‘अब्बाजी’ के नाम से प्रसिद्ध अब्बास तैय्यबजी (Abbas Tyabji) महात्मा गांधी के करीबी अनुयायी थे। वे तैय्यबजी परिवार के प्रमुख व्यक्ति थें जिन्होने भारत के स्वाधिनता संग्राम में भाग लिया था। अब्बाजी के बारे में अपर्णा बसु लिखित जीवनी (NBT) के अलावा बहुत कम ही जानकारी उपलब्ध हैं। पब्लिक डोमेन में जो जानकारी हैं वह भी अपर्याप्त हैं। इसलिए इस परिवार पर और संशोधन होना जरुरी हैं।
अंग्रजो कि नौकरी करने वाले अब्बास तैय्यबजी को रिटारमेंट के बाद एहसास हुआ कि अंग्रेजो के गुलामी से बेहतर हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लड़ते-लड़ते मर जाए। यहां से अब्बाजी तैय्यबजी के जिन्दगी का दूसरा अध्याय शुरु होता जो देश के लिए कुर्बान होने का जज्बा रखते थे।
एक फ़रवरी 1854 में बडोदरा संस्थान में जन्मे अब्बास तैय्यबजी, (1854-1936) रियासती उच्च न्यायालय के जज थें। वे 64 साल के उम्र में स्वाधीनता आंदोलन से जुडे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सत्याग्रह और अहिंसा कि नीति ने उन्हें अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। तैय्यबजी के बाद उनका सारा (अब्बास, शमुसुद्दीन और रेहाना) परिवार गांधी अनुयायी बनकर ब्रिटिश सरकार कि खिलाफ लड़ता रहा और अंग्रेजी हुकुमत कि यातनाए झेली।
आपको शायद याद होगा कि बदरुद्दीन तैय्यबजी (सिनियर) (1844–1906) बॉम्बे हाईकोर्ट के पहले जज थे, जो राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं। बदरुद्दीन राष्ट्रवादी नेता माने जाते थें। जिनपर उन्हीं के परिवार कि लईक फतेहअली और एक अन्य प्रसिद्ध विधिज्ञ ए. जी. नूरानी ने बेहतरीन चरित्र लिखा हैं। जिसे भारत सरकार के पब्लिकेशन डिविजन ने प्रकाशित किया हैं। उनका निधन 1906 में हुआ था। अब्बास तैय्यबजी बदरुद्दीन साहब के भतीजे थें।
अर्पणा बसु लिखती हैं, अब्बास तैय्यबजी सुलेमानी बोहरा (Sulaimani Bohra) समुदाय के गुजराथी भाषिक थें। उनका परिवार एक कुलीन तथा संपन्न था। 11 साल की उम्र में ही अब्बास को पढाई के लिए विलायत भेज दिया गया। वहां से उन्होने विदेशी आचार-विचार सीखे।
संभ्रात परिवार से होने के कारण पैसो कि कमी न थी। वे महंगी पार्टीयों मे शिरकत करते। उनका रहन-सहन और उठना बैठना गोरो जैसा बन गया था।
तैयबजी के भतीजे और जाने-माने पक्षीविद् डॉ. सलीम अली ने अपनी जीवनी में लिखा है, “अब्बास साहब अंग्रेज़ी तौर-तरीकों से रहते थे। सूट-बूट और टाई जो अंग्रेज़ी कल्चर की पहचान है, अब्बास की रोज़मर्रा की जिन्दगी का हिस्सा थे। उन्हें कतई पसंद नहीं था कि कोई शख्स अंग्रेज़ी हुकूमत या रानी के ख़िलाफ़ कुछ कहे।”
पढाई के बाद 1875 में अब्बास बॅरिस्टर बनकर भारत लौटे और बड़ोदा रियासत (Baroda State) में नौकरी शुरू की। सन 1893 में वह बडोदा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of the High Court) बने।
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महात्मा गांधी के संपर्क में
उम्र के 64 बसंत पार करने पर उन्हे एहसास हुआ कि अंग्रेजो के गुलामी से बेहतर हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लडते-लडते मर जाए।
1915 के एक सभा जरीए वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संपर्क में आए। वैसे बता दे की शुरू में वह महात्मा गांधी के कार्यपद्धती और सत्याग्रह में विश्वास नही रखते थे। इसी तरह उनके स्वदेशी आंदोलन पर भी अब्बाजी कि गांधी और दिगर नेताओ से अलग राय थी। पर जल्द ही वे गांधीजी के सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन के समर्थक बन गए।
इस बारे में इतिहासकार राम गुहा लिखते हैं, “गांधीजी ने 27 अप्रेल 1930 में ‘हरिजन’ में इस परिवार पर स्वतंत्र लेख लिखा था। उसमें वे लिखते हैं, “मैं (गांधीजी) तैयबजी से 1915 में पहली बार मिला, अब्बास मियां मुझे बदरुद्दीन तैय्यबजी की याद दिलाते थे। हरिजन सभा में वे एक हिंदू की तरह ही काम करते।”
गांधी अब्बाजी पर लिखे 20 जून 1936 के हरिजन के एक लेख में कहते हैं, “जब हम एक-दूसरे से मिले और मैंने उनके चेहरे को ताका तो मुझे स्व. न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी का स्मरण हो आया। हमारी उस मुलाकात से हमारे बीच जन्मभर के लिए मित्रता की गाँठ बँध गई।”
अब्बाजी सब ऐशो आराम छोड़ कर देश की आज़ादी के आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने अपने अंग्रेजी पहनावे कि होली कर कुर्ता, पायजामा और गांधी टोपी धारण की।
गांधीजी के कहने पर उन्होंने रेलवे के तिसरे दर्ज सें भारत का भ्रमण किया। गुजरात में बैलगाडी पर बैठकर खादी के वस्त्र बेचे।
अब्बास तैय्यबजी गुजरात प्रजामंडल के पदाधिकारी बने। उन्होंने राष्ट्रीय काँग्रेस जॉईन कर लिया। आगे चलकर 1919 में पंजाब प्रांत में जालियावाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre) कि घटना घटी, जिससे वे काफी आहत हुए।
इस घटना के जाँच के लिए काँग्रेस ने जो समिती बनाई थीं अब्बाजी उसके सदस्य बने। उनकी सदस्यता मे जो रिपोर्ट प्रकाश मे आयी उसके बाद जनरल डायर कि क्रूरता और नृशंसता की डरावनी कथा सर्वप्रथम देशवासियों के सामने आयी।
चर्चित लेखक लुई फ़िशर (Louis Fischer) अब्बाजी के बारे ‘दि लाइफ़ ऑफ़ गांधी’ (The Life of Mahatma Gandhi) में ज़िक्र करते हैं, “बारदोली के सत्याग्रह में गांधी ज़ाहिर तौर पर शामिल नहीं थे। उनकी जगह सरदार और एक मुसलमान नेता अब्बास तैय्यबजी आंदोलन के रहनुमा थें।”
कहा जाता हैं कि, साल 1928 में गुजरात में हुआ ‘बारदोली का सत्याग्रह’ (Bardoli Satyagraha) गांधीवाद का पहला परीक्षण था। अंग्रेजी हुकूमत ने किसानों की ज़मीन, मवेशी आदि सब छीन लिए थे। जिसके विरोध में अब्बास तैय्यबजी ने डटकर मुकाबला किया।
इतना ही नही उन्होंने मोतिलाल नेहरू, चित्तरंजन दास और महात्मा गांधी के साथ हंटर कमिशन के खिलाफ बनी कमिटी की सदस्यता भी की थी।
गांधीजी ने अपनी अत्मकथा में अब्बाजी के बारे कई जगह महत्त्वपूर्ण टिपण्णीया की हैं। असहयोग प्रस्ताव के मसौदे को लेकर हकीम अजमल खान और दिगर लोगो में जब कुछ अनबन हुयी तो, अब्बाजी ने उसमें मध्यस्थता की। इस बारे में गांधी ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ में लिखते हैं,
“असहयोग के गुण-दोष पर अच्छी और मीठी चर्चा हुई। मत गिने गए और विशाल बहुमत से असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ। इस प्रस्ताव को पास कराने में अब्बास तैयबजी और वल्लभभाई पटेल का बड़ा हाथ रहा। अब्बास साहब सभापति थे और उनका झुकाव असहयोग के प्रस्ताव की तरफ ही था।”
दांडी यात्रा में अहम योगदान
मई 1930 में अब्बास तैय्यबजी ने गांधीजी के नमक सत्याग्रह (Salt Satyagraha) में भाग लिया। दांडी मार्च का नेतृत्व करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से अब्बाजी एक थें। गांधीजी ने दांडी यात्रा (Dandi March) की सारी तैयारी करने कि जिम्मेदारी अब्बाजी को सौपीं थीं।
नमक सत्याग्रह में उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी। कस्तूरबा गांधी के साथ 76 वर्षीय अब्बास तैय्यबजी जेल गए। इसके बाद सरोजनी नायडू और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद के इस शांतिपूर्ण मार्च में शामील रहे।
अब्बाजी को तीन महीने की सज़ा हुई। इस ज़ज्बे को देख बापू ने उन्हें ‘गुजरात का वयोवृद्ध’ (A Grand old man) की उपाधि दी। इसके बाद 1935 में फिर उन्हें जेल में डाला गया।
उल्लेखनीय है कि गांधीजी के सच्चे अनुयायी के रूप में अपनी वृद्धावस्था में अब्बास तैयबजी ने जेल की यातनाओं को सहन किया।
आमतौर पर अब्बास तैय्यबजी के बारे में गांधी साहित्य के अलावा कहीं और चर्चा की मिलती। परंतु पिछले कुछ सालों से समांतर मीडिया ने अब्बास तैय्यबजी की दखल लेनी शुरू की हैं। परंतु वे तैय्यबजी परिवार के बारे में अधिक संशोधन नहीं कर पाए हैं। जिसके एवज में छिटपुट जानकारियां ही तैय्यबजी परिवार के बारे में निकल कर बाहर आती हैं।
गांधी का समग्र साहित्य पढ़ने पर तैय्यबजी द्वारा परिवार द्वारा जो कुर्बानियां स्वाधीनता संग्राम में दी गई थी उसकी बेहतर और पर चर्चा की जा सकती हैं। राम गुहा हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में लिखते हैं कि,
“17 अप्रैल, 1920 को अब्बास तैय्यबजी को लिखी थी। इसमें गांधी लिखते हैं, “तैय्यबजी और टैगोर परिवार निस्संदेह भारत के लिए तोहफे जैसे थें।”
1936 मे अब्बास तैय्यबजी के निधन के बाद जो पत्राचार गांधीजी ने रेहाना तैय्यबजी (Rehana Tyabji) से किए, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि, अब्बाजी को स्वाधिनता आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं।
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ईश्वर का असल स्वरूप
गांधी अब्बाजी पर लिखे ‘A Grand old man’ में लिखते हैं, “मैने उन्हें हरिजनों का दोस्त ही नही बल्कि उन्हीं में से एक पाया। एक बार बहुत पहले गोधरा में जब मैंने लोगो को अस्पृश्यता विरोधी सम्मेलन के लिए शाम को वहाँ की एक हरिजन बस्ती में बुलाया तो उन्हें बडा आश्चर्य हुआ, लेकिन अब्बास मियाँ वहाँ भी हरिजनों के काम में उसी उत्साह से भाग लेते देखे गये जैसे कोई कट्टर हिन्दू ले सकता है।”
आगे लिखते हैं, “उनकी उम्र के किसी ऐसे अन्य व्यक्ति के लिए, जिसने जीवन में कभी कोई कठिनाई नहीं झेली, जेलों की सख्तियाँ बर्दाश्त करना कोई मजाक नहीं था। लेकिन उनकी श्रद्धा ने हर कठिनाई को जीत लिया।”
अब्बाजी पर लिखे हरिजन के ‘A Grand old man’ लेख गांधीजी कहते हैं, “अब्बास मियां का इस्लाम हर धर्म को समाहित करता है। जज होकर भी कैद में रहना, एशो आराम छोड़कर आमजन के साथ घुल मिल जाना कोई मामूली बात नहीं। वे कोई भी काम आधे अधूरे मन नहीं से नहीं करते थे। उनकी नज़र में ईश्वर का असल स्वरूप दरिद्रनारायण है जो बेबसों में बसता है।”
रेहाना बदरुद्दीन तैय्यबजी (जूनियर) के बडी लडकी आमिना कि बेटी था। आमिना बालिका शिक्षा के लिए काम करती थी। अब्बाजी के साथ रेहाना महात्मा गांधी के संपर्क में आई। रेहाना स्वतंत्र महिला थी।
इस्लाम की धर्मपरायणता के साथ वह कृष्ण भक्ती भी करती थी। भगवान कृष्ण के नाम पर ही उन्होॆने आत्मकथा ‘हार्ट ऑफ गोपी’ (Hart of Gopi) का शीर्षक रखा था। अब्बाजी के निधन के बाद वह आश्रम मे ही रही। गांधीजी रेहाना को ‘प्यारी पुत्री’ कहते।
गुहा लिखते हैं, “प्रत्यक्ष तौर पर बदरुद्दीन तैय्यबजी के वंश बेल में कानूनी शोधकर्ता ए. ए. फैजी (इस्लामिक लॉ पर किताब के लेखक), राजनीतिज्ञ व सामाजिक सुधारक सैफुद्दीन तैय्यबजी, पर्यावरण संरक्षक जफर फतेहली और मशहूर भारतीय कूटनीतिज्ञ व लेखक बदरुद्दीन तैय्यबजी (जूनियर) जैसी हस्तियां शामिल थीं।
मेरी मित्र लईक फतेहली खुद बदरुद्दीन के बड़े भाई शम्सुद्दीन तैय्यबजी की वंशज थीं। शम्सुद्दीन के इकलौते पुत्र अब्बास तैय्यबजी थे, जो कभी बड़ौदा राज्य के मुख्य न्यायाधीश रहे थे। शम्सुद्दीन के पोते और अब्बास के भतीजे महान पक्षी विज्ञानी सलीम अली थे, जिन्होंने न केवल भारतीय पक्षियों के अध्ययनों पर किताब लिखी, बल्कि वह दुनिया भर के पर्यावरण संरक्षणवादियों के लिए प्रेरणा के स्रोत भी थें।”
गुहा आगे लिखते हैं, “तैय्यबजी परिवार की महिलाएं भी पुरुषों से पीछे नहीं थीं। सलीमा तैय्यबजी अपनी किताब में बताती हैं कि उनके परिवार की महिलाएं पश्चिम भारत में शुरुआती मुस्लिम महिलाएं थीं, जो बुर्के से बाहर आईं, जिन्होंने विदेश यात्रा की, जो स्कूल व कॉलेजों में गईं और जिन्होंने अपने अनुभवों को कागज पर उतारने की शुरुआत भी की।
बाद की पीढ़ियों ने भी परिवार के नाम को ऊंचा बनाए रखा। अब्बास तैय्यबजी की पुत्रियों में से एक साहसी महिला अधिकार कार्यकर्ता शरीफा हमिद अली और रेहाना तैय्यबजी थीं।”
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विशुद्ध रुप से राजनैतिक
आमतौर पर देखा जाए तो बोहरा समुदाय व्यापारी माना जाता हैं। वह किसी भी राजनैतिक गतिविधियों मे सहभाग नही लेता। परंतु तैय्यबजी परिवार (Tyabji Family) विशुद्ध रुप से राजनैतिक बना रहा। जिन्होने कई साल तक भारत के स्वाधिनता संग्राम मे सक्रिय हिस्सा लिया।
अब्बाजी के तबियत नासाज होने पर बेटी रेहाना द्वारा गांधी को लिखे चिट्ठी के जवाब में गांधीजी लिखते हैं, “जिसे बचाना चाहता है, खुदा उसे किस तरह बचा लेता है। कैसे सुंदर प्रसंग उत्पन्न करता रहता है। वह चतुर सूत्रधार है। जब इच्छा करता है, डोर पकड़ कर हमे नाच नचाने लगता है।
उसकी मर्जी के मुताबिक नाचते है तो वह डोर खीचता चला जाता है, किन्तु हमें इसका पता ही नहीं चलता। यदि हम उसके इशारें पर नाचना न चाहे तो हमें उसका डोर खीचना खटकता है और हम शिकायत करने लगते है। तू अब्बाजान को यह पढ़कर सुनाना और उनका चेहरा भाँप कर मुझे लिखना। उनमें खत सुनने योग्य शाक्ति न हो और डाक्टरों की इजाजत न हो तो पत्र दबा लेना।”
इस चिट्ठी के दो हफ्ते बाद अब्बास तैय्यबजी ने 9 जून 1936 को मसूरी के साउथ वुड इस्टेट मे अंतिम सांस ली। निधन कि तार पाकर 10 जून 1936 को बंगलोर से लिखे एक खत में गांधीजी कहते हैं,
“मेरा एक सबसे पक्का मित्र चला गया। इस क्षतिमें मैं माताजी और तुम्हारा बराबर का सहभागी हूँ। तुम्हारे पिता वास्तव में गुजरात के पितामह और देश के वफादार सेवक थे, जिन्होंने कभी हिन्दू-मुसलमान में भेद नही माना। सरदार और अन्य लोग इस शोक में शामिल हैं।”
11 जून को रेहाना को लिखे दूसरे खत में गांधी लिखते हैं, “हमारे लेखे तो अब्बाजान सदा जीवित है। यह देह तो ‘चन्द रोज’ का तमाशा है। किन्तु उसमे रहनेवाली आत्मा तो अमर है। उनकी देह को तो हमने कब्र में रख दिया। उसके साथ क्षणिक संबंध था। उसमे निवास करनेवाला देहधारी, जिसे हम अपना मानकर प्यार करते थे, आज भी हमारी निगहबानी कर ही रहा है।”
कलीम अज़ीम, पुणेमेल:kaimazim2@gmail.com
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