पूरे मुल्क में सिर्फ लोक कलाओं की परिवर्तनकारी ताकत को पहचाना बल्कि मेहनतकश अवाम को भी इससे जोड़ा।

तरक्की पसंद तहरीक के रहगुजर

पहले की तरह प्रगतीशील सिरीज का दुसरा भाग भी काफी अहम हैं। इस के भी तीन हिस्से हैं। जिसमें पहला उर्दू तो दुसरा हिन्दी जबकि तिसरा इप्टा के संस्कृतिकर्मीयों पर हैं। उर्दू में हसरत मोहानी, फ़िराक़ गोरखपुरी, अली सरदार जाफ़री, असरार-उल-हक़ मजाज़, मुईन अहसन जज्बी, वामिक जौनपुरी, जोश मलीहाबादी, मजरूह सुल्तानपुरी, एहसान दानिश, सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी, जोय अंसारी, गुलाम रब्बानी ताबां, अहमद नदीम क़ासमी, मुज्तबा हुसैन के कार्यकलापों पर विस्तार से चर्चा की गई हैं।

हिंदी के यशपाल, रांगेय राघव, नरेंद्र शर्मा, नामवर सिंह, खगेंद्र ठाकुर, चंद्रकांत देवताले पर विशेष आलेख हैं। इसी के साथ इप्टा के मुल्कराज आनंद, बलराज साहनी, शौकत कैफी, प्रेम धवन, राजेंद्र रघुवंशी आदी व्यक्तिचरित्रों के बाद आखरी हिस्सा मुकम्मल होता हैं।

किताब का पहला अध्याय प्रगतिशील लेखक संघ के इतिहास पर हैं। पहली किताब में सज्जाद जहीर के आलेख में संघठन का ऐतिहासिक सफर आता हैं। पर लेखक ने नये पाठको को ध्यान में रखते हुए दुसरी जिल्द में उसे फिर से अलग तरह लिखा हैं।

लिखते हैं, प्रगतिशील ंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद हर तरह की धर्मांधता की मुखालफत की, तो वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही आंतरिक सामाजिक रूढ़न रूपी दोहरे दुश्मनों से भी टक्कर ली।

बकौल लेखक, तरक्कीपसंद तहरीक को जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, रवींद्रनाथ टैगोर, अल्लामा इकबाल, खान अब्दुल गफ्फार खान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी। वे भी इन लेखकों के लेखन एवं काम से बेहद मुतास्सिर और पूरी तरह से मुतमईन थे। 10 अप्रेल 1936  में लखनऊ के मशहूर रफा--आमक्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ। इसके अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचंद कहते हैं, अब साहित्य केवल मन-बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता, किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हें हल करता है।

प्रेमचंद आगे कहते हैं, साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव होता, तो शायद वह साहित्यकार ही होता। उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है।

प्रेमचंद का यह पुरा भाषण कई किताबों तथा वेबसाइटों पर छप चुका हैं, जो लिबरल और आधुनिकता का पुरस्कार करने वाले साहित्यकारों को जरूर पढ़ना चाहीए।

क्रांतिकारी सोच रखने वाले आज़ादी के सिपाही हसरत मोहानी का आलेख दूसरे नंबर पर हैं। लेखक की माने तो हसरत का वास्तविक नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था। मोहान कस्बे में पैदा होने की वजह से उनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और बाद में हसरत मोहानीके नाम से ही मशहूर हो गए।

असल में हसरत उनका तखल्लूस था, उनकी उन दिनों इतनी पसंद की जानी लगी की, इसलिए आगे चलकर वे इसी नाम से ही मशहूर हुए। बकौल लेखक, “मोहानी पढ़ाई के साथ-साथ आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लेने लगे। जहां भी कोई आंदोलन होता, वे उसमें पेश-पेश रहते। इंकलाबी विचारधारा की वजह से कई बार वे कॉलेज से निष्कासित हुए, लेकिन उनक दीवानगी कम नहीं हुई।

अलीगड़ कॉलेज से निकाले जाने के बाद रोजी-रोटी के लिए उन्होंने अपना अखबार उर्दू ए मुअल्लानिकाला। उन्होंने सारी जिन्दगी मुफलीसी में काटी, पर कभी बरतानिया सरकार की गुलामी कबूल नही की। बताता चलू की अफ्रिका से महात्मा गांधी भारत आकर स्वदेसी आंदोलन का प्रचार करने के पहले से मोहानी स्वदेशी और खादी के आंदोलन से जुड़े थे।

मोहानी शुरू से प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। अपने अखबार में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, इंकलाबी शायरों की क्रांतिकारी गजलों-नज्मों को तरजीह दी, जिसकी वजह से वे अंग्रेज सरकार की आंखों में खटकने लगे। सरकार द्वारा उनका अखबार बंद किये जाने के बाद मोहानी ने अपनी बेगम निशात उन निसा के साथ स्वदेशी वस्तुओ का स्टोर चलाया और खद्दर का प्रचार किया।

मोहानी खुद को कॉमरेड मौलाना मानते थे। बतौर लेखक मोहानी के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास थे। एक तरफ वे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडियाकी कायमगी में पेश-पेश रहे, तो दूसरी ओर ऑल इंडिया मुस्लिम लीगऔर जमीयत उलेमा हिंदके भी संस्थापक सदस्य रहे। यहां तक कि मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन की अध्यक्षता की और आज़ादी से पहले मुस्लिम लीग के टिकट पर असेंबली चुनाव भी जीते।

मोहानी ने 1921 में सबसे पहले काँग्रेस अधिवेशन में संपूर्ण स्वराज नारा दिया था और बिना शर्त मुकम्मल आज़ादी की बात रखी थी। इतिहास गवाह हैं की, शुरू में यह बात गांधीजी को भी नागवार गुजरी पर जब आठ साल बाद 1929 में नेहरू ने यहीं बात कही तो गांधीजी ने इसे तुरुंत स्वीकार कर लिया। इंकलाब जिंदाबाद की घोषणा देनेवाले मोहानी ही थे। इसी घोषणा बाद में भगतसिंह जैसे क्रांतिकारकों ने एक अलग मुकाम दिया।

किताब में अगला लेख जोश मलीहाबादी के क्रांतिकारी सोच को दर्शाता हैं। लेखक की माने तो, इंकलाब और बगावत में डूबी हुई जोश की गजलें-नज्में, जंग--ज़ादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं। वे आंदोलित हो उठते थे। यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंकलाबी गजलों-नज्मों के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपना मिजाज और रहगुजर नहीं बदली।

यह आलेख जोश के पाकिस्तान चले जाने की मीमांसा भी करता हैं। लिखते है, मलीहाबादी के दिल में यह बात बैठ गई कि भारत में उनके बच्चों और उर्दू जुबान का कोई मुस्तकबिल नहीं है। अपनी इस उलझन को लेकर वे मौलाना आज़ा के पास पहुंचे और उनसे इस संबंध में राय मांगी। तो उनका जवाब था, .....नेहरू के बाद आपका यहां कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। आप तो आप, खुद मुझे कोई नहीं पूछेगा। फिर भी उन्होंने उनसे पंडित नेहरू से मिलकर, अपना आखिरी फैसला लेने की बात की।

नेहरू ने जब जोश की पूरी बात सुनी, तो वे बेहद गमगीन हो गए और उन्होंने उनसे इस मसले पर सोचने के लिए दो दिन की मोहलत मांगी। दो दिन के बाद उन्होंने जोश से कहा, ..आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने आप पाकिस्तान में ठहर कर उर्दू की खिदमत कर आया करें। सरकारे-हिंद आपको पूरी तनख्वाह पर हर साल चार महीने की रुखसत दे दिया करेगी।

खान लिखते हैं, नेहरू का यह बड़ा दिल था, जो अपने दोस्त और मुल्क के महबूब शायर को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे, लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों और वहां उनके चाहने वालों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने जोश से एक मुल्क चुनने को कहा और इस तरह से साल 1955 में जोश मलीहाबादी मजबूरी में पाकिस्तानी हो गए।

जोश पाकिस्तान जरूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा। जिस सुनहरे मुस्तकबिल के लिए उन्होंने अपना वतन छोड़ा था, वह ख्वाब चंद दिनों में ही टूट गया। भारत छोड़ने का फैसला चूंकि खुद जोश का था, लिहाजा वे खामोश रहे। घुट-घुट के जिये, मगर किसी से शिकवा किया। वे चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क को कभी नहीं भुला पाए।

वामिक जौनपुरी के क्रांतिकारी कारनामों की चर्चा करता और इप्टा के स्थापना की पार्श्वभूमी में उनका रोल क्यो महत्त्वपूर्ण हैं, इसकी चर्चा किताब में खान करते हैं। ज्ञानपीठ विजेता अली सरदार जाफरी और जोय अन्सारी का खाका किताब का विशेष आकर्षण कहा जा सकता हैं। लेखक अंसारी को वामपंथी विचारधारा और रुसी साहित्य को उर्दू अदब में सबसे पहले लाने का सारा श्रेय देते हैं।

बकौल लेखक, सरदार जाफरी सियासी और समाजी मसलों को यथार्थवादी नज़रिए से देखते थे दुनिया भर के बदलते हालातों पर उनकी पैनी नज़र रहती थी। लिहाज़ा कहीं पर भी कुछ ग़लत होता, किसी के साथ नाइंसाफी और जुल्म होता उनकी कलम आग उगलने लगती।

आगे लिखते हैं, उन्होंने अपनी ज़िंदगी के लिए जो उसूल तय कर रखे थे, उन पर आख़िरी दम तक चले। वे तरक्कीपसंद तहरीक के बानियों में से एक थे और आख़िरी वक़्त तक वे इस तहरीक से जुड़े रहे। मुल्क भर में तरक्कीपसंद तहरीक को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने काफ़ी कुछ किया।

किताब में दो आलेख मराठी के लोकशाहिर अमर शेख और अण्णा भाऊ साठे पर हैं। जबकि पहले भाग में सिर्फ मराठी रंगकर्मी विजय तेंडुलकर पर एक ही आलेख था। जैसे के पिछे बताया गया हैं, प्रगतीशील लेखक संघ को बढ़ाने और विस्तारित करने में देशभर के कई प्रादेशिक भाषाओ के साहित्यकारों का योगदान था। पर लेखक दोनो किताबों में विविध भाषी साहित्यकारों के साथ इन्साफ नही कर पाते। उन्होंने सिर्फ मराठी के तीन लोगों को लिया हैं। अगर देखा जाए तो प्रगतीशील लेखक संघ, प्रोग्रेसिव्ह आर्टिस्ट ग्रूप, भारतीय जन नाट्य मंच आदी संघठनो की कर्मभूमी महाराष्ट्र - मुंबई रही हैं।

इन सारे संघठनों के हर एक महफिले तथा अधिवेशनों में विविध भाषी साहित्यकारो का जमावड़ा रहता था। इस तुलना में सिर्फ मराठी के तीन लेखक काफी नही हैं। किताब में उर्दू और गिने-चुने हिंदी साहित्यकारों को न्याय मिलता हैं, मगर विविध भाषी लोग नजरअंदाज हो जाते हैं।

आज़ादी के पहले यह एक भारत का विशाल संघठन था। इसकी जड़े सारे देश में फैल चुकी थी। हर भाषी लेखक, कवि और संस्कृतिकर्मी तथा आर्टिस्ट इससे जुड़ा था। इस सुरत में इन सभी पर लिखना भी मुमकीन नहीं हैं। इनपर लिखने की दूसरी दिक्कत यह हैं की, इनपर संदर्भ साधन नहीं मिलते। लेखक दोनों किताबों की भूमिका में इस मर्यादा को स्पष्ट रूप से पाठको के सामने रखा हैं। पर अतिरिक्त संशोधन से ऐसे कई लोग मिल जाएगे जिनपर चर्चा करना लाज़मी है।

इस समीक्षा में किताब के हर एक व्यक्तिचरित्र पर लिखना मुमकीन नहीं हैं। क्योकि उससे संबंधित आलेख की लंबाई बढ़ सकती हैं। इसलिए प्रातिनिधीक रूप में कुछ को रेखांकित किया हैं।

दोनो किताबों का मिजाज एक सा हैं। लेखक जाहिद खान ने अपनी विशिष्ट भाषा शैली से सभी आलेखों को और भी पठनीय बना दिया हैं। किताब की भाषा पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती हैं, पर आम लोगो को समझने वाली बोली इस किताब की विशेषता हैं। लेखक ने बड़े ही बेहतरीन अंदाज में लोकभाषा को यानी सरल हिंदी, उर्दू के साथ हिन्दोस्ताँनी भाषा को पेश किया हैं। बहुभाषी साहित्य मे रुची रखने वाले शौकिन पाठको को जुबान का विशेष मिजाज इन किताबों में पढ़ने-देखने मिलेंगा।

दोनो किताबों में कुछ नजरअंदाज करनेवाली खामियों के अलावा कुछ कमीयां भी हैं। संपादक की दृष्टिकोण से देखे तो कुछ बाते खटक सकती हैं। हर व्यक्तिचरित्र जीवनी की तौर पर मुकम्मल नही हैं। पाठक अपने पसंदीदा शायर, लेखक को साहित्यिक जीवन के अलावा उनकी निजी जिंदगी को भी जानना का इच्छुक होता हैं। साथ ही पैदाईश, शिक्षा, बाधाए, उनसे जुड़े विवाद और मौत के बाद की हलचलें पाठकों के लिए अहम होती हैं। मसलन कुछ पाठक अपने पसंदिदा शायर दुनिया से जाने के बाद की समाजी प्रतिक्रिया, मीडिया से लेकर, नामचीन लोगों की राय, मौत की जगह, दिन, तारीख और उस दिन का माहौल तलाशते हैं। कुछ लोग तो उनकी कबरों की तलाश में रहते हैं। वैसी ही कुछ लोग अपने पसंदीदा कवियो, लेखकों के दुनिया से जाने के बाद छपकर आए लेख, खबरें और नामचीन लोगों द्वारा भेजी गई श्रद्धांजलि पढ़ना चाहते हैं।

किताब में एक और बड़ी ख़ामी नजर आती है वह यह की, कई बार सिर्फ व्यक्ती तथा साहित्य का परिचय होता हैं, तो कुछ जगह सिर्फ शायरी आती हैं। तो कुछ दफा उनके जिंदगी की जानकारी बहुत गतीशिलता के साथ दौड़ती हैं। अर्थात व्यक्तिचरित्र होने के वजह से उसकी कुछ मर्यादाएं भी हैं।

जैसे लेखक अपनी भूमिका में बता चुके हैं की, यह आलेख समय-समय पर अखबार, पत्रिका तथा वेबसाइटों पर लिखे गए हैं। इन मीडिया की अपनी-अपनी जरुरत और मर्यादाएं भी होती हैं। अखबार में आपको कम शब्दों में लिखना होता हैं, तो पत्रिका में थोड़ा विस्तार से लिखने की सहुलत मिलती हैं। तो वेबसाइट का एक अलग जॉनर होता हैं। पर जब विभिन्न मीडिया के लिए लिखे गए आलेख जब किताबी शक्ल में लाने होते हैं, तो उसमें पुस्तक के दृष्टी से विस्तार करना लाजमी होता हैं।

कई जगह तो आज फलां की जयंती, पुण्यतिथी हैं, फलां को जाकर इतने साल हो गए हैं, ऐसे वाक्य आए हैं, जो पाठकों को खटकते हैं। दरअसल पहले भाग में लेखों के आखीर में प्रकाशन की तिथी आती हैं, जबकि दूसरे भाग में वह नदारद हैं।

याद रहे की किताब अखबार की तरह कोई लिमिटेड टाइम पिरियड के लिए नही होती, इस बात का खयाल रखते हुए किताब की रचना करनी होती हैं। मगर यह शर्त दोनों किताबे पुरी नहीं करती। इसीलिए कुछ व्यक्तिचरित्र बहुत कम जानकारी मुहैय्या कराते हैं, तो कुछ ज्यादा ही विस्तारीत हो जाते हैं। पहले जिल्द में ख्वाजा अहमद अब्बास, साहिर लुधियानवी तथा शैलेंद्र पर लिखे लेख काफी विस्तारित हैं। तो वहीं मंटो, फैज, नेमिचंद जैन, विजय तेंडुलकर और ना.ग. बोडस के आलेख तुलना में बहुत छोटे और अपूर्ण नजर आते हैं।

पहले भाग में विजय तेंडुलकर और दूसरे हिस्से में अमर शेख तथा अन्नाभाऊ साठे का लेख उपरी शर्त को पुरा नही कर पाता। शायद लेखक को भाषा की दिक्कत रही होगी। क्योंकि इनपर हिंदी और अंग्रेजी में बहुत कम लिखा गया हैं। इसी तरह इनका लिखा साहित्य भी दिगर भाषाओं में बहुत कम मौजूद हैं।

चुँकि दोनों किताबों का मराठी अनुवाद प्रस्तृत लेखक ने किया हैं। जिसमें मूल लेखक के इजाजत से और मराठी पाठकों को ध्यान में रखते हुए कई सारे व्यक्तिचरित्रों को किताबी शक्ल में मुकम्मल करने की कोशिश की हैं।

दरअसल किताबों की भाषा, मिजाज और उसकी तरलता इतनी सहज और सुंदर हैं की, इन खामियों पर पाठकों की नजर नहीं जाती। मगर एक गलती को शायरी के शौकिन पाठक तथा साहित्य के आलोचक कभी कबूल नहीं करेगे, वह ये की, दोनों किताबों में शायरों की रचनाएं गद्य स्वरूप में यानि पैराग्राफ में आती हैं। याद रहे की, कविताए, नज्म तथा शायरी लिखने-पढ़ने का एक अलग मिजाज होता हैं। इसलिए उसको उसकी रचना के तहत पेश करना होता हैं।

किताब में शायरी गद्य स्वरूप में आने के वजह से पाठक उसे टालकर आगे बढ़ते हैं। क्योंकि पाठको को उसका ठी से रसास्वाद नहीं होता। यहीं वजह हैं की पाठक शायरी को नजरअंदाज करते हैं। जो लेखक और किताब की असफलता को दर्शाता हैं। किताब के पन्ने बचाने के जुगत में लेखक-प्रकाशक ने बड़ी गलती कर दी हैं। जो की नाकाबिले बर्दाश्त हैं।

उपरोक्त खामिया को छोड़े तो दोनो किताबें पठनीय और संग्रहनीय हैं। यह किताबें आज़ादी के आंदोलन में उर्दू साहित्य के भूमिका और उसकी अहमीयत को दर्शाती हैं। किताबें प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के इतिहास, विरासत की आज के दौर की तुलना करते हुए समीक्षा करता हैं। इसी तरह उसके द्वारा किये गये कई क्रांतिकारी कार्यकलापो की चर्चा तथा विमर्श करता हैं।

उन दिनों संघठन के संस्कृतिकर्मी अपनी जान जोखीम में डालकर जुल्मी बरतानिया सरकार के खिलाफ लोहा ले रहे थे। इसी के साथ आज़ादी मिलने के बाद मजदुरो के गरीबो को राजनैतिक और आर्थिक न्याय दिलाने के लिए अपनी ही सरकार के खिलाफ संघर्षरत थे। लेखक उस दौर के साथ जगह जगह आज के संवैधानिक तथा सामाजिक संकट पर टिपण्णीयां भी करते हैं। आज देश में चल रहे राजनीतिक संकट के समय प्रगतीशील आंदोलन का महत्त्व और भी बढ़ जाता हैं। उसी तरह इसकी जरुरत भी महसूस होती हैं।

दिसम्बर के पहले हप्ते में महाराष्ट्र के नासिक शहर में अखिल भारतीय मराठी साहित्य समेलन का आयोजन हुआ। जिसमें प्रसिद्ध शायर जावेद अख्तर का भाषण बहुचर्चित रहा। उन्होंने अपने भाषण में प्रगतीशील लेखक संघ के जरुरत पर बल देते हुए कहां, उस दौर में यकिनन इसकी जरुरत रही होगी, मगर आज से ज्यादा नही!”

उन्होंने अपने तकरीर में आज के राजनीतिक संकट की समीक्षा करते हुए तरक्की पसंद तहरीक जैसे संघठनो की जरुरत पर बल दिया। साथ ही लेखक, साहित्यिक, शायर तथा बुद्धिजीवीयो से अपिल रते हुए कहा की, प्रगतीशील लेखक संघ की तरह नये प्रयोग करने की आज जरुरत हैं। इसलिए दुनियाभर बुद्धिजीवीयो को एक जगह आना चाहीए।

आज एक तरफ जब मध्यवर्ग तथा गरीबो और शोषितों को धर्म क नाम पर मोबिलाइज होते दिख रहा हैं। जब सत्तारुढ दल और उसके हिमायती संघठन धर्म के एक बड़े वर्ग को अपने नागरी और संवैधानिक अधिकारों से दूर करता नजर आ रहा हैं। अल्पसख्यांक समुदाय को उनके नागरी हकों से वंचित रखा जा रहा हैं। दलित, इसाई और मुसलमानों पर वांशिक हमले हो रहे हैं। मासूम मुसलमानों की सरेआम हत्याए की जा रही हैं।

स्वाधीनता आंदोलन और उसके लिडरों का मजाक बनाया जा रहा हैं। विपक्ष को नाममात्र बना दिया गया हैं। देशद्रोह क नाम पर सामाजिक संघठनो, लेखकों तथा कवियो की आवाज दबा दी जा रही हैं। मीडिया सत्तारुढ दल की ज्यादतीयां छिपा कर धर्म का नंगा नाच कर रहा हैं। आत्मनिर्भरता के नाम पर सार्वजनिक संपत्तीयों को कौड़ी के भाव बेचा जा रहा हैं। ऐसे में हमारे लेखक, साहित्यिक और संस्कृतिकर्मी लोकतांत्रिक रंगमंच से गायब हैं। आज के साहित्यिकारों की चुप्पी उस दौर के क्रांतिकारी प्रगतीशील साहित्य आंदोलन की अहमीयत को दर्शाता हैं।

यहीं वजह है, ऐसे में माहौल में लेखक ज़ाहिद ख़ान की ये दोनों किताबों को पढ़ना, पढ़वाना और प्रचारित करना आम हो जाता हैं। इस किताब की अहमीयत मेरी नजर एक वजह से हैं। कोई लेखक जब तक हयात होता है तब तक उसके लिखी किताब की प्रासंगिकता बनी रहती है। इसके अलावा प्रकाशक का व्यवसायिक हित तथा लेखक की कमिटमेंट इस किताब को बनाएं और चर्चाएं में रखती है।

मगर इनके बाद किताब बनी रहे, यह मुमकिन नहीं होता कुछ चुनिंदा किताबें ही लेखक प्रकाशक के जाने के बाद रहती है। इस सूरत में पुरानी लेखन सामग्री को फिर से पुनर्स्थापित करना लाज़मी हो जाता है। और दूसरी जरूरत यह है कि वक्ती तौर पर नए पाठक जुड़ जाते हैं। नई पीढ़ी के लोगों को इतिहास तथा संस्कृति के तथा हमारी विरासत साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत को बताने के लिए भी इस तरह के काम जरूरी हो जाते हैं।

इसलिए पुरानी सामग्री आशय तथा मजदूरों को शख्सियतों को फिर से लिखनाउसे नए रोशनी में लिखना तथा नए अंदाज से बयां करना जरूरी हो जाता है लेखक जाहिद खान की दो किताबें इस जरूरत को पूरा करती है।

 

तरक्की पंसद तहरीक के हमसफर (2019)

उद्भावना प्रकाशन, नई दिल्ली

पृष्ठ-192

कीमत- 100 रुपये

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तरक्की पंसद तहरीक के रहगुजर (2021)

लोकमित्र प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली

पृष्ठ-224

कीमत- 250

 

कलीम अजीम, पुणे

मेल-kalimazim2@gmail.com

वाचनीय

Name

अनुवाद,2,इतिहास,49,इस्लाम,37,किताब,24,जगभर,129,पत्रव्यवहार,4,राजनीति,292,व्यक्ती,17,संकलन,61,समाज,246,साहित्य,77,सिनेमा,22,हिंदी,53,
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तरक्कीपसंद तहरीक का मुकम्मल खाका
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