एक नौज़वान आज़मगढ़ से लाहौर के लिए निकला। उसके जेब में केवल 25 रुपये थे। आज़मगढ़ से जौनपुर तक उसने घोडागाड़ी कि यात्रा की जिसमें 3 रुपये खर्च हो गए। जौनपुर से रेल के जरिए वह सहारनपुर पहुंचा, जिसमें 7 रुपये लगे। सहारनपुर से रेलवे में बैठकर वह लाहौर पहुँचा। इस सफर में उसे टिकट के लिए 5 रुपये चुकाने पड़े।
नौजवान जब ठिकाने पर पहुँचा तो इसके जेब में महज 10 रुपये बचे थे। उसने रहने के लिए एक कमरा किराए पर लिया, जिसके दो रुपये चुका दिए। साथ ही 8 रुपये देकर एक दुकान पर दो महीने तक का ख़ाने का इंतजाम किया।
दो महीने बाद जब हाथ बिलकूल खाली हो चुका, तब उसने एक वालिद को खत लिखा, जिसमें वह कहता हैं, “आपकी नाखुशी के वजह से मैंने आपको माली (आर्थिक) तंगी के बारे में नहीं लिखा और किसी तरह गुजारा हुआ, अब हाथ बिल्कुल खाली हो चुका है, उम्मीद हैं आप ध्यान देंगे।”
खत लिखने वाले नौजवान का नाम मुहंमद शिबली था। जो आगे चलकर ‘अल्लामा शिबली’ (Allama Shibli) नाम से दुनियाभर में विख्यात हुआ। शिबली ने ज्ञान और विद्यार्जन कि अपनी ललक को पाने के लिए बेहद कठिन दौर और तंगदस्त हालात को स्वीकार कर लिया था, जिसकी कई कहानियां शिबली पर लिखी जीवनीयों मे मिलती हैं।
लाहौर यात्रा से शिबली का उद्देश्य मौ. फैजूल हसन सहारनपुरी जो ओरिएंटल कॉलेज में प्रोफेसर थे, उनसे इल्म हासिल करना था। आप उस जमाने में भारत में अरबी के उच्च कोटी के साहित्यकार थे। अरबी ज्ञान के बारे में अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। यही आकर्षण था जो शिबली को आज़मगढ़ से लाहौर तक ले आया।
ज़फर अहमद सिद्दिकी अपनी किताब ‘शिबली’ में लिखते हैं, “अफसोस कि बात है कि मौ. सहारनपुरी के पास शिबली को पढ़ाने के लिए बिल्कुल भी समय नहीं था। आखिर में शिबली की पढ़ने के जिज्ञासा को देखते हुए मौलाना ने इंतजाम किया, घर से कॉलेज तक के सफर के दौरान जितना समय लगता है उसी में वह पढ़ाया करेंगे।”
बचपन से इल्मी जिज्ञासा
मुहंमद शिबली का जन्म जून 1857 में उत्तर प्रदेश के बिंदवाल (Bindwal) में हुआ। शिबली उनके बडे बेटे थे। शिबली के जन्म तिथि को लेकर कई विवाद हैं, सिद्दिकी ने इसको 1 जून कहा हैं। उनके पिताजी का नाम शेख हबीबुल्लाह था, जो जमींदार, एक नील के व्यापारी और आज़मगढ़ के प्रतिष्ठित वकिल थे।
आगे चलकर इमाम अबू हनिफा का चरित्र ‘सिरतुल नुअमानी’ लिखने के बाद शिबली ने अपने नाम के साथ ‘नुअमानी’ जोड दिया। अबू हनिफा इस्लामी स्कूल ऑफ थॉट के ‘हन्फी’ विचारधारा के प्रवर्तक और पहले चार प्रसिद्ध इमामों मे से एक थे। अबू हनिफा का पूरा नाम ‘नुअमान बिन साबित’ था जबकि अबू हनिफा उनका कौल था।
मुहंमद शिबली आगे ‘मौलाना शिबली नोमानी’ के नाम से मशहूर हुए। उनकी माँ और वालिद धार्मिक प्रवृत्ती के थे। उस समय के परंपरा के अनुसार शिबली की शुरुआती पढ़ाई अरबी से हुई। अक्षर ज्ञान के बाद उन्होंने कुरआन मुकम्मल कर लिया। जिसके बाद उनकी विधिवत शिक्षा शुरु हुई। जिसके लिए उन्हें जौनपुर और ग़ाजीपुर जाना पडता था।
1873 के आसपास उनके पिता और गांव के गणमान्य व्यक्तियों ने साथ आकर गांव बिंदवाल में एक मदरसा स्थापित किया। उसके प्रधान के तौर पर मौलाना फारुख़ चिरिया कोटि नियुक्त हुए। उनकी देखरेख में जिसमें शिबली नोमानी पढ़ने लगे।
सय्यद सुलैमान नदवी अपनी उर्दू किताब, ‘हयाते शिबली’ में लिखते हैं, “उनके उस्ताद केवल अरबी के विद्वान नही थे, बल्कि वे साहित्य, शायरी और संगीत के जानकार थे। शिबली को उन्होंने सब तालिम दी। उस्ताद शिबली को अल सुबह उठाते और भैरवी गीत से तालिम शुरु हो जाती, रात को सोने तक विविध विषय शिबली पढ़ते। यहीं से उनमें पढ़ने के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई।”
रुस्तुम पेस्टोनजी भाजीवाला अपनी किताब मौलाना ‘शिबली अँड उमर खय्याम’ में लिखते हैं, “मौलाना फारुख़ बडे इस्लामिक स्कॉलर थे। अरबी और फारसी के विषेशज्ञ थे। वह ग्रामर, लॉजिक, गणित के साथ वे साहित्य के भी विद्वान थे। वे (उस्ताद) शिबली को, ‘अना असद ओ मत शिबली’ कहते, इसका मतलब “मैं शेर हूँ और शिबली मेरा बच्चा।”
रामपूर से लाहौर इल्मी यात्रा
मदरसे के शिक्षा के बाद शिबली के पिताजी चाहते थे, वह घर के कामों मे हाथ बटाये। पर शिबली को यह मंजूर नही था। उस्ताद फारुख़ चिरिया कोटि के सानिध्य में शिबली कि इल्म कि भूख और तेज हो गई थी, वे आगे पढ़ना चाहते थे। आगे कि शिक्षा के लिए शिबली मौ. इरशाद हुसैन रामपुरी के पास रामपूर जाना चाहते थे। जिसके लिए पिताजी का विरोध था, पर उनकी माँ शिबली के साथ थी।
मौलाना रामपुरी इस्लामी धर्मशास्त्र के विद्वान थे। उनकी गणना धर्मशास्त्र के विषेशज्ञो (Expert) के रूप मे होती थी। उनकी विद्वत्ता और प्रसिद्धी पूरे प्रदेश में फैली हुई थी। शिबली ने यहां सालभर रहकर धर्मशास्त्र की पढ़ाई की। ज्ञान मार्ग पर शिबली कि पहली यात्रा मानी जाती हैं।
यहां से शिबली कि इल्म हासिल करने कि जद्दोजहद शुरू होती हैं। घर के विरोध के बावजूद उन्होंने आगे कि पढ़ाई के लिए लाहौर जाने का फैसला किया। इसबार उन्हें काफी विरोध का सामना करना पडा। इस बार माँ भी उनके खिलाफ गई। पर शिबली ने हार नही मानी। इल्म हासिल के लिए कुछ भी करना चाहते थे। उन्होंने अपनी जिद नही छोडी।
शिबली के दोस्त सुलैमान नदवी लिखते है, “बहुत मिन्नतों बाद वालिद हबिबुल्लाह राजी हुए। खर्चे के लिए उन्होंने शिबली को 25 रुपये थमा दिए।” नदवी लिखते है, लाहौर के उनके दिन बेहद कठिन और मुश्कीलभरे थे। पेस्टोनजी भी इसपर सहमती दर्ज कराते हुए शिबली के लाहौर का संघर्ष बयान करते हैं।
लाहौर में मौलाना फैजूल हसन सहारनपुरी से औपचारिक शिक्षा पुरी करने के बाद 1876 में इस्लामिक विद्वान के रुप में शिबली आज़मगढ़ लौटे। जिसके बाद उन्होंने लखनऊ, दिल्ली, सहारनपूर और मुंबई के इल्मी इदारों का दौरा भी किया।
तंगी और बेबसी का दौर
आज़मगढ़ में उनके इल्म कि कोई कदर नही थी। पाँच-सात बरस तंगी और बेरोजगारी में बीत गए। इस बीच उन्होंने कानून कि पढाई पूरी की। पिताजी के कहने पर वकालत शुरू की। शिबली वकालत को गैरइल्मी समझते थे। कुछ ही दिनों मे वह काले कोट और सफेद झुठ वाले उस व्यवसाय से उकता गए।
आर्थिक संकट और बेरोजगारी से बचने के लिए उन्होंने कई छोटी-बडी नौकरीयाँ की। नौकरियों में उनकी असफलता का मुख्य कारण यह भी था कि वे इन कामों को आत्म गौरव और आत्म अभिमान के विरुद्ध समझते थे। नौकरी नही बल्कि ज्ञान हासिल करना उन्होंने अपने जिन्दगी का मकसद बना लिया था। इसलिए उन्होंने अपना पढ़ना और ज्ञान हासिल करना जारी रखा।
सिद्दिकी लिखते हैं, इस उधेड़बुन में भी ज्ञान और साहित्य के जिज्ञासा से कतई दूर ना हटे और ना ही अपने आत्मविश्वास और मनोबल में कोई कमी आने दी। अपने दोस्तों को लिखे खत में वह कहते हैं, “उन्हें असफलता और नाउम्मिदी इसलिए मिली क्योंकि उनकी योग्यता को जमाने ने समझा नही, वह दिन दूर नहीं जब कि शिबली, शिबली होंगे।”
अलीगढ़ मे हुआ विकास
इस बीच उनके किसी दोस्त नें उन्हें अलीगढ़ कॉलेज का एक इश्तेहार दिया, जिसमे अरबी के प्रोफेसर के लिए जगह का प्रस्ताव था। शिबली ने आवेदन किया और इस तरह वे अलीगढ़ पहुंचे। अलीगढ़ आने से पहले उनकी तीन-चार किताबे प्रकाशित हो चुकी थी। जिसकी उर्दू जगत में काफी चर्चा भी हुई थी।
अलीगढ़ आने के बाद उनकी विद्वत्ता में सही मायनों मे बढोत्तरी हुई। सर सय्यद के ज्ञान परंपरा से वे काफी प्रभावित हुए। यहां उन्हें पढने के लिए प्रर्याप्त वातावरण मिला। यहां के साइन्टिफिक सोसायटी से उन्हें कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मिले। जिससे उनके ज्ञान और व्यक्तित्व के प्रतिभा में चार चांद लग गए।
इस बारे में उन्होंने कहा था, “यह सच है कि अगर मेरी जिन्दगी का कोई हिस्सा इल्मी या तालीमी जिन्दगी करार पा सकता है तो इसकी शुरुआत, इसकी तरक्की, इसका विकास जो कुछ हुआ है इसी कॉलेज से हुआ है... मैंने जो कुछ सीखा है और जो कुछ तरक्की की है वह इसी कॉलेज की बदौलत है। इस नजरिए से जिस तरह मैं इस कॉलेज का प्रोफेसर हूं, उसी तरह इसका एक शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी भी हूं।”
सिद्दिकी लिखते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं कि शिबली में प्रतिभा के लक्षण बचपन से ही विराजमान थे रचना और आलोचना की क्षमता है उनके स्वभाव का अंग थी। लेकिन जहां तक इन संभावना और क्षमताओं के उजागर होने की बात है, वह यह अलीगढ़ में सर सय्यद के संगति से ही मुमकीन हो सका।”
शिबली अलीगढ़ मे 16 साल तक रहे। ‘स्वाधीनता आंदोलन’ और ‘राष्ट्रवाद’ के मुद्द पर प्रिन्सिपल मॉरिसन और सर सय्यद से तिखी बहस के बाद शिबली ने अलीगढ़ हमेशा के लिए छोड दिया था। अलीगढ़ मे रहने के दौरान उन्होंने बहुत कुछ सीखा। आधुनिक युग की अपेक्षाओं आग्रह हो और परिस्थितियों की गहराई को समझा। अध्ययन में व्यापकता, लेखन का कौशल सीखा। पश्चिमी साहित्य तथा पाश्चात्य लेखकों के कृतियों का अध्ययन किया।
सादगीपसंद व्यक्तित्व
शिबली का कद ऊंचा और माथा चौड़ा था। आंखें बड़ी और नाक लंबी नुकीली, चेहरा लंबा औऱ खड़ा, रंग गेहुआ हाथों की उंगलियां लंबी, घनी और लंबी दाढ़ी, दाढ़ी न लंबी न छोटी बीच की। शिबली आमतौर पर मलमल का कुर्ता, सफेद पजामा और ढीली शेरवानी पहनते। टोपी ऊनी या सादा रंग कपड़े की होती थी। टोपी लगभग आधे रुमाल से ढकी हुई रहती।
शिबली बेहद सादगीपसंद इन्सान थे। सादा और अच्छा पका हुआ खाना पसंद करते। सफाई के बेहद शौकिन थे। अल सुबह जल्दी उठ जाते। बिस्तर पर लेटे लेटे कुरआन का मौखिक पाठ करते। फज़र की नमाज़ से फारिग़ होकर चाय पीते। चाय में दूध का इस्तेमाल गैरजरुरी समझते। इसके बाद मैं पढ़ने के मेज पर आ जाते। 10 बजे तक लेखन कार्य में व्यस्त रहते। दोपहर का खाना 10 बजे के आसपास खा लेते।
कॉलेज से लौटकर लिखने के लिए जरुरी सामग्री एकत्रित करते। शाम को उनके घर मिलने वालों का सिलसिला शुरु हो जाता, जो मगरिब तक चलता। रात का खाना भी जल्दी ही खा लेते और 9 बजे तक सोने के बिस्तर पर जाकर लेट जाते।
विभिन्न बीमारियों के वजह शिबली का स्वास्थ्य समय से पहले गिर गया था। बाल अधेड़ अवस्था में ही सफेद हो गए थे। अपनी ज्ञान हासिल करने कि लालसा और वैचारिकता कि स्थिती ऐसी रही की उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर बिलकूल ध्यान नही दिया। जिसके परिणामत: नवम्बर 1914 में असमय उनका निधन हुआ। उस समय उनकी उम्र केवल 57 बरस थी।
लिखी चर्चित किताबे
अलीगढ़ में शिबली ‘अल्लामा’ याने विद्वान के रूप में स्थापित हो चुके थे। उन्हें ‘शम्स उल उलेमा’ उपाधी मिल चुकी थी। उनकी कीर्ती दूर-दराज तक पहुंच चुकी थी। यहां रहकर उन्होंने उर्दू में कई महत्वपूर्ण ग्रंथो कि रचनाए की। मौ. शिबली नोमानी के नाम पर कूल 30 किताबे हैं। जिसमें 25 उनके हयात में प्रकाशित हो चुकी थी।
चरित्र लेखक के रूप में उन्होंने कई इस्लामिक विद्वानों की जीवनीयां लिखी। जिसमें सिरतुल नबी (पैगम्बर चरित्र), अल फारुख, अल मामून, सिरतुल नुअमानी, (इमाम अबू हनिफा) अल गज़ाली, मौलाना रुमी, औरंगजेब महत्वपूर्ण हैं।
शिबली एक इस्लामिक चिंतक, राजनैतिक विश्लेषक, इतिहासकार, कवि, साहित्यकार और समिक्षक भी थे। उन्होंने कई वैचारिक किताबे लिखी। जिसमें अल जजिया (अर्थ विषयक), इल्मे कलाम, (मुस्लिम विचारधारा) मुसलमानों कि गुजिश्ता तालिम, इल्मुल कलामी, कुतुब खाना ए अस्कंदरिया, सफरनामा रोम ओ मिस्र, ओ शाम (परराष्ट्र), मवाजना ए अनीस ओ अदबीर (साहित्य समीक्षा), शेर इल आलम (पर्शियन कविताए) जैसी प्रमुख किताबे शामिल हैं।
इस छोटेसे लेख में उनके वैचारिक प्रतिभा का जाय़जा नही लिया जा सकता। और ना ही उनके साहित्य, शायरी तथा स्वाधीनता आंदोलन कि सक्रीयता को लेकर चर्चा की जा सकती हैं। इस मौजू पर आगे कभी लिखेंगे। पर शिबली के वैचारिक प्रतिभा को लेकर इतना जरुर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने लेखन से शिक्षा और ज्ञान परंपरा में आधुनिकता का पुरस्कार किया हैं। पारंपरिक इल्मी इदारो (शाखाओं) के साथ आधुनिक ज्ञान परंपरा को जोडा हैं। उन्होंने नए जमाने के विषय, चुनौतीयाँ समस्या और अंग्रेजी भाषा को महत्व दिया।
जब शिबली नदवतूल उलूम (धार्मिक संस्था) (Nadwatul Ulum) के सचिव थे, तब उन्होंने मदरसें का नया सिलेबस डिजाईन किया। साथ ही मदरसे कि पढ़ाई में हिन्दी और संस्कृत के पढ़ाई के महत्व को रेखांकित किया। इतिहास के साथ संस्कृति कि पढ़ाई को उन्होंने अहमियत दी। वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता को इतिहास को समझने और ज्ञान परंपरा विकसित करने के लिए बेहद जरुरी साधन मानते थे।
शिबली ने अपने हयात मे आज़मगढ़ मे ‘दारुल मुसन्निफिन’ (लेखक संघ) (Darul Musannefin in Azamgarh) कि नींव रखी थी। जो मौलाना हमीदुद्दीन फराही, मौलाना सुलैमान नदवी, मौलाना आज़ाद के सहयोग से शिबली के मौत के तीन दिन बाद में अस्तित्व में आया। जिसका उद्देशनये लेखक तयार करना और वैचारिकता कि बहस को आगे बढ़ाना था। आज़मगढ स्थित इस संस्था ने अब तक कई लेखक तयार किए हैं और अनेकों किताबो का प्रकाशन किया हैं।
इसी केंद्र कि ओर से अल्लामा शिबली नोमानी कि उर्दू किताबे, अंग्रेजी और हिन्दी में अनुवाद किए गए हैं। ‘शिबलीज्म’ को समझने के लिए यह किताबे काफी उपयोगी साबित हो सकती हैं।
कलीम अज़ीम, पुणे
मेल :kalimazim2@gmail.com
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