पाकिस्तान के संस्थापक बॅ. मुहंमद अली जिन्ना को दुनिया ‘कायदेआज़म’ के नाम से जानती हैं। महात्मा गांधी ने यह नाम उन्हें दिय़ा था। पाकिस्तान के पहले गव्हर्नर जनरल रहे बॅ. जिन्ना जीते जी किवंदती बन गये थें।
निधन के सात दशक बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीति में जिन्ना हर दिन याद किये जाते हैं। भारत में तो एक दिन भी ऐसा नही जाता जब यहां के मुसलमान बॅ. जिन्ना को कोसते नही होंगे। इस मौके पर आईये इनके जिवन से जुडी कुछ बातों पर नजर दौडाते हैं।
बहुसंख्य भारतीय मुसलमानों का लगता हैं कि हिन्दुवादी ताकतों द्वारा जो बर्ताव उनके साथ होता रहा हैं, उसके जिम्मेदार बॅ. जिन्ना हैं। असल में देखा जाए तो यह बात बिलकूल सच नही हैं। मगर हां, बहुसंख्य लोगों के दिमाग के हिन्दुवादीयों ने यह मैकनिझम फिट बैठाने में जरुर कामयाबी हासिल कर ली हैं। इसी के चलते मुसलमानों से कहा जाता हैं ‘पाकिस्तान चले जाओ।’
यह बात भी उतनी ही सही हैं की, सबसे पहले हिन्दू महासभा ने हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की आधारशिला रखी थीं। 1932 में अहमदाबाद मे हुए महासभा के एक संमेलन में वि. दा. सावरकर नें हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग की थी। बाद में उन्होने ‘पितृभ्रू’ और ‘पुण्यभ्रू’ जैसी व्याख्या कर उसे सैद्धान्तिक स्वरूप भी दिया।
इससे भी पहले याने 1909 में आर्य समाजी भाई परमानंद और 1924-25 में लाला लजपतराय ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ और ‘हिन्दुओं कि पवित्र भूमि’ जैसी कल्पनाए कर अलग राष्ट्र आधारशिला रखी थीं। जबकि खुशवंत सिंग कि माने तो बाल गंगाधर तिलक अलग राष्ट्र के उदगाता थें।
पर आज संघ परिवार और अन्य सुधारवादी संघठन तथा पार्टीयों द्वारा इस बात को नजरअंदाज कर बॅ. जिन्ना और काँग्रेस को विभाजन का शत्रू बताया जाता हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि बॅ. जिन्ना ने सावरकर से ही द्वि-राष्ट्र का विचार अपनाया था।
बॅ. जिन्ना एक विवादित इन्सान थें। जीते जी भी और मरने के बाद भी उनको लेकर आये दिन विवाद होता रहा हैं। खुद को मुसलमानों के नेता कहने वाले बॅ. जिन्ना का निजी जीवन बिलकुल इस्लाम के विपरित था। या यूँ कहे तो ज्यादा अतिशोयक्ति नही होंगी कि जिन्ना पूरी तरह निश्वरवादी थें।
उनके नास्तिकता को लेकर कई कहानियाँ पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं। उनकी कई बायोग्राफी (जीवनी) में इस बारे में खुलकर लिखा गया हैं। जिन्ना का चरित्र लिखने वाले कई लोगों मानना हैं की, उनके जीवन में इस्लाम की कोई दखल थी नही। न ही वे इस्लाम में विशेष रुची रखते थें।
गैरइस्लामी रिवाज
उम्रभर मुसलमानों कि राजनीति करने वाले बॅ. जिन्ना असल में मुसलमानों जैसा दिखने से लेकर, रहन-सहन, तौर-तरिके, खान-पान में कभी भी इस्लाम कि आचरण पद्धती से मेल नही खाती थी। जबकी उस समय भारत के मुस्लिम राजनीति में उलेमा और धार्मिक नेताओका दबदबा था।
सर सय्यद अहमद खान के बाद डॉ. मुहंमद इकबाल, मौलाना अलताफ हुसेन हाली, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और मौलाना आज़ाद चोटी के धार्मिक विद्वान थें। दारुल उलूम से निकलकर कई मौलानाओ ने स्वाधीनता संग्राम के आंदोलन में कदम रखा था। जबकि बॅ. जिन्ना उन सारे लोगों के एकदम विपरित थें।
कभी भारत के विदेश मंत्री और मुंबई हाईकोर्ट के न्या. रहे मुहंमदअली करीम (एमसी) छागला अपनी आत्मकथा ‘रोज़ेस इन दिसंबर’ (Roses In December) में बॅ. जिन्ना के व्य़क्तित्व के बारे लिखते हैं,
‘‘जब मैंने 1919 में भारत छोड़ा, तो जिन्ना बंबई के बेताज बादशाह थें। वह युवाओं के आदर्श थें। उनके व्यक्तित्व और उनकी मजबूत स्वतंत्रता के नीतिओ नें लोगों को उनके ओर आकर्षित किया। शहर में उन्होंने अपने भाषणों से हलचल मचा दी थी।
उस समय शांताराम चॉल बंबई के राजनीतिक बैठकों का स्थान था, एक दफा वहां गवर्नर लॉर्ड विलिंगडन का भाषण होना था, जबकि जिन्ना ने उनका पुरजोर विरोध किया। क्योंकि उनका मानना था कि विलिंगडन की नीतियां भारत विरोधी हैं। उन दिनों में जिन्ना के लिए लोगों में इतना बड़ा उत्साह था जिसके बिना पर वह अपने फैसले करते थें।”
जिन्ना के बारे में एक कहानी बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हैं। मुंबई में मुस्लिम लिग की एक चुनावी जनसभा होनी थी। वहाँ एक बडे से सभागार में बॅ. जिन्ना मतदाताओं को संबोधित करने वाले थें। सभागृह के पहली कतार में शहर के प्रतिष्ठित मुसलमान बैठे थें। उन्हें देखकर जिन्ना भडक उठे और कहाँ,
“मेरी कही बाते आप लोगों के लिए नही होती। मैं तो पढे-लिखे गैर-मुसलमानों से बात करता हूँ, आप लोग पिछे जाकर बैठ जाए।” बाद में उस जगह कुछ अंग्रेजी जानने वाले मान्यवर और पत्रकारों को बैठाया गया। बॅ. छागला ने अपनी किताब में जिन्ना को लेकर इस तरह के कई खुलासे किए हैं।
मुहंमद अली जिन्ना इस्लाम को लेकर कभी भी संजिदा नही थें। रेहान फजल द्वारा बीबीसी के लिए जिन्ना पर लिखे एक लेख मशहूर इतिहासकार हरबन्स मुखिया कहते हैं, “बॅ. जिन्ना का जन्म छोड़ दें तो उनके के निजी जीवन में मजहब (इस्लाम) बहुत नहीं था। बॅ. जिन्ना का रहन-सहन मुसलमानों जैसा नही था। उन्होंने कभी क़ुरआन नहीं पढ़ा। वो शराब पीते थे, सिगार भी पीते थे और सूअर का मांस खाते थे।”
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सूअर के गोश्त के शौकिन
बॅ. जिन्ना को सूअर गोश्त बहुत ज्यादा पसंद था। इस बारे में रफिक ज़कारिया अपनी किताब ‘दि मॅन हू डिवाईडेड इंडिया’ (Who Divided India) में लिखते हैं, “जिन्ना रोज खाने में सूअर का गोश्त और अंडे खाते। लंच में उन्हे सूअर के मांस से बना सैंडविच बहुस पसंद था। रोजाना डिनर के बाद वे दो से तीन पेग व्हिस्की पिते थें।” (पेज-164)
जिन्ना के इस शौकीन खाने कि चर्चा को लेकर एक किस्सा बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हैं। कभी बॅ. जिन्ना रहे निजी सेक्रेटरी रहे छागला ने ‘रोज़ेस इन दिसंबर’ में लिखा हैं, “दोहपर ठीक एक बजे का समय रहा होंगा। बंबई के टाउन हॉल के सामने रत्ती (बॅ. जिन्ना कि पत्नी) जिन्ना की शानदार लिमोज़ीन कार आकर रुकी। उसमे से रत्ती बाहर निकली। उनके हाथ में एक बास्केट था और उसमें टिफ़न, उसे लेकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। उन्होंने कहा, जे (जिन्ना का घर का नाम) सोंचो मैंने लंच में तुम्हारे लिए क्या लाया होंगा? जिन्ना का जवाब था, मुझे कैसे पता तुम क्या लाई हों। इस पर वो बोलीं, तुम्हारा प्यारा हैम (सुअर के मांस का बना) सैंडविच (Ham sandwich) लाई हूँ।”
छागला आगे लिखते है, “इस पर जिन्ना बोले, माई गॉड ये तुमने क्या किया? क्या तुम्हे लगता हैं मैं चुनाव हार जाऊं? तुम्हें पता नहीं कि मैं (मुंबई के) पृथक (अलग) मुसलमानों वाली सीट से चुनाव लड़ रहा हूँ? अगर मेरे वोटरों (मुसलमानों) को पता चल गया कि मैं लंच में हैम सैंडविच खा रहा हूँ तो मेरे जीतने की क्या उम्मीद रह जाएगी? यह सुनकर रत्ती का मुंह लटक गया। उन्होंने फ़ौरन टिफ़िन उठाया और वापस चली गईं।” (पेज-117-118)
छागला लिखते है, उस समय वहां कुछ गिने-चुने खास लोग मौजूद थें। जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि, मुंबई के आम मुसलमानों तक यह बात नही पहुँची। इस्लाम में सूअर का मांस हराम माना जाता हैं। मात्र मुसलमानों के नेता जिन्ना उसे सरेआम खाने से हिचकिचाते नही थें।
14 अगस्त को जब अंग्रजो नें भारत को आज़ाद घोषित कर अलग मुल्क पाकिस्तान बनाया था। उस दिन बॅ. जिन्ना नें खुशी में अपने लोगों से कहाँ, आज तो ‘ग्रैंड लंच’ होना चाहिए। लोगों ने उन्हें बताया कि “ये रमज़ान का महीना है, ग्रैंड लंच का आयोजन कैसे करेंगे?”
ग्रैंड लंच से मुराद उनका पसंदिदा खाना था। आसिफ नूराणी अपनी किताब ‘टेल्स ऑफ टु सिटीज’ में लिखते हैं, उन दिनों बॅ. जिन्ना को पता भी नही था कि रमज़ान का महिना चल रहा हैं।
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शिया-सुन्नी पर विवाद
बॅ. जिन्ना शिया पंथी थें या सुन्नी इसपर आज तक विवाद चला आ रहा हैं। शायद ही कभी यह विवाद थम जाएगा। यह मामला सितंबर 1948 को उनके निधन के काफी गर्माया था। उन्हे अंतिमविधी करने को लेकर पाकिस्तान में दो धडे पड गए थें।
बॅ. जिन्ना का दफन संस्कार करने के लिए कुछ बहस करने लगे कि शिया रितीरिवाज के अनुसार उनका दफन होना चाहिए। जबकी कुछ लोगों की मानना था वे सुन्नी थे इसलिए सुन्नी तौर-तरिके से यह विधी होनी चाहीए।
पाकिस्तान के इतिहासकार मुबारक अली ने इस बारे में बीबीसी से कहा था की, “दफन के समय विवाद की स्थिति में उनकी अंत्येष्टि में शिया और सुन्नी दोनों तौर-तरीक़ों को अपनाया गई।”
इस्लाम को लेकर जिन्ना कभी सख्त नही थें। पर कहा जाता हैं की उनके निजी जीवन में पास इस्लाम धर्म के लिए कोई जगह नही थीं। बॅ. जिन्ना इस्माइली से शिया बन गए थें। इस्माइली 6 इमामों को मानते हैं जबकि शिया 12 इमामों को मानते हैं।
इसपर मुबारक अली कहते हैं, “मेरा निजी तौर पर मानना है कि वो भले ही धार्मिक नहीं थे लेकिन उनमें पर्सनल इगो काफ़ी था। दरअसल इस्माइली आग़ा खां को फॉलो करते हैं लेकिन जिन्ना उन्हें इमाम के तौर पर फॉलो नहीं करना चाहते थे। ऐसे में उन्होंने ख़ुद को शिया बना लिया।”
इगो को लेकर रफिक ज़कारिया ने जिन्ना पर लिखी अपनी किताब में बहुत कुछ बताया हैं। छागला ने भी जिन्ना के इस व्यक्तित्व को लेकर राजनीति के पुरे चैप्टर में पेज दर पेज लिखा हैं। ब्रितानी लेखक स्टेनली वोलपर्ट अपनी किताब
‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ (Jinnah of Pakistan) उनके निजी जीवन से लेकर राजनैतिक सफर तक कई अहम खुलासे किये हैं।
छिपाई बिमारी
सच तो यह हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में बॅ. जिन्ना और मुस्लिम लिग में शिया सुन्नी को लेकर कभी अनबन नही रही। स्वाधीनता आंदोलन पर काम करने वाले बहुत से लोगों का मनाना हैं की, जिन्ना धर्म-पंथ के पचडे मे कभी नही पड़े इसलिए तो वह भारत के मुसलमानों के नेता बन पाए।
मुसलमान भी पागलो कि तरह उनके पिछे मुरीद बने घुमने लगे। पर आज पाकिस्तान के उन मुसलमानों को एहसास होता रहेंगा कि बॅ. जिन्ना को अपना लिडर चुनकर वे बहुत बडी गलती कि हैं।
वैसे एक तर्क ये भी हैं कि अगर आज़ादी मिलने मे थोडी देरी होती तो शायद आज के भारत का नक्शा कुछ और होता। ये बात कई इतिहासकार और बुद्धिजीवी भी मानते हैं। दरअसल अपने आखरी दिनों में जब स्वाधीनता आंदोलन अपनी चरम पर था, तब मुहंमद अली जिन्ना काफी बिमार चल रहे थे।
उनके इस बिमारी कि भनक सिवाय उनके और बहन फातिमा के किसी को नही थी। इसी बिमारी के चलते उनका 11 सितम्बर 1948 को निधन हुआ। यानी आज़ादी से ठिक 13 महीने बाद।
दरअसल उनके बिमारी का पता राष्ट्रीय नेताओ को होता, तो उनकी पाकिस्तान को लेकर नीति अलग होती। वैसे मौलाना आजाद कह चुके थे की आज़ादी मिलने मे देरी हुई तो देश का नुकसान होंगा पर हिन्दू-मुस्लिम इत्तेहाद नही रहा तो समूचे इन्सानियत का नुकसान होंगा। मौलाना के इस बात पर गौर करे तो आज का भारत शायद कुछ और होता।
कहते हैं, जिन्ना के बिमारी की खबर माऊंडबैटन को थी, इसी लिए उन्होंने विभाजन को तुरंत मंजूरी देकर देश के दो हिस्से किए। मान लो 15 अगस्त 1947 के एक या दो साल बाद हमे आज़ादी मिलती तो, भारतीय उपखंड आज के में राजनीतिक पेसोपेश या तंगहाली नही होती। सांप्रदायिक राजनीति अपने उफान पर नही होती।
कलीम अज़ीम, पुणेमेल: kailmazim2@gmail.com
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