आधुनिक भारत कि शिक्षा नीति को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला यह शख्स वैसे तो एक गुमनाम जिंदगी जिता रहा। देश के प्रथम नागरिक बनने के बाद वे लोगों में परिचित हुए। उससे पहले वे बिना शोर शराबा और बिना चर्चा मे आए अपना काम करते रहे। उनकी पहचान अलीगढ कॉलेज के बागी छात्र और अध्यापक, जामिया के संस्थापक, अलीगढ के कुलाधिपती, शिक्षाविद् एक राज्यपाल, एक राष्ट्रपति और एक साधारण मनुष्य के रुप में होती हैं।
जाकिर हुसैन एक पठान थे, पर उनके व्यक्तित्व से कभी पठानी नही झलकती थी। वह एक सादगीपसंद और नर्म मिजाज के व्यक्ति थें। उनका परिवार उत्तरप्रदेश के कायमगंज के कुलीन खानदान से था। कारोबार के सिलसिले में उनके पिताजी फिदा हुसैन निजामियां संस्थान हैदराबाद आए। जहां उन्होंने कानून कि किताबों का प्रकाशन व्यवसाय शुरु किया और काफी दिनों तक वही रहें। यहीं हैदराबाद में सन 1897 के 8 फरवरी को मियां जाकिर पैदा हुए।
जाकिर साहब कि प्राथमिक शिक्षा हैदराबाद और बाद में इटावा में हुई। इटावा में उन्हे मौलवी बशीरुद्दीन जैसे उच्च कोटी के विद्वान उस्ताद के रूप में मिले। जिनके सरपरस्ती में उन्होंने बुनियादी शिक्षा पाई।
बाद में अलीगढ में उच्च शिक्षा पाई। डॉक्टर होने के इच्छा से विज्ञान शाखा से उन्होंने पढाई जारी रखी। परंतु कुछ ही दिनों में विज्ञान के बजाए अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और दर्शनशास्त्र का अध्ययन शुरु किया। सन 1920 में महज 23 साल के उम्र में उन्होने एम. ए. पूर्ण किया और वही अध्यापन करने लगे।
जाकिर हुसैन बेहद शांत स्वभाव के थें। उनके व्यक्तित्व से शालिनता झलकती थीं। उन्होने कभी ज्ञानी और नेता होने का दिखावा नही किया। वह एक विद्वान थे। उस समय मजरुल हक और मौलाना आजाद को छोड दे तो हर कोई मुसलमान शिक्षा के लिए यूरोप गया था। सर सैय्यद, मुहंमद इकबाल, मौलाना मुहंमद अली, एम. ए. जिना युरोप से बैरिस्टर थें। जाकिर हुसैन भी जामिया में रहते एक दोस्त के कहने पर पीएच.डी करने जर्मनी गए थें।
बर्लिन में तीन साल रहकर उन्होंने अपनी पढाई पुरी की। वहाँ उनके सहपाठी मुहंमद मुजीब और आबिद हुसैन थें। जो साथ में एक ही कमरे में रहते थें। आगे जर्मनी से लौटकर इन तीनों ने जामिया को अपना बना लिया और जामिया को सिंचने के लिए सारी उम्र लगा दी।
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जामिया के संस्थापक
जाकिर हुसैन जामिया के संस्थापक के रुप में भी जाने जाते हैं। जामिया के स्थापना का किस्सा बेहद रोचक है। जामिया अंग्रेजो कि गुलामी नकारने और भारतीय राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रतीक हैं।
जिस समय अलीगढ में प्रो. झियाउद्दीन (उनसे पहले प्रो. आर्ची बोल्ड, प्रो. मॉरिसन औप थियोडर बेक) अलीगढ में राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने के लए कोशिशे कर रहे थे, तब कुछ छात्रों ने उनका कडा विरोध किया और बाहर निकल गए, जिन्होंने अलीगढ कॅम्पस में ही ‘जामिया इस्लामिया’ कि नींव रखी।
हुआ कुछ ऐसा था कि, 12 अक्तूबर 1920 में महात्मा गांधी और मौलाना मुहंमद अली असहयोग आंदोलन के लिए छात्रों का समर्थन पाने के लिए अलीगढ विश्वविद्यालय पधारे। वहाँ उन्होंने छात्रों के सामने भाषण दिया। उस दिन जाकिर हुसैन अपने इलाज के लिए दिल्ली गए थे। दूसरे दिन जब वह अलीगढ लौटे तो उन्हे गांधीजी और मौलाना मुहंमद अली के उस भाषण के बारे में खबर मिली।
उस दिन प्रो. झियाउद्दीन ने कुछ छात्रो के सहयोग से गांधीजी का मजाक उडाया और उनका अपमान किया था। जाकिर हुसैन यह खबर सुनकर काफी नाराज हुए। दूसरे दिन फिर एक बार उन दोनो का भाषण हुआ। गांधीजी और मौ. मुहंमद अली ने छात्रो के सामने एक भावूक भाषण दिया। उसे सुनकर वहा मौजूद छात्र रो पडे, उसमें एक जाकिर हुसैन भी थें। उन्होंने तबीयत खराब रहने के बावजूद छात्रों के सामने एक जोरदार भाषण दिया। और अलीगढ के स्कॉलरशिप का त्याग कर कुछ सहयोगी छात्रों के साथ असहयोग आंदोलन में शामील हुए।
पहले ‘अमीर जामिया’
जाकिर हुसैन ने अलीगढ के कई छात्रों को अंग्रेजो के खिलाफ संघटित किया। अलीगढ प्रशासन को इसकी भनक लगी और उन्हे हॉस्टेल तथा कॉलेज से निकाल दिया। जिसके बाद जाकिर हुसैन ने अलीगढ परिसर में काफी दिनों तक विरोध प्रदर्शन जारी रखा।
इस बीच जाकिर हुसैन गांधीजी से मिलने दिल्ली गए और वहां उन्होंने अपनी बात रखी। जिसके बाद हकीम अजमल खान, मौ. मुहंमद अली जौहर, महमूद उल हसन, शौकत अली, एम. ए. अन्सारी आदी ने एक राष्ट्रवादी शिक्षा पद्धती का विचार रखा। इस तरह अगले दिन याने 29 अक्तूबर 1920 को अलीगढ परिसर में ही ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिय़ा’ नामक एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित हुआ।
डॉ. हकीम अजमल खान पहले ‘अमीर जामिया’ अर्थात कुलाधिपती नियुक्त हुए। मौलाना मुहंमद अली ‘शेखुल जामिया’ अर्थात कुलपति नियुक्त किए गए। इन दोनो ने अलीगढ के साथ देशभर के युवकों को संघटित किया। दिसके बाद देशभर से कई लोग जामिया से जुडने अलीगढ पहुंचने लगे। जिसमे छात्र और अध्यापक भी थें।
अलीगढ के खिलाफ इस विश्वविद्यालय की स्थापना होने के कारण जमीनदार नाराज थें। ब्रिटिश सरकार से सहयोग कि उम्मीद भी नही, परिणावश जामिया के सामने आर्थिक तंगी का मामला बडा होकर उभरा। ऐसे समय राष्ट्रवादी विचारधारा वाले अनेक लोगों ने जामिया को जमीन-जायदाद बेचकर सहयोग किया। जामिया तंगी के बावजूद चल निकला।
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विश्वविद्यालय पहुँचा दिल्ली
जाकिर हुसैन अर्थशास्त्र मे पीएचडी करने के लिए जर्मनी गए। जिसके बाद जामिया कि पुरी जिम्मेदारी हकीम अजमल खान, मौ. मुहंमद अली पर आ टिकी। कर्ज लेकर, उधार लेकर इन्होंने जामिया का चलाया।
पर जब आर्थिक तंगी बढती गई तब इन दोनो ने जामिया को दिल्ली लेकर आए। इस तरह 1925 में विश्वविद्यालय दिल्ली के करोल बाग मे अबका जामिया नगर में स्थानांतरित हो गया।
जाकिर हुसैन तो जर्मनी में थें पर उनका सारा ध्यान जामिया पर टिका था। वहां रहकर वे हमेशा जामिया के खडा करने के बारे में सोंचते। बर्लिन में आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने जामिया के लिए गालिब का एक दिवान प्रकाशित करवा लिया।
गालिब और जामिया के प्रेम कि खातीर अपने हिस्से क बडी रकम उन्होंने इस दिवान पर खर्च कर डाली। इतना ही नही बल्की पुस्तक को अच्छे जिल्द में बनवाने के लिए एम. मुजीब और अबीद हुसेन जो उनके सहपाठी थे, उनसे कर्ज भी लिया।
जामिया कि तंगहाली
पीएचडी उपाधी हासील करने के बाद जाकिर हुसैन भारत लौटे। जिसके बाद उन्होंने जामिया के लिए अपनी सारी जिंदगी न्योछावर कर दी। डॉ. हकीम अजमल गुजर जाने के बाद जामिया कि स्थिति बेहद खराब हुई।
1924 में तुर्की में खिलाफत रद्द होने पर भारत कि खिलाफत कमिटी भी बरखास्त हो गई। जिससे जामिया का रुपया मिलाता था। तब जाकिर हुसैन ने हैदराबाद के निजाम जो कि अंग्रजो के गुलामी में थे उनसे 10 हजार माहवार मंजूर करवा लिया।
फिर भी एक समय ऐसा आया जब पाच-छह लोग छोड दे तो सब शुभचिंतकों ने कहां, “अब जामिया को बंद कर दो, रुपये का इंतजाम नही हो पायेंगा।” जामिया से औपचारिक संबंध रखने वाले कुछ लोगो ने जामिया को छोड दिया। पर जाकिर हुसैन ने हार नही मानी। बचे ‘बुनियादी अमना’ अर्थात प्रारंभिक कार्यकारिणी सदस्यों ने यह ठान ली कि कुछ भी हो जामिया को बचाना हैं।
जिसके बाद 11 लोग इकठ्ठा आ गए और उन्होने ‘हयाती रुक्न’ अर्थात आजीवन सदस्य बनना कबुल किया और उन्होंने कसम खाई कि जब तक अगले 20 साल तक जिवित रहे तो जामिया के लिए कार्य और अध्यापन करते रहेंगे इसके लिए मात्र 150 रुपयों से अधिक परिश्रमिक नही लेंगे। जामिया के पच्चीस साल पुरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम ने जाकिर हुसैन ने कहां था कि अबतक उन्हें यह रुपया लेना नसीब नही हुआ।
1930 आते आते जाकिर हुसैन के समक्ष एक दुविधा कि स्थिति उत्पन्न हुई। गांधीजी के असहयोग आंदोलन के शामील हो जाए या जामिया को चलाए? ऐसी परिस्थिति में उन्होंने जामिया को चुना। उस समय जामिया को खडा करना उन्होंने अपनी प्राथमिकता समझा। असहयोग आंदोलन में शामील न होने का मलाल उन्हे अंदर से खचोटता रहा।
जिसके बाद उन्होंने बेहद सादगी और शालिनता के साथ जीवन बिताया। अपने अध्यापन कार्य से उन्होंने कई छात्र स्वाधिनता के राष्ट्रीय आंदोलन को दिए।
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चरितार्थ के लिए अनुवाद कार्य
जाकिर हुसेन अपना चरितार्थ चलाने के लिए अंग्रेजी के किताबे उर्दू में अनुवाद करते। जिसमें उन्होंने प्लेटो कि ‘रिपब्लिक’ और कैनन लिखित ‘पोलिटिकल इकोनॉमी’ का बेहतरीन और सैद्धानिक संकल्पनाओ को साथ अनुवाद किया। जामिया कि आर्थिक तंगहाली बढी तो उन्होंने अपना परिश्रमिक 150 रुपये से घटाकर 60 किया और उसके बाद 40 कर दिया। बाद में तो उन्होने अपना परिश्रमिक लेना ही बंद कर दिया।
जाकिर हुसैन कि जिंदगी पर मिर्झा गालिब का यह शेर फिट बैठता हैं। उनके जीवनीकार मुहंमद मुजीब भी मानते थें कि जाकिर हुसैन की जिंदगी मिर्जा गालिब कि तरह ही फटेहाल थीं। मुजीब गालिब के इस, शेर से जाकिर हुसेन के व्यक्तित्व को देखते थें।
हजारो ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
प्रो. मुहंमद मुजीब लिखते हैं, “रुपयो कि तंगी जाकिर हुसैन को हमेशा से बनी रहती लेकिन उन्होने किसी को इसका पता नही लगने दिया। यहां तक कि जामिया के अकाऊंटट को भी नही। क्योंकि वे कभी अपना वेतन नही मांगते थें। जब भी जरुरत रुपयो कि जरुरत आन पडती तब बेगम के सामने खडे हो जाते और कहते, कुछ रुपयो कि जरुरत हैं।
तब बेगम या तो प्रतिक्रिया देती या फिर आह् कर एक लंबी सांस लेती, जब जैसा उस समय मिजाज रहता। और फिर अपने नौकर को पडोसीयों के पास भेजती, जितने कि जरुरत है उतना पैसा कर्ज लेती। बेगम जाकिर हुसेन को अपने दादा के जाय़दाद से आमदनी के तौर पर 10 रुपये माहवार मिलत थें। उनके पास अपनी गृहस्थी चलाने के लिए भरोसे कि एकमात्र यही आमदनी थीं।”
जाकिर हुसैन बडी विनम्रता के साथ रहते। हथ बुनी खादी के साफ सुथरे कपडे पहनते। अपनी सहज और साधारण गरिमा के कारण वह उंचे घराने के व्यक्ति कि तरह छाप छोडते। जब कोई रुपया उधार मांगता तो इनकार नही कर सकते थें। मांगनेवाले को लगता कि यह कोई रईस हस्ती हैं और वह विश्वास नही कर पाता कि इनके पास पैसे नही हैं।
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बेगम को रहती शिकायत
मुहंमद मुजीब जाकिर हुसैन को लेकर एक और किस्सा बयान करते हें, एक बार उन्होंने जाकिर साहब के घर में नई कुर्सियां देखी। इतनी आर्थिक तंगी में यह कुर्सियां कहा से आई इसपर वह सोंचने लगे। इसपर सवाल किया, “मियां यह नई कुर्सियां..!”
तब जाकिर हुसैन ने कहा कि, उनके एक स्टाफ के मुलाजिम के पिता थे, उन्होंने घर का पुराना फर्निचर मांगा, तो उन्होंने उन्हेॆ दे दिया। जबकी कुर्सियां रोजमर्रा के इस्तेमाल का घर में एकमात्र फर्निचर था, इसीलिए नया मंगवाना पडा।
एक बार प्रो. मुजीब जब जाकिर साहब के घर पर बैठे थे, तब वह मुलाजिम के पिता शाह साहब फिर एक बार आ धमके, वे अपने साथ कुछ मजदूर लाए थे, उन्होंने नई कुर्सियां उधार के तौर पर मांग ली। यह स्थिति देखकर मुजीब उस व्यक्ति पर बरस पडें। और क्या जाकिर हुसैन का सभी कुछ ले जाने पर तुले हो? वह शख्स शरमिंदा होकर वहां से निकल भागे।
इसपर जाकिर हुसेन को बडी तकलीफ हुई। उन्होंने कहा, “यह क्या कर दिया मुजीब साहब?” पर मुजीब को इसका कोई पछतावा नही था। मुजीब कहते हैं कि उसके बाद जाकिर साहब का फर्निचर कभी उधार नही मांगा गया।
प्रो. मुहंमद मुजीब जाकिर हुसैन के करिबी मित्रों मे से एक थें। यही वजह है कि उन्होंने जाकिर हुसैन का वस्तुत चित्रण (NBT) किया हैं। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि अगर मुजीब नही लिखते तो जाकिर हुसैन कि गरिबी तथा मुफलिसी कभी बाहर नही आती और लोगों को उनके असल जिंदगी कि कभी खबर भी नही लगती।
मुहंमद मुजीब जाकिर साहब के बेगम के बारे में एक जगह लिखते हे कि,
“मैं उनके घर पर दो बार काफी अरसे तक रहा हूँ। वह दब्बू किस्म कि महिला नही थी। उनकी दिनचर्या अलग ही थी। वह कायदे से सब काम करती। खाने को लेकर कभी देर नही करती। जब भी खाने का समय होता।
तब मेरे बुलाए ही नौकर आकर देखता कि मै हू या नही, और फौरन मेरा खाना आ जाता। वह एक आजाद खयाल कि महिला थी। जाकिर साहब ने उनपर कभी कोई पाबंदी आयद नही की।”
मुजीब आगे लिखते हैं, “जाकिर साहब भी कभी समय पर घर नही आते। उनके पास समय कि कोई पाबंदी नही थी। जब चाहा आए, इससे बेगम को कोई शिकायत नही होती थी और मिया भी अपना समय ढंग से बिताने के लिए आजाद थे। पर जब भी वे घर जल्दी आते उन्हें ताजा और गरम ऱखाना उपहार स्वरूप मिल जाता।”
मुजीब लिखते है, “जब उन्होने (बेगम जाकिर) मुझसे पर्दा करना बंद किया तब मुझे मिया-बिबी कि कुछ बाते सुनने को मिलती। जिसमें कि आजादी का इजहार रहता।”
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल: kailmazim2@gmail.com
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