हरियाणा के फरिदाबाद में बीते दिनों एक अनहोनी घटना हुई, जिसे सरकार का संरक्षण प्राप्त था। तीन दिसम्बर को यहां के एक सरकारी अस्पताल का नाम बदला गया। वैसा भाजपाई राज में नामों को बदलना अब आम हो गया हैं। पर यह नाम कुछ खास था। वैसे अस्पताल के उपर पहचान वाला बोर्ड देखकर किसे भी लग सकता हैं, बी. के. में खास क्या हैं?
वैसे बता दे कि यह बी. के. यानी बादशाह खान हैं। जिन्हें ‘भारतरत्न खान अब्दुल गफ्फार खान’ के नाम से जाना जाता हैं। हरयाणा सरकार ने एक ‘भारतरत्न’ का नाम हटाकर दूसरे ‘भारतरत्न’ का नाम उसपर चढ़ा दिया हैं। अब यह जगह ‘अटल बिहारी वाजपेयी अस्पताल’ नाम से जानी जाएगी।
इस नामकरण पर देशभर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आयी, जिसमें जो हमेशा बीजेपी के रणनीति का विरोध करते रहे, वे ही इस बार बोले। बाकी राष्ट्रवादीयों के गुटों में सन्नाटा था। नामकरण का समर्थन करने वाले खुलकर अपनी दलील पेश कर रहे थे। ये वहीं लोग थे, जो 2017 में पाकिस्तान में बादशाह खान के नाम पर बने यूनिवर्सिटी पर हुए हमले से आहत थे। जिन्होंने बाचा खान के नाम पर कालिख पोतने के जुर्म में पाकिस्तान को जमकर कोसा था।
ये कैसी विडंबना हैं कि देश के स्वाधीनता संग्राम मे हिस्सा लेने वाले बादशाह खान का नाम हटाकर अंग्रेजों कि मुखबरी करनेवाले नाम को ज्यादा तरजीह दी गई। वाजपेयी के बारे में सारी दुनिया जानती हैं। वह भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ साथ आरएसएस से कर्ताधर्ता स्वयंसेवक भी थे। जिन्होंने अपने संघठन के सूचना का पालन करते हुए आज़ादी के लड़ाई से खुद को दूर रखा था। खैर।
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मानव सेवा में समर्पित
अब बात करते हैं, फ्रंटियर गांधी के नाम से महशूर खान अब्दुल गफ्फार खान के बारे में। अहिंसा के तत्वों पर भरोसा करने वाला यह शख्स विभाजन का घोर विरोधी था। 6 फरवरी 1890 को ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के चारसद्दा ज़िले में जन्मे बादशाह खान महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी थे।
एक कबायली पठान खानदान में जन्मे खान साहब ने अपने बिरादरी को अच्छा और नेक बनाने के लिए पठानों को संघठन बनाया था। इस संघठन के माध्यम से उन्होंने पठानों कि आपसी रंजिश, गुस्सा और अनबन पर काबू पाने का काम किया।
इसी संघठन कौशल कि बुते उन्होंने आज़ादी के लड़ाई में हिस्सा लिया। वैसे वह फौजी होना चाहते थे, कदकाठी और अच्छी सेहत कि वजह से उन्हें अंग्रेजों द्वारा नौकरी भी दी गयी। पर समय रहते उन्हें अपने गुलाम होने का एहसास हुआ, यहीं वजह हैं, कि उन्होंने ब्रिटिशों द्वारा दी गयी नौकरी ठुकरी दी।
बहुत ही कम उम्र में वह राष्ट्रवादी आंदोलन से जुडे। खुदाई खिदमतगार नाम का संघठन बनाया और ब्रिटिशों से लोहा लिया। साधारण सा दिखने वाला यह इन्सान एक असाधारण व्यक्तित्व का धनी था। आज़ादी के बाद कोई विकल्प न रहने के सुरत में उन्होंने अपने रिहायशी इलाके ख़ैबर पख़्तूनख़्वा मे रहना पड़ा, जो कि पाकिस्तान के हिस्से में गया था। बटवारे से वह बेहद दुखी थे। भारत के साथ रहना चाहते थे, लेकिन बदलते भूगोल ने उन्हें अपने ही मिट्टी बेगाना कर दिया।
ब्रिटिशो से आज़ादी तो मिली थी, मगर सामंतीवाद से अभी मुक्ती नही मिली थी। पाकिस्तान के हिमायती कहे जाने वाले सारे सुरमा जमींदार और रईस थे। जिन्होंने सामंती व्यवस्था को सरकार का हिस्सा बनाया। पर ये बात खान साहब को अखरी, जिसके बाद उन्होंने सरकार के खिलाफ कई आंदोलन छेड़े। परिणामत: उन्हे अपने ही मुल्क की सरकार ने कई बार जेल भेजा।
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‘भारत रत्न’ सम्मान से नवाजा
आज़ादी के बाद वो पहली बार महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी पर यानी 1969 में भारत आये। पब्लिक डिविजन द्वारा बनाई गई एक डॉक्युमेंटरी देख सकते हैं की एक बूढ़ा आदमी हवाईजहाज से अपनी छोटी सी सफेद पोटली लिए उतर रहा है और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण उनकी आगवानी करते दिख रहे हैं।
इसमें एक दृष्य बहुत खास हैं, जिसमें इंदिराजी जो उस समय देश की प्रधानमंत्री थी, खान साहब कि पोटली लेने कि कोशिश करती दिख रही है, पर खान साहब उन्हें मना कर रहे हैं। क्या ता, उस पोटली में!उनकी दो जोडी कपडे और कुछ चिजें। जिसे हर सफर में वह अपने हाथ में पकड़े रहते। तो साहब यह शख्सियत थी खान साहब की! बेहद शालिन, मितभाषी, हंसमुख और उत्साही।
अपने इस सफर में वो सुरक्षा संबंधी सलाहों को नज़रअंदाज करते हुए पूरे देश में घूमे और लोगों से मिले। इसके बाद और एक बार वे इलाज के लिए 1987 में भारत आये। जब इलाज के लिए वह मुंबई पधारे तो बड़ी-बड़ी शख्सियतों ने उनकी आगवानी की। इसी सफर के दौरान बार उन्हें राजीव गांधी की सरकार ने प्रतिष्ठित ‘भारत रत्न’ सम्मान से नवाजा।
इस छोटे से आलेख में उनके व्यक्तित्व को समेट पाना नामुमकीन हैं, और वह अपना आज का विषय भी नही हैं। पर बताना जरूरी हैं कि भारत के आज़ादी कि जंग मे उनका योगदान अतुलनीय हैं। वह भारत-पाकिस्तान के रिश्तों मे सुधार के लिए कोशिशों में लगे थे। दोनों देश के लोग आपस में मुहब्बत और प्रेम के साथ रहे, यही उनका ख्वाब था। जिसके लिए उन्होंने प्रशासकीय स्तर पर कई सारी कोशिशे की थी।
खान अब्दुल गफ्फार खान दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए। 98 साल की जिन्दगी में 35 साल उन्होंने जेल में काटे। अनगिणत यातनाएं झेली। उन्होंने अपना सारा जीवन इन्सान के बेहतरी के लिए समर्पित किया। अपनी पूरी जिन्दगी मानवता की कल्याण के लिए संघर्ष करते रहे ताकि एक बेहतर कल का निर्माण हो सके।
उनका सारा जीवन हिंसा से रोकने में बिता। पैगम्बर के अहिंसा के तत्त्वों का उन्होंने कडाई से पालन किया। समानता, सामाजिक न्याय, आज़ादी और शांति के लिए वह उम्रभर जूझते रहे। उनकी यह लड़ाई नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे असाधारण लोगों के बराबर खड़ा करती हैं।
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एक नेशनल हीरो
इस क्रांतिकारी शख्स का नाम फरिदाबाद के एक सरकारी अस्पताल को दिया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसका उद्घाटन 5 जून, 1951 को किया गया था। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के निर्देशों पर 3 दिसम्बर, 2020 को इस अस्पताल का नाम पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के नाम पर रखे जाने का नोटिफिकेशन जारी हुआ।
एक खबर के अनुसार शहर के पूर्व मेयर अशोक अरोड़ा ने अस्पताल के नाम बदलने के फैसले को अनुचित कदम बताया है। उन्होंने अस्पताल के नाम बदलने के लिए राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन भी सौंपा था।
वहीं इस नामकरण का हरियाणा के पुराने काँग्रेसी तथा खुदाई खिदमतगार संघठन को कार्यकर्ताओ ने विरोध किया। उन्होंने सरकार के सांप्रदायिक नीति पर सवाल उठाये। खुदाई खिदमतगार संघठन के 79 वर्षीय मोहन सिंह भाटिया ने इस फैसले पर सरकार को आड़े हाथ लिया।
हिन्दुस्थान टाइम्स को उन्होंने बताया, “अब्दुल गफ्फार खान [बादशाह खान] सभी लोगों के प्रिय नेता थे, जो उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) से आए थे। हमारे कई बुजुर्ग स्वतंत्रता-पूर्व युग में उनके द्वारा गठित खुदाई खिदमतगार संगठन का हिस्सा थे।”
उन्होंने आगे कहा, “फरीदाबाद में रहने के बाद, उन्होंने सामूहिक रूप से सिविल अस्पताल के निर्माण में काम किया और अब्दुल गफ्फार खान के सम्मान में इसका नाम बादशाह खान अस्पताल रखा। बादशाह खान अस्पताल हमारी पहचान है और हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह इसका नाम न बदले।”
काँग्रेस के वरिष्ठ नेता कैप्टन अजय सिंह यादव ने ‘ट्रिब्यून’ मे दिए अपनी प्रतिक्रिया में इसे ‘शर्मनाक’ करार दिया। उन्होंने कहा, “अगर वे चाहें तो पूर्व पीएम वाजपेयी की याद में एक नया अस्पताल बना सकते हैं, लेकिन सांप्रदायिक तरीके से नाम बदलना शर्मनाक है।”
वही वरिष्ठ पत्रकार प्रीतिश नंदी ने भी आलोचना करते हुए कहा, सरकार भारतरत्न का अनादर कर रही हैं। एक ट्वीट में उन्होंने कहा, “यह बहुत ही बेवकूफी भरा विचार है। बादशाह खान एक नेशनल हीरो हैं। आप उनका नाम नहीं हटा सकते। आप एक भारत रत्न का अनादर करना चाहते हैं या आप उसे भी ले लेना चाहते हैं?”
दूसरी ओर युवा कांग्रेसी नेता भारत अशोक अरोड़ा ने प्रदेश सरकार द्वारा फरीदाबाद के अस्पताल बादशाह खान का नाम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखे जाने के फैसले को नाकामियों को छुपाने वाला करार दिया है।
उन्होंने अमर उजाला से कहा की, “आज शहर को सुविधाओं कि जरूरत है, विकास की जरूरत है। सड़कें खस्ताहाल बनी हुई हैं। इससे आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं। सरकारी स्कूलों की हालत जर्जर बनी हुई है। इनमें सुधार करने की बजाय सरकार नाम बदलने में लगी है।
बादशाह खान अस्पताल वर्षों पुराना शहर का मुख्य अस्पताल है और लोग इसे बादशाह खान (बीके) अस्पताल के नाम से जानते हैं। भाजपा सरकार केवल नाम बदलने की राजनीति कर रही है। सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए नाम बदलकर लोगों को बेवकूफ बनाने का काम कर रही है।”
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फरिदाबाद के बी. के. अस्पताल को यह बोर्ड अब अतित बन चुका हैं |
खतरे कि घंटी
याद दिलाना जरुरी हैं की, जब ये नामकरण कि प्रक्रिया चल रही था, तब प्रधानमंत्री मोदी अलीगड़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मे चल रहे शताब्दि समारोह में मुसलमान राष्ट्रवादीयों के तारीफ कर रहे थे। अलीगड़ को छोटा भारत बता रहे थे।
वरीष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने हरियाणा सरकार और बीजेपी कि कडी आलोचना करते हुए नवजीवन पर लिखे अपने लेख में कहा, “राष्ट्रवाद शायद नक्शे का ही होता है। क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी के खिलाफ नहीं लड़ाई लड़ी, लेकिन वे राष्ट्रवादी नेता कहलाने लगे, क्योंकि उस पार उनकी विचारधारा के समानांतर दूसरी टोपी वाली विचारधारा ने अपना राष्ट्र का नक्शा तैयार कर लिया।”
बीते साल सीएए और एनआरसी को लेकर देश के मुसलमानों में आक्रोश का माहौल था। उनकी नागरिकता पर शक किये जाने से सारे भारतीय मुसलमान आहत थे। तब सरकार समर्थित दल और संघठन मुसलमानों को राष्ट्रद्रोहीयो के खाके में बैठा रहे थे। प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया था की, “आंदोलन कर रहे लोग उनके कपडों (टोपी) से पहचाने जा सकते हैं।”
कई मुस्लिम राजनेता इसे सिधा मुसलमानों पर हमला मानते रहे। प्रधानमंत्री के इस हमले का देशभर के लोगों ने अपनी वेशभूषा बदलकर कड़ा जवाब दिया था। इस आंदोलन मे एक और मुसलमानों को बदनाम किया गया तो दूसरी और समाजसेवी और आलोचको को गिरफ्तार किया गया। फौरन बाद दिल्ली में दंगे करवाकर मुसलमानों के अस्तित्व को मिटाया गया।
आंदोलन में मुसलमानों ने अपने राष्ट्रवादीयो महामानवों को साथ रखा था। तो जाहिर है कि विरोधी गुटों मे हलचले पैदा हो गयी। जिसके बाद राष्ट्रभक्त और राष्ट्र द्रोही की पहचान साबित करने के लिए एक खाका खींचा गया। जो लोग नागरिकता कनून के खिलाफ थे, उन्हें देशद्रोही करार दिया गया। और उन्हें जेल मे ड़ाला गया।
मुसलमानों से जुडी हर चिज पर आपत्ती शुरु हो गयी। उनकी सांस्कृतिक पहचान मिटाने के लिए उनसे जुडे नामों को मिटाना, बदलना शुरू किया गया। नाम बदलने कि कोशिश मुसलमानों कि देश में पहचान मिटाने की कोशिश हैं। उनके सांस्कृतिक अवधारणा को खत्म करने की साजिश हैं। सरकार सांप्रदायिक राजनीति के चलते मुसलमानों अस्तित्व को खत्म कर रही हैं।
इस धारणा पर चमड़िया आपत्ती दर्ज कराते हुए कहते हैं, “बादशाह खान तब क्या थे? तब वे राष्ट्रवादी थे। अब वे केवल मुसलमान रह गए, जब उनका नाम अस्पताल से हटाया गया।” बदलाव के यह खेल अब बीजेपी की राजनीतिक जरूरत बन गया हैं। जो एक अशांति की बढ़ते कदम को दर्शाता हैं।
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धरोहर पर संकट
भारत की संस्कृति को विश्व कि प्राचीनतम संस्कृति मे गिना जाता हैं। आज हमारे देश में प्राचीन प्रमाण दर्शाने वाले खाके बहुत कम मिलते है, क्योंकि वक्त के साथ जैसे भूगोल बदला वैसे उसकी सामाजिक और नगरीय रचना भी बदली हैं।
आज हमे सरस्वती नदी के अस्तित्व को खोज रहे हैं। इतनी सारी नदियां होने के बावजूद हमे सरस्वती कि तलाश क्यो हैं? इसी तरह हम दारा शुकोह की कबर को तलाश रहे हैं, इसकी क्या वजह हैं? इसी तरह हमारा पुरातन विभाग आये दिन खोजों मे लगा रहता हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि यह सारी चिजे हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं।
पुराने नाम देश कि सांस्कृतिक विरासत और धरोहर और उसकी पहचान होती हैं। आनेवाले दिनों में इस बदलते नामों के बिच अपनी पहचान, संस्कृति, सभ्यता को टटलोने का काम करेंगे। जिससे आनेवाले पिढ़ी के लिए भारत की प्राचीनता एक झुठ, ढ़कोसला बनकर रह जाएगा।
नाम बदलना एक महज राजनीतिक कृति हैं, पर उसका सारा असर देश कि प्राचीनता, उसकी विरासत और धरोहर पर पड़ता हैं। इसका असर एक समुदाय पर नही बल्कि सारे भारतीय समाज पड़ता हैं, उसकी संस्कृति, सभ्यता पर पड़ता हैं। हमे इस तरह अस्तित्वहिन समाज और संस्कृति का निर्माण तो करना नही है!
कलीम अजीम, पुणे
मेल : kalimazin2@gmila.com

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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com