उमर तुमने फरवरी की दिल्ली कितने दिनों से नहीं देखी है? पत्तों के उतर जाने के बाद इन
पेड़ों को कब से नहीं देखा है? तुम्हारी जेल की दीवारों पर पतझड़ आते हैं क्या? कोई पत्ता उड़कर तुम्हारे बिस्तर तक आया है? अदालत की दीवारों पर तो पतझड़ आते हैं, यहां के पत्ते उड़कर किसी वकील की
कार में बैठ जाते हैं. तीन मूर्ति लेन में किसी जज के घर के बाहर गिरे पत्तों में
मिल जाते हैं. पतझड़ में पत्ते भी तुम्हारी याचिका की तरह लौट जाते हैं, उसी मिट्टी में, जहां से खाद, पानी लेकर वे पेड़ों की फुनगी तक पहुंचे थे.
दिल्ली के इन शाही पेड़ों को कभी तो बुरा लगता ही होगा? जब कोई इनकी छाया से निकलकर धूप में बैठ जाता होगा. दिल्ली में एक
लकड़हारा आया है. उसकी आहट से पेड़ों में दहशत छा जाती है. पत्ते अपने साये से सहम
जाते हैं. फलों के रस सूख जाते हैं. लकड़हारे का आदेश जारी हो चुका है, पेड़
रहेंगे मगर उसकी छाया नहीं रहेगी. याचिकाएं पेश होंगी. सुनवाई नहीं होगी.
तुम्हारी जैसी सभी याचिकाओं को दिल्ली के पेड़ों पर टांग देना चाहिए. यूं ही
जैसे दिल्ली में जगह-जगह जी 20 के पोस्टर अब भी
टंगे मिल जाते हैं. अदालतों के आने के पहले इन पेड़ों
के नीचे पंच बैठा करते थे. बाद में इन पेड़ों को काटने की पंचायत इस दिल्ली में
होने लगी.
क्या तुम्हें पता है कि इन पेड़ों पर कितने फैसले हुए. 1857 की दिल्ली में हजारों लोगों को टांग कर तोप से उड़ा दिया गया. इन्हीं पेड़ों
पर हिंदू,
मुसलमान सब टांगे गए, लटकाए गए और तोप से उड़ा दिए गए. आज भी यही पेड़ अदालतों के काम आ रहे हैं. पेड़ों से ही बनती है. अदालतों की कुर्सियां, खिड़कियां,
सीढ़ियां और अलमारियां.
तुम्हारी दोस्त अपेक्षा ने लिखा है. लिखते रहती है पिछली मुलाकात में आधा घंटा
बात कर पाई. उसने लिखा है तुम्हारे अंदर बातें
भरी हुई हैं, उन बातों में क्या दिल्ली भी बची
हुई है? इतना कुछ भरा हुआ है फिर भी एक शब्द नहीं कहा क्यों ली तुमने वापस अपनी याचिका?
मैं तुम्हारे बारे में जब भी सोचता हूं दिल्ली में कहीं भी पेड़ दिख जाते हैं. बीकानेर हाउस में मैंने ऐसा ही एक
पेड़ देखा. गुलाम मोहम्मद शेख की एक बड़ी सी
पेंटिंग देखने गया था. इतनी पहल थी. मगर सबके चेहरे पर उदासी की रेखाएं तैर रही थी. शायद इसलिए मैं तुम्हें यहां
ढूंढने लगा. 18वीं सदी की पेंटिंग से ली गई इस नाव पर वैन गोह और एमएफ हुसैन को साथ बैठे
देखा. वहीं बैठे थे रविंद्रनाथ टैगोर. तुम नहीं थे जस शहर की नदी सूख गई हो. वहां पर एक ऐसी पेंटिंग लाई गई है इसका विस्तार अखबार के
संसार से आगे का लगा. क्या यह किश्ती है जो तूफान में फंस गई है? या इसमें सवार लोगों के बोझ से लहरें सिमट गई हैं? इसी नाव पर एक छोटा सा पेड़ दिखा, जिस पर गौरी लंकेश और कलबुर्गी टंगे हुए हैं. दाभोलकर भी इसी पेड़ पर है. इन
सभी का इन पेड़ों पर होना, क्या कोई संयोग
है?
और तुम्हारा नहीं होना!
इन घटनाओं को कोई पत्रकार दर्ज नहीं कर रहा? पत्रकार सरकार की तारीफ में पेंट कर रहे हैं और पेंटर पत्रकार की तरह दर्ज कर
रहे हैं, उन लोगों को जिन्हें गोलियो से उड़ा
दिया गया,
जिन्हें जमानत नहीं मिली, इंसाफ नहीं मिला. दिल्ली के लोग पेड़ पर टांग दिए जाने के डर से आज तक सहमे हुए हैं.
“एक कॉमन मैन का विश्वास न्याय जगत से बना है... हमें उस विश्वास को बरकरार
रखने में अपना योगदान देना चाहिए. क्योंकि अगर लोकतंत्र में जनता का विश्वास
डगमगाया, तो फिर उसको सड़कों पर उतरने में
देर नहीं लगेगी. उस विश्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि हमें भारत के
लोकतंत्र के स्तंभो को और मजबूती प्रदान
करनी चाहिए.” यह आवाज तुम्हारी नहीं है, योगी जी की है. चिंता मत करो, चीफ जस्टिस के
सामने उन्होंने यह बात कह दी. मगर उन्हें क्यों ऐसा लगा कि न्यायपालिका इंसाफ नहीं
करेगी,
तो जनता सड़कों पर उतर आएगी?
इन पेड़ों को देखो उमर! बेले लिपट गई है पेड़ और ऊंचा हो गया है. जितना ज्यादा
ऊंचा होता है, बेले उतनी ही ऊपर चढ़ जाती हैं.
पेड़ों को कसने से पेड़ सड़क पर उतर आएंगे क्या?
कितने दिनों से तुमने जनपथ नहीं देखा होगा. जनपद की दुकानों से अब भी लड़के अपनी
प्रेमिका के लिए कान की बालियां खरीद रहे हैं, रील्स बनाने के लिए. दिल्ली भर के प्रेमी भागकर सीपी ही
जाते हैं. सीपी उनका तिहाड़ है. कुछ तो अब भी बस स्टॉप पर इंतजार कर रहे हैं. बस
का इंतजार जमानत की सुनवाई के इंतजार से भी लंबा होता है. पहले से पता होता है कि बस कहीं रास्ते में खराब हो गई
होगी, जिस पर नीम की पत्ती टांग कर
ड्राइवर लंच के लिए चला गया होगा.
कार के डैशबोर्ड पर यह माइक नहीं है. कार परफ्यूम है. माइक का इस्तेमाल उमर अब
कहां होता है. जब किसी को कुछ कहना ही नहीं, तब फिर इसका क्या काम? कोई भी माइक हाथ
में लेकर तुम्हारी याचिका पढ़ने की इस शहर में हिम्मत नहीं करेगा. बस तुम्हारे
बारे में कुछ रिटायर्ड जज आज भी बोलते रहते हैं ..
जस्टिस मदन लोकूर की आवाज.... केसेस बीन मेंशन ट ऑफ उमर खालिद आस्किंग फर बेल
नॉट लिस्टेड फॉर लाँग टाइम ऑर मोर देन टू इयर, सो 13 जजमेंट. अल्टीमेटली द लॉयर सेड ए विड्राव द केस. वाई बिकॉज जस्टिस कोरियन जोसेफ
मेंशन देन ट रिजल्ट गंग टू बी ए दे नू ट रिजल्ट टू बी बिकॉज इट आपरेंटटली लिस्टेड फॉर ए पर्टिकुलर बेंच. एंड देन यू द फेट ऑफ दैट केस इ
गोइंग टू बी..
इस आजाद स्पेस में, जेल की तरह जीते जीते दिल्ली वालों को भूलने की आदत हो गई है. उमर खालिद लोग
तुम्हें भूल चुके हैं. इस शहर की रोजमर्रा की डायरी से तुम माइनस हो गए हो. हजारों
याचिकाओं में से तुम्हारी याचिका के माइनस हो जाने के बाद भी अदालतों में सुनवाईयां बंद नहीं हुई हैं. जनपद और सीपी के पीछे के गलियारों में लोगों ने जाना बंद नहीं किया है. जहां
उनकी नजर सस्ते सामान खोज रही है. इन्हें तो याद भी नहीं कि इनके बीच से एक उम्र
गायब है,
एक उम्र माइनस है.
एक तरफ से माइनस हो जाना, माइनस मुद्रिका
हो जाना है,
यानी दूसरी तरफ से लौटना होता है. किसी गणित के मास्टर का
काम होगा रिंग रोड पर चलने वाली बसों को माइनस और प्लस के निशान देना. प्लस वाली
मुद्रिका रिंग रोड की एक साइड से चलती है. माइनस वाली बस दूसरी साइड से लौट रही होती है. तुम दिल्ली
को इसी तरह याद करते हुए जेल से निकल जाया करो, अपनी कल्पनाओं में. अपने बिना इस दिल्ली को देखा करो उमर खालिद.
डॉक्टर एडिथ बोन इसी तरह तो घूमा करती थी. सात साल के लिए बुडापेस्ट की जेलों में बंद कर दी गई थी.
ऐसे कमरे में जहां इस तरह की हवा और रोशनी के आने पर पाबंदी थी जेल जाने से पहले
डॉक्टर बोन ने जिन-जिन शहरों को देखा था जिन-जिन फुटपाथ पर चली थी, उन पर वह रोज चलने लगी. अपनी कल्पनाओं में जेल से निकल
जाया करती थी और चलती थी. बहुत हिसाब से चलती थी. धीमे-धीमे. कभी पेरिस, कभी मिलान, कभी वेनिस,
कभी फ्लोरेंस. पांव में बेड़ियां हैं मगर मन लंदन की सड़कों पर दौड़ रहा है.
डॉक्टर बोन हर दिन चला करती थी. चलने का हिसाब दिमाग में रखा करती थी कि आज
लंदन की सड़कों पर कितना चलना हुआ? कहां-कहां गई और
कहां-कहां जाना बाकी है? क्या तिहार जेल की लाइब्रेरी में डॉक्टर एडिथ बोन की ‘सेवन इयर्स ऑफ सॉलिटरी’
है. तुम्हारे लिए नहीं, जेल के अफसरों के लिए पूछ रहा हूं.
उमर तुम भी डॉक्टर एडिथ बोन की तरह कभी जेएनयू चले जाया करो. इन दिनों वहां
बोगनवेलिया की बहार है. बिना सुगंध के इस सुंदर फूल के रंगों का जलवा तुम्हें याद
तो आता ही होगा. जेनएयू 615 नंबर की बस लेकर
जनपद आ जाया करो.
चाहो तो पहले ही उतर जाओ और सरोजिनी से अपने लिए कोई शर्ट खरीद लो. और उस साथी
के लिए एक जोड़ी जूते, जो जेल तक चलकर आती है
तुमसे मिलने. वैसे तुम वहां भी जा सकते हो, जहां से तुम अपनी याचिका लेकर लौटे हो.
वहीं आसपास बहुत सारे घने पेड़ हैं. उन पेड़ों को गिन सकते हो. पेड़ों की
गिनती करते हुए इंसाफ की उम्मीदों के दिन भी गिने जा सकते हैं.
1956 में जब बुडापेस्ट की खतरनाक जेल से एडिथ बोन बाहर आने वाली थी, दर्जनों कैमरों और उनके लेंस बैरल की तरह निशाना साध कर इंतजार कर रहे थे. वे
अपने कैमरे में बोन के चेहरों की झुरियां दर्ज करना चाहते थे. उनकी धसी हुई आंखों
को कैप्चर कर लेना चाहते थे. मगर सात साल तक जेल में रहने के बाद 68 साल की यह महिला जब बाहर आई तब ठीक तुम्हारी तरह
मुस्कुराती हुई. जैसे तुमने हवा में हाथ उठाए थे और
हंस दिए थे किसी बच्चे की तरह. बोन उस दिन आसमान की तरफ देखती हुई तेज कदमों से सड़क पार कर गई. किसी को लिखने के लिए दुख की झलक नहीं मिली. एक रिपोर्टर ने बहुत मुश्किल से लिखा. उसने लिखा डॉक्टर बोन लड़खड़ा रही थी. उस बेचारे को पता
नहीं था कि जेल वालों ने उन्हें गलत नंबर के जूते दे दिए थे. तुम्हारे बारे में भी
तो मीडिया ऐसे ही लिखता है. वह तुम्हें टूटा हुआ देखना चाहता है. मगर तुम हंसता
हुआ दिख जाते हो.
डॉक्टर एडिथ बोन ने टॉलस्टॉय की कहानी के कैदी से यह सब सीखा था. जेल के कमरे
में बंद होते हुए भी बाहर
निकलकर घूमने का ख्याल. मैं भी उस कैदी के बारे में पढ़ना चाहता हूं जो जेल के बंद कमरों से काल्पनिक
यात्राओं पर निकल जाया करता था. मैंने टॉलस्टॉय की एक भी किताब नहीं पढ़ी. ‘वॉर एंड पीस’ का तो नाम मत लो. दैनिक जागरण के पन्ने पलट कर ही वर एंड पीस पढ़ने की भूख मर
जाती है. हजार शेक्सपियर, दर्जनों ऑस्टिन, सैकड़ों प्रेमचंद से विरक्ति हो जाती है. उन्हें पढ़ने की समझ से मुक्ति का
मार्ग है दैनिक जागरण! तुमने अपनी खबर अखबार के किस पन्ने पर देखी थी, किसी ने छपी है? पेड़ों से पूछो जिन्हें काटकर अखबार के यह कागज बनते हैं.
उन अखबारों में गजा की खबरें अब नहीं छपती हैं. नेतनयाहू एक पूरी आबादी को
नेस्तनाबूद कर देने के फैसले पर
अड़े हैं. गजा में मारे गए बच्चों
की कब्र पर जो इमारतें बनेंगी, उसके लिए भारत से मजदूर भेजे जा रहे हैं. इसराइल को इंसान नहीं मजदूर चाहिए. इन लड़कों में इसराइल जाने का उत्साह अमेरिका जाने से ज्यादा है.
यहां दिल्ली में कुछ लोग जुटे हुए हैं, गजा में नरसंहार के खिलाफ अपनी आवाज
दर्ज कराने. इन्हें पता है खबर कहीं
नहीं छपेगी. मगर जमा हो रहे हैं. तुम होते तो तुम्हारा भाषण सबसे अलग होता. यहीं लोग तुम्हारे लिए भी जमा होते हैं. यहीं लोग गौरी लंकेश के लिए भी जमा हुए थे.
उमर खालिद दिल्ली के पेड़ों पर केवल प्रेत नहीं होते हैं, प्रेताआत्माएं नहीं होती हैं, अंतरात्माएं भी होती हैं. उन अंतरात्माओं में तुम बहुत याद किए
जाते हो.
हुकूमत अगर प्रेतात्मा है, तो यहीं लोग अंतरात्मा है. तभी तो कुछ लोग अब भी तुम्हारी बात करते सुने जाते हैं.
“द ग्रेटेस्ट ग्रो अप टू डेमोक्रेसी फोर्थ पिलर हैस फेल्ड कंट्री. फरगेट अबाउट फर्स्ट थ्री पिलर. फोर्थ पिलर द मीडिया. देव फेल्ड टू डिफेंड डेमोक्रेसी फेल्ड टू डिफेंन्स कान्स्ट्ट्यूशन्स दे हैव फेल्ड टू
डिफेंड द ट्रुथ....”
तुम्हारे अब्बू जेल में होने के दिन गिनते हैं, 100 दिन, 500 दिन, हजार दिन. उन तमाम दिनों का हिसाब लिए प्रेस क्लब में
दिखाई दे जाते हैं. बाप तो बाप होता है. जिस दिल्ली में तुम नहीं हो, वहां तुम्हारे होने की
जिद अब्बू के चेहरे पर दिखाई दे रही थी.
तुम्हें पता है इन दिनों दिल्ली में निदरलँड से ट्यूलिप के फूल मंगाए गए हैं 3 लाख ट्यूलिप रेडियो पर जॉकी कुछ इसी तरहके घोड़े हांक रहा था. नीदरलैंड से ट्यूलिप आए हैं.... नीदरलैंड से ट्यूलिप आए हैं.... 80 लाख से अधिक रुपए खर्च हुए हैं.... दिल्ली में ट्यूलिप लाने के लिए....
प्रदीप कृष्ण ने लिखा है ऐसे तो दिल्ली में
यह लोग पोलर बेयर भी पालकर दिखा देंगे. तब तुम एक दिन के लिए जमानत मांग लेना. कहना कि दिल्ली में पोलर बेयर आया है. मुझे सफेद भालू देखने है. बादशाह चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकता? वह एक दिन इसी तरह चांद उतार लाएगा. होने को तो श्रीनगर में भी ट्यूलिप होते हैं. मगर नीदरलैंड से ट्यूलिप मंगाने की बात कुछ और ही होती है. आत्मनिर्भर दिल्ली थोड़ी सी ग्लोबल होती है.
दिल्ली में ट्यूलिप को देखते देखते मुझे जरूल की याद आ गई. तुमने जरूल के फूलों के बारे में सुना है, मैंने नहीं सुना था. आदिवासी कवि जसिंता केरकेटा जो जंगलों में रहती है, दिल्ली में नहीं रहती, जंगलों को लिखती है, दिल्ली पर नहीं लिखती. जसिंता ने जरूल पर कविता लिखी है. जरूल की यह तस्वीर जसिंता ने तुम्हारे लिए भेजी है. दरअसल जसिंता को भी जरूल का पता नहीं था. सिब्रिइल सिक्का ने उसे जरूल के बारे में बताया. गुमला जिले के सरखी पहाड़ पर जरूल के फूल खिलते हैं. जसिंता की कविता की किताब आई है प्रेम में, पेड़ होगा.
जंगल से गुजरते हुए उसने ओक की पत्तियों को चूमा,
जैसे अपनी मां की हथेलियों को चूमा
कहा, यह पेड़ मेरी मां का हाथ पकड़कर बड़ा हुआ है
इसके पास आज भी स्पर्श है
जंगल का हाथ पकड़कर मेरे पुरखे भी बड़े हुए
वे नहीं है, पर यह आज भी वहीं खड़ा
है,
इसने मेरे पुरखों की स्मृतियों और स्पर्श को
बचा कर रखा है
मैं उन्हें महसूस करने के लिए
मैं इन्हें छूता हूं, चूमता हूं इनसे प्यार करता हूं
तुम्हारी याचिकाओं को पेड़ों की जरूरत है. पेड़ों के जैसे धीरज की बारिश में भीगते रहने का धीरज पेड़ों के पास ही होता है. इस दिल्ली में बहुत से पोस्टर लगे हैं. सर्वव्यापी प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के झंडों से भरी दिल्ली में, उनके कटआउट यहां के पोल और पेड़ों पर लगा दिए गए हैं. इन्हीं पेड़ों पर तुम्हारी याचिका के पन्ने टांगे जा सकते हैं. जेल में उमर खालिद के कितने दिन हो गए, उनका नंबर लिखा जा सकता है.
दिल्ली के पेड़ों पर प्रधानमंत्री के पोस्टर हैं. उमर खालिद के पोस्टर क्यों नहीं हो सकते? होली के पोस्टर अब लगने वाले हैं. इन्हीं पोस्टरों पर लिखना चाहता हूं, उमर खालिद जेल में है. अदालतें आजाद हैं, अदालतें पेड़ हैं, पेड़ों पर पोस्टर टंगे हुए हैं. पेड़ों को भी तिहाड़ में बंद कर दिया गया है.
यह ओखला है. जामिया मेट्रो की खिड़की से लगता है सारा मोहल्ला पेड़ों के नीचे डूब
गया है. तुम्हें जेल की दीवारों से यह सब याद आता है क्या? क्या शाहीन बाग की याद
आती होगी? तब वहां कितने लोग आया करते थे, उन लोगों की याद आती है. सब अपनी अपनी यात्रा पर निकल चुके हैं. बहुत मिस करते होंगे, आईआईसी में डेमोक्रेसी पर बोलना.
ऑटो में तुम उस दिन किसके साथ बहुत दूर तक निकल गए. इतनी सारी यादों के लिए जेल में कोई अलमारी होती है? लेटकर सपने देखने के लिए कोई बिस्तर होता होगा? क्या तुमने ख्वाब में कभी अदालत देखी है? कोर्ट रूम के भी नंबर होते हैं. जैसे बैरकों के नंबर होते हैं. शरजिल इमाम मिलता है क्या? क्या कभी गुलफिशा से मुलाकात हुई? नताशा और देवांगना के पत्र तो आते ही होंगे? बनु जसना ने बहुत दिनों से कुछ लिखा भी नहीं. दिल्ली के फेफड़े में कार्बन भर गया है और तानाशाह पत्र भी नहीं पढ़ते हैं
दिल्ली बिना मर्ज की मरीज लगती है. इस बीमार शहर में हर दिन लाखों पन्नों
पर फैसले टाइप होते हैं. सिर्फ तुम्हारी बारी का इंतजार है. ‘वेटिंग फॉर गोडो’ की तरह तुम्हारा इंतजार अंतहीन है.
मैंने सुना है हत्या के बाद किसी अपराधी को बहुत भूख लगती है. वह जमकर खाता है. फिल्में देखता है और किसी दूसरे शहर में भागकर उस शहर को देखने लग जाता है. तुम्हारे बिना दिल्ली ऐसी ही लगती है. ऐसे लोगों से भरी हुई जो किसी दूसरे शहर में इंसाफ की हत्या के बाद भाग कर यहां आ गए हैं. उमर तुम्हें कोर्ट ले जाने वाली बस की खिड़की से कुछ तो दिल्ली दिखती होगी?
यह आखिरी मेट्रो है. क्या तुमने कभी किसी आखिरी मेट्रो में सवारी की है? किसी आखिरी मेट्रो में तुम्हारी उस याचिका को रख
देता हूं, उस सीट पर जिस पर.. अगली सुबह लोग झपट्टा मारेंगे.. बैठने के लिए. दिल्ली में इंसाफ की लूट कोई बड़ी घटना नहीं है उमर… और सीट की लूट से बड़ा इंसाफ नहीं है.
(यह आलेख रविश कुमार के वीडियो शो का शब्दांकन हैं)
शब्दांकन और संकलन : कलीम अज़ीम, पुणे
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