उधर नवाब सिराज उद् दौला ने किले में दरबार लगाने का हुक्म दिया। जिसमें कुछ ही देर में पकडे गये सभी सिपहसालार और अधिकारीयों का लाया गया। अंग्रेज इतिहास लेखक जेम्स मिल लिखता हैं,
“जब मिस्टर हॉलवेल (कलकत्ते के कोठी का मुखिया) हथकडी पहने हुए नवाब के सामने पेश किया गया, तो नवाब ने फौरन हुक्म दिया कि हथकड़ी खोल दी जाए। नवाब ने खुद अपनी सिपहगारी की कसम खाकर हॉलवेल को यकिन दिलाया की उसका या उसके किसी साथी के सिर का एक बाल भी किसी को छुने नही दिया जाएगा।”
नवाब सिराज उद् दौला के लिए बहुत आसान था की, वह और उसके विजयी सेना अपने सुबे के और अवाम के दूश्मन अंग्रजों का खात्मा करे। पर नवाब ने औसा नही किया। उसने सभी उनके गलती का एहसास करवा कर माफ कर दिया।
मशहूर यूरोपियन लेखक जेम्स मिल ने कबूल किया हैं की, “नवाब ने भारतीय सैनिकों ने तथा खुद नवाब ने पराजित अंग्रेजों के साथ कोई बुरा बर्ताव नही किया। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह की नवाब ने अंग्रेजों के करोडों के तिजारती सामान को भी हाथ नही लगाया। ना ही उनके किसी चिज को कब्जे में लिया। सिर्फ किले के अंदर का गोला-बारुद हटाया गया। यहीं व्यवहार नवाब ने अंग्रेजों के दुसरे कोठीयों मे किया।”
इतिहास गवाह है की इसी हॉलवेल ने जिसकी जान नवाब सिराज उद् दौला ने बख्शी थी, उसने आगे चलकर नवाब और उसके चरित्र को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके ऐवज में अंग्रजों को भारत में अगले 200 सालों तक राज करने के लिए खुला मैदान मिला।
झुठ का आधार
नबाव से माफी पाकर हॉलवेल ने नवम्बर 1756 में कलकत्ते से ब्रिटन जाते समय समुंदरी जहाज में बैठे ऐसे अनगिनत झुठे किस्से गढ़े, जिसने आगे चलकर भारतवर्ष के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक नींव को हिलाकर रख दिया।
यह झुठ का वो एक नमूना था, जिनके बदौलत ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके सिपहसालारों ने भारत के शासक, नवाब और राजाओ को क्रूर, हत्यारे और रैयत विरोधी करार देकर उनसे उनकी हुकूमत छीन ली थी। जिसके ऐवज कंपनी भारत में एकछत्र सत्ता कायम करने में कामयाब हो सकी। अपनी सत्ता की पकड मजबूत बनाने के लिए अंग्रेजों ने जो बन पाया वह किया। जिसमें चोरी, धोकेबाजी, लूट, विश्वासघात और कत्ल उनके लिए जैसे आम हो गया था।
‘1857 विद्रोह’ के कई यूरोपीयन इतिहासकारों ने इस बात को कबुला हैं, कंपनी ने अपना राज कायम करने के लिए हरसंभव कोशिश की हैं। ‘जॉन विल्यम काई’ जिसने 1857 में भारतीयों के पहले स्वाधीनता संग्राम पर 1500 पन्नों के दस्तावेजो को तीन खंडो में किताब का रूप दिया हैं।
जिसका नाम ‘हिस्टरी ऑफ दि सिपॉय वार इन इंडिया’ हैं। तिसरे खंड में काई लिखता हैं, “कंपनी का ऐसा रिवाज रहा हैं की, किसी भी भारतीय नवाब तथा राजा का संस्थान छीना जाता, उस समय उसे बदनाम करना, रैयत के नजरों से उसे गिरा देने के लिए उसपर गंभीर आरोप लगाये जाते।”
ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपहसालार आये दिन नये-नये झुठ गढते। नवाब तथा राजाओं के महलों में अपने जासूस भेजकर ऐसे दरबारीयों को अपने में शामिल करते जो नाराज चल रहे हैं, जो महत्वकांक्षी हो, लालची हो, पैसे और ऐशअराम का भूका है। थोड़े से पैसों के ऐवज में वह ऐसे लोगों दरबार के निजी राज उगलवा लेते। जिसके बलबूते वह नित नये षड़यंत्र रचते और चाले चलते।
पंडित सुंदरलाल अपनी किताब ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के तीनों खंडों मे इस बारे में विस्तार से लिखा हैं। जिसमें बहादूरशाह जफर, टिपू सुलतान से लेकर, अवध के नवाब, सिराज उद् दौला, झांसी की रानी तथा अन्य शासकों के खिलाफ अनगिणत झुठ लिखे, गढ़े और उनको आम किया। कंपनी के यूरोपियन लेखक, अंग्रेज सिपहसालार, तथा गव्हर्नर जनरलों और मुखिया ने समय समय पर अपनी किताबों मे इन झुठी कहानियों को दोहराया हैं।
इन्ही झुठ के बदौलत कहीं टिपू सुलतान हिन्दूओ के शत्रू तो कहीं मंदिरो को ढहाने वाले बताये जाते हैं। तो नवाब वाजिद अली शाह रंगिले, शराबी। वहीं रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र हनन किया जाता हैं, उसे शराबी, अकार्यक्षम बताया जाता हैं। और मजे की बात यह की आज तक भारतीय लेखक इन बातों पर यकिन कर किताबें गढ़ते हैं।
सुंदरलाल लिखते हैं, “अपने दृष्कृतियो पर परदा डालने के लिए अंग्रेज इतिहास लेखकों ने नई-नई जालसाजियों द्वारा नवाब के चरित्र को कलंकित करने की पुरी-पुरी कोशिश की। पर सिराज उद् दौला की सच्चाई, वीरता, सौजन्य, योग्यता, दयानतदारी और ईमानदारी मे किसी तरह का नहीं हो सकता।”
अलीवर्दी खां का डर
ईसवीं सन 1707 में जब औरंगजेब की मौत हुई तब बंगाल का सुबेदार अलीवर्दी खां था। उसने दिल्ली से मदद न मिलने की सूरत में कई बार मराठों के हमलो से अपने प्रांत को बचाया था। दिल्ली में सत्तासंघर्ष चल रहा था, जिसकी वजह से बादशाहों का अन्य प्रांतों पर ध्यान नही रहा। मदद ने करने के सूरत में अलीवर्दी खां ने दिल्ली को सालाना मालगुजारी भेजना बंद कर दिया। और सुबेदार के हैसियत से स्वतंत्र शासन करने लगा।
उस समय बंगाल ‘भारतवर्ष’ का एक खुशहाल और समृद्ध प्रांत था। अंग्रेज इतिहास लेखक एस. सी. हिल लिखता हैं, “अठारहवीं सदी के मध्य में बंगाल के किसानों की हालात उस समय के फ्रांस या जर्मनी के किसानों की हालत से बढ़कर थी।”
अंग्रेज भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का पलिता लिए कारोबार के हैसियत से आये, पर धीरे धीरे उन्होंने यहां राजनैतिक घेराबंदी शुरू कर दी। यहां के कच्चे माल पर लाखों, करोड़ों का मुनाफा कमाया। और उसी पैसो के बलबूते रैयत तथा स्थानिक कारोबारीयों पर अत्याचार करने लगे।
औरंगजेब ने संकट को भांपकर ईसवीं 1698 आसपास इनकी सूरत, विशाखापट्टनम और अन्य जगह की कोठीयों पर हमले कर उन्हें जब्त कर लिया और यूरोपियनों का निकाल बाहर कर दिया। पर जैसा की अंग्रेज काफी चालाख थे, उन्होंने औरंगजेब के कदमों पर गिरकर माफी मांग ली और औरंगजेब ने भी उन्हें उदार मन से माफ कर इनकी कोठीयां लौटा दी।
इसे पहले औरंगजेब का पोता आजमशाह जब बंगाल का सुबेदार था, तब उसने अंग्रजों को व्यापारी कोठीयां बनवाने की इजाजत दी थी। जिसमे फोर्ट विलियम की बुनियाद डाली गई। पर बाद में बंगाल के सुबेदार बने अलीवर्दी खां ने वक्त रहते आनेवाले संकट को भांप लिया। उसने अपने मौत से पहले नवासे सिजार उद् दौला को अंग्रजों के कुटनीति को लेकर आखरी नसिहतें दी।
उसने कहा, “यूरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। उनकी लड़ाईयों और कूटनीति से तुम्हें होशियार रहना होगा। इन तीनों यूरोपियन कौमों के एक साथ निर्बल करने का खयाल न करना। पहले अंग्रेजों को जेर करना, जब तुम अंग्रेजों को जेर करने लगोगे तो बाकी दोनों कौमें तुम्हें ज्यादा परेशान नहीं करेगी। मेरे बेटे, उन्हें किले बनाने की या फौज रखने की इजाजत न देना। यदि तुम यह गलती करोगे तो मुल्क हाथ से निकल जाएगा।”
सिराज उद् दौला की उदारता
10 अप्रेल 1756 ईसवीं को सिराज उद् दौला अपने नाना के मसनद पर बतौर नवाब की हैसियत से बैठ गए। इस समय उनकी उम्र 24 साल थी। औरंगजेब की मौत के बाद भारत में मुगल साम्राज्य की जड़े में खोखली हो चुकी थी। दिल्ली के सत्तासंघर्ष में अंग्रेज, पोर्तुगीज तथा डचों ने सत्ता की बंदरबाट शुरू कर दी थी। ऐसे में नवाब के पास अपना प्रांत ईस्ट इंडिया कंपनी के खुंखार इरादों से बचाने की चुनौती थी।
इधर कंपनी के सिपहसालार अपनी चालबाजी, धोकेबाजी और छल-कपट में मसरुफ थे। नवाब से उन्हें कोई लेना देना नहीं था। हर कोई अपनी मनमानी कर रहा था। शासक की हैसियत नवाब अपने प्रांत और उसके रैयत की देखभाल कर रहा थे। अंग्रेजों के व्यवहार से वह परिचित थे। उन्होंने बातचीत के माध्यम से मसले का हल तलाशने की हरसंभव कोशिश की। पर कंपनी के सिपहसालारों की नजरों मे बंगाल के शासक की कोई हैसियत न थी। अंग्रेजों ने नवाब की पेशकश ठुकरा दी।
नवाब के फौज में कई यूरोपियन और इसाई नौकर थे। उनके लिए इसाई पादरियों ने फतवे जारी कर दिए थे। जिनमें लिखा था, “ईसाई धर्मावलंबी के लिए मुसलमानों का पक्ष लेकर अपने सहधर्मियों के खिलाफ लड़ना ईसाई धर्म के विरुद्ध और महापाप हैं।” यह पत्रक छुपे रुप से नवाब की सैनिकों मे बांटे गये थे।
यह सब बाते नवाब तक पहुंचती थी। पर नवाब फौरन कोई हरकत करने से बचते रहे। वे सहीं समय का इंतजार करते रहे। पंडित सुंदरलाल ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के पहले खंड में लिखते हैं, “इमानदारी की लड़ाई में वे सिराज उद् दौला का किसी तरह मुकाबला न कर सकते थे। फौज और सामान, दोनों की उनके पास बेहद कमी थी। उनका सबसे बड़ा हथियार – रिश्वतें देकर, लालच देकर और झुठे वादे करके सिराज उद् दौला के आदमियों व सैनिकों को अपनी और फोड़ लेना।”
सिराज उद् दौला खून बहाने के विरोधी थे। उन्होंने अंग्रेज व्यापारीयों को बुलाकर उनसे कहां की, वह उनके साथ अमन और चैन से रहने को तैयार हैं। बशर्ते आगे से कोई चालबाजी और धोकेबाजी नहीं चलेगी। अंग्रेज अपने अपराधों के बदले थोड-बहुत धन पेश करने को तैयार हो और आईंदा अमन से रहने का वादा करे तो सुलह की जा सकती हैं। बावजूद इसके अंग्रेज अपनी हरकतो से बाज़ नहीं आये।
फोर्ट विलियम पर कब्जा
कंपनी सिपहसालारों के इस बर्ताव से लाचार होकर नवाब सिराज उद् दौला ने 24 मई 1756 को अंग्रेजी कोठी को घेर लेने के लिए अपनी फौज को कासिमबाजार भेजा। बावजूद किलेबंदीयों और तोपों के कासिमबाजार की कोठी नवाब के फौज के सामने ज्यादा देर टिक नही सकी। अंग्रेज मुखिया वाट्सन ने हार मान ली और कोठीयां नवाब के सेना की सुपुर्द कर दी।
सुंदरलाल लिखते हैं, “वहीं वाट्सन और उसके अंग्रेज साथी, जिनकी सिराज उद् दौला ने जाने बख्शी थीं, उस समय सिराज उद् दौला की सेना में अंदर इस प्रकार की साजिशों के जल पूर रहे थे।”
नवाब चाहते तो उसका काम तमाम कर सकते थे, पर उन्होंने उसकी जान बख्श दीं। उसके बाद नवाब की फौजों ने अन्य कोठीयों पर हमले किए और उन्हें अपने कब्जे में लिया। अगर नवाब चाहते तो, अंग्रेजों को जान से मारकर उनका काम तमाम कर सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नही किया।
नवाब ने बातचीत की एक और नाकाम कोशिश की। उन्होंने कलकत्ते के अंग्रेज अफसरों को सुलह की सूचना दी। वह चाहते तो सुलह कर सकते थे, पर कलकत्ते में बैठे अंग्रेजों को लगा की अपने षडयंत्रों और चालबाजीयों से सिराज उद् दौला को नष्ट कर सकते हैं।
सिराज उद् दौला के आने की खबर सुनते ही कलकत्ते में कंपनी के सिपहसालारों ने घेराबंदी की पूरी कोशिश शुरु कर दी। अपने देशी जाजूसो के बलबुते वह षडयंत्रो में लगे थे।
कंपनी के भारतीय मुलाजिमों से कह दिया की, इस हमले से हम तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेगे। डर के मारे सभी मुलाजिम अपने परिवार के साथ कोठी के आसपास जमा हो गए। दुसरी और अंग्रेजों ने मूलाजिमों के रिहायशी मकान तथा दुकानो को आग लगा दी। और सिराज उद् दौला के साथ लड़ाई के लिए मैदान साफ कर लिया।
नवाब कंपनी के यूरोपियन सिपहसालारों का हमेशा के लिए बंदोबस्त करने के लिए कलकत्ते की और बढ़ रहे थे। 16 जून को सिराज उद् दौला कलकत्ता पहुंचे। 16 और 17 को छोटी-मोटी लड़ाइयां हुई। 18 को जुमा के दिन कंपनी के और से आदेश निकाला गया की अगर कोई दूश्मन रहम की भीक मांगकर पनाह की प्रार्थना करे तो उसपर कोई दया नहीं दिखाई जाएगी।
सुंदरलाल लिखते हैं, “उसी दिन सिराज उद् दौला की फौज ने कंपनी की सेना पर बाजब्ता चढ़ाई की और बावजूद सिराज उद् दौला के अनेक ईसाई नौकरों की नमक हरामी के कंपनी की सेना देर तक नवाब के गोलों का सामना न कर सकी। आखीर में अंग्रेजों को हार कबुल करनी पड़ी।”
20 जून 1756 को सिराज उद् दौला के विजयी सेना का कलकत्ता के अंग्रेज कोठी फोर्ट विलियम पर कब्जा हो गया। कोठी का प्रमुख हॉलवेल हथकडीयों से बांधकर नवाब के सामने लाया गया। यूरोपियन लेखक इस बात पर सहमती देते हैं की, इस मोके पर सिराज उद् दौला की शक्ती को देखकर अधिकांश यूरोपियन चकित और भयभित हो गए।
ब्लॅक होल का झुठ
नवाब और उसकी सेना ने बगैर किसी खूनखराबे के हॉलवेल और उसके सिपहसालारों के बंगाल से बाहर खदेड़ा। 30 नवम्बर 1756 को हॉलवेल ने समुंदरी सफर पर अपने कंपनी के डायरक्टरों के नाम एक चिट्ठी लिखी। जिसमे उसने लिखा, “इतनी घातक और सोकजनक आपत्ति बाबा आदम के समय से लेकर आज तक किसी भी कौम या उसके उपनिवेश के इतिहास में नहीं आई होगी।”
सुंदरलाल लिखते हैं, हॉलवेल ने सिराज उद् दौला को बदनाम करने के लिए इसी जहाज में बैठकर अनगिणत झुठे किस्से और मनगढ़त कहानियां गढ़ी। जिसमें बहुचर्चित ‘ब्लॅक होल’ का किस्सा भी उसने अपने कल्पना शक्ती के बलबूते से गढ़ा, जिसमे कहा गया था थी, १४६ यूरोपियन कैदी को एक बैरक में बंद कर के जान से मारा गया था।
इस झुठ का काफी बड़ा असर आनेवाले कई सालों की सियासी और समाजी जिन्दगी पर पड़ा।
कई इतिहासकार इस किस्से को झुठा मान चुके हैं। पर आज भी नवाब सिराज उद् दौला को क्रूर साबित करने के लिए या फिर उसे बदनाम करने के लिए यह किस्सा इस्तेंमाल किया जाता हैं। इस कार्य में भारतीय लेखक भी पिछे नही हैं।
सुंदरलाल लिखते हैं “ब्लॅक होल का सारा किस्सा बिल्कुल झुठा हैं। और केवल सिराज उद् दौला के चरित्र को कलंकित करने के लिए और अंग्रेजों के बाद के कुचक्रों को जायज करार देने के लिए गढ़ा गया था।”
सुंदरलाल तत्कालीन इतिहास लेखक अक्षयकुमार मैत्र का एक प्रमाण देते हैं। जो उनका बंगला ग्रंथ ‘सिराज उद् दौला’ ये लिया गया हैं। लिखते हैं अव्वल तो इतनी छोटी (२६७ स्केअर फीट) जगह में १४६ लोग चावलों कि बोरों की तरह भी नहीं भरे जा सकते। इसके अलावा सैयद गुलाम हुसैन की ‘सियरउलमुताखरीन’ में या उस समय के किसी भी परामाणिक इतिहास या कंपनी के रोजनामचों कारवाई के रजिस्टरों या मद्रास कौन्सिल की बहसों में इस घटना का कहीं जिक्र नहीं आता।”
दुसरा प्रमाण वह देते हैं की क्लाइव और वाट्सन ने कुछ समय बाद नवाब की ज्यादातियों तथा कंपनी की हानियों को दर्शाते हुए नवाब के नाम जो खत लिखे उनमें इस घटना का कहीं जिक्र नहीं आता।”
नवाब की भारी भूल
दरअसल उस समय के बंगाल का सूबा एक बहुत बड़ा केंद्र था। जिसपर काफी दिनों से ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपहसालारों की नजर थी। किसी भी सूरत में वह बंगाल लौटना चाहते थे।
कलकत्ते से भगाए गये अंग्रेज बंगाल की खाडी के उपर फल्ता नामक स्थान पर जाकर ठहर गये। किसी भी सूरत में उन्हें भारत में अपना नफे वाला कारोबार जमाये रखना था। उन्होंने नवाब से कहां की मौसम खराब होने के चलते उन्हें यहां रुकना पड़ा हैं जैसे ही मौसम साफ होगा निकल जाएगे। मगर जैसा के सब जानते हैं की उनकी नियत साफ नहीं थी। वहीं से अंग्रेजों नवाब को माफी की अर्जियां भेजनी शुरू कर दी की उन्हें फिर से बंगाल में कारोबार करने की इजाजत दी जाए।
नवाब भी दिल से चाहते थे की अंग्रेज शरारतें छोड़कर तिजारत करे। इसलीए उन्होंने उनके तिजारती माल को हाथ न लगाया था। इस तरह अक्टूबर में अंग्रेज फिर से बंगाल में दाखिल हुए। कंपनी ने जलसेना का अधिकार एडमिरल वाट्सन औक स्थलसेना का कर्नल रॉबर्ट क्लाईव्ह को दिया।
इतिहास गवाह है की बंगाल के नवाब सिराज उद् दौला की यह माफी एक बड़ी भूल साबीत हुई। यह गलती नवाब सिराज उद् दौला के और समस्त भारतवर्ष के लिए गुलामी का सबब बनी।
नवाब चाहते तो कलकत्ते मे ही सब यूरोपियन अफसरों और उनकी सेना का काम तमाम कर सकते थे। वह ऐसा करते भी तो वह उनका अधिकार था। अगर ऐसा होता तो बेशक हमारी गुलामी का इतिहास बदलता। इसी तरह भारत समृद्धता संपन्नता तथा बनी रहती तथा आज का इतिहास भी कुछ और रहता।
गद्दारी की अवधारणा मीर जाफर
ठिक एक साल बाद 23 जून 1857 एक साल कर्नल क्लाइव्ह और बंगाल के नवाब सिराद उद् दौला के बीच ‘प्लासी’ नामक स्थान पर हुई लड़ाई ने अंग्रेजों के लिए भारतवर्षे के द्वार खोल दिए। नवाब का राजपाट और बंगाल छिनने के लिए कंपनी अफसरों ने नवाब के सेनापति मीर जाफर को अपनी और खिंच लिया।
रॉबर्ट क्लाईव्ह ने जोरदार किलेबंदी शुरू कर दी। और सैनिकों को जमाना शुरू कर दिया। नवाब के सेनापति मीर जाफर को नवाब बनाने और सिराज उद् दौला के मसनद पर बैठाने का लालच दिया। जिसके बाद खुले तौर पर नवाब के खिलाफ जंग का एलान कर दिया।
वरीष्ठ राजनेता और लेखक एम. जे. अकबर अपनी किताब ‘दि शेड ऑफ सॉर्ड’ में लिखते हैं “अंग्रेजों के खिलाफ नवाब सिराज उद् दौला ने जंग का एलान कर दिया। क्लाईव्ह के पास 800 यूरोपियन 2200 भारतीय सिपाही और दो तोपें थी। तो नवाब के पास 35 हजार की पैदल सेना पंधरा हजार घुड़सवार तोपें 53 फ्रेंच तोफखाने थे। इसके अलावा उसके समर्थन में खड़ी 5 000 घुड़दल और पाँच हजार की पैदल सेना थी।”
पर नवाब का सेनापति मीर जाफर अंग्रेजों से जा मिलने से इस जंग में नवाब की एकतर्फी हार हुई। क्लाईव्ह ने सिर्फ चार ब्रिटिश और 15 भारतीय सैनिक गवाएं। 23 जून 1757 के दिन कोई भी प्रतिकार करे बिना लड़ाई का मैदान मीर जाफर और क्लाइव्ह के हाथों में आया।
यह वह दिन था जो आनेवाले 200 सालों तक अंग्रजों के छल कपट मारकाट हत्या और अनिर्बंधित सत्ता के हाथों का खिलौना बना। मीर जाफर जैसे विश्वासघातकी और धोकेबाज लोगों के बलबूते उन्होंने दो सौ सालो तक भारत में राज किया।
इस जंग के कुछ ही दिन बाद नवाब सिराज उद् दौला को गिरफ्तार किया गया और 2 जुलाई 1757 को मुर्शिदाबाद मे उसकी हत्या करवाई गई। सुंदरलाल लिखते हैं “वास्तव में सिराज उद् दौला के योग्यता के कारण ही इंग्लिस्तान के ईसाई व्यापारीयों ने अपने और अपनी कौम के भावी हित के लिए उसका नाश करना आवश्यक समझा।”
इतिहास ने एक तरफ क्लाइव्ह को कथित शूरता और छल-कपट के लिए अपने पन्नों मे जगह दी; तो मीर जाफर को गद्दार के रूप में परिभाषित किया। तीन सौ साल बीते पर आज भी मीर जाफर गद्दारी धोकेबाजी और विश्वासघात के अवधारणा के लिए मुहावरें की याद किया जाता हैं।
कलीम अजीम, पुणे
मेल : kalimazim2@gmail.com
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- कलीम अजीम
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