मैं आजाद के बेकसी का मज़ार हूँ...!

ज़ादी के आंदोलन के नेता और इस्लाम के प्रकांड पंडित रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद कि आज पुण्यातिथी हैं। 22 फरवरी 1958 को आजाद इस दुनिया ए फानी से कूच कर गए। दिल्ली के जामा मस्जिद के निकट उन्हें दफन किया गया। परंतु उनकी स्मृतिस्थली वह विरान जगह हैं जहां कोई जाता नही। काँग्रेसी को तो छोड दो पर जिनके लिए उन्होंने कौम के लिए सरेउम्र फाकाकशी और मुफलिसी में बिताई वह समाज भी आज उन्हे भूल चुका हैं।

दिल्ली के जामा मस्जिद परिसर में अगर आप मौलाना अबुल कलाम आजाद कि मजार ढुंढेंगे तो आपको वह आसानी से नही मिलेंगी। दिशा और पता बताने वाले भी बहुत कम मिलेंगे। अनुभव से बता रहा हूँ कि मिना बाजार के चिख-पुकार में आपकी बात कोई सुनेंगा भी नही।

अगर मान लो संयोगवश किसीने पता बता भी दिया। तो आपके वहां जाने का रास्ता भी मिलेंगा नही। एक लंबीचौडी लाल दिवार के बाजू में कपडा, बॅग्ज, शिशे के खिलौने, शोभा कि वस्तू बिक्री करनेवालों की ढेर सारी दुकाने हैं। उसी किसी दुकान के पिछे तीन बाई पाँच फिट का एक छोटासा गेट हैं। जिसके अंदर मजार कि और..ऐसा कुछ लिखा हैं।

आप थोडासी हिम्मत कर अंदर दाखील हो जायेंगे तो वहां मौजूद उपर कि और जाती सिढीया आपको लंबे से मैदाननुमा जगह तक ले जायेंगी। जहां आपको सिधे सामने एक मजार का मॉन्युमेंट नजर आयेंगा। इस जगह कि देखरेख करने वाले चचा नें मुझे बताया कि तीन साल पहले तक यहां कुछ भी नही होता था, महज एक विरान मजार होती थी। कई वर्षों से यहां साल में सिर्फ दो दिन चहल-पहल रहती हैं।

सौदा खुदा के वास्ते कर किस्सा मुख्तसर

अपनी तो नींद उड गई तेरे फसाने में

इन दिनों वहां सफेद विदेशी टाईल्स लगी हैं। और लाल रंग कि फर्श भी लगाई गई हैं। मैं ठिक एक साल याने 23 फरवरी 2019 को उस मजार पर खिराजे अकिदम पेश करने गया था।

उस दिन मैंने पाया कि श्रद्धासुमन अर्पित किए कुछ फुलो कि लडीयाँ मजार के आस-पास लगी हैं। दुआ और फातिहा के बाद मैंने चचा से फिर बातचित की। उन्होंने मुझे बताया कि कल गुलाम नबी आजाद अपने कुछ काँग्रेसी लिडरों के साथ वहाँ आए थें। थोडी देर बाद वह लोग चले गए। उनके बाद दिनभर यहां कोई नही आया।

और मुसलमान आए थें क्या?” मेरे इस सवाल पर चचा मुस्कुराए और कहां, “जवाब आपको पता हैं, बेटामुझे थोडासा बुरा तो लगा, पर उसकी वजह भी पता थी। बाहर बाजार में चिख-चिख अपनी चिजे बेचता मेहनत में मसरुफ मुसलमान मैं देखकर ही अंदर आया था। थोडी देर अंदर गुजारने बाद मैं बाहर मजार के नामदर्शक बोर्ड के तलाश में निकला।


कॅप्टन शाहनवाज के स्मृतिस्थली क गेट के ठिक सामने एक पुराना सा बोर्ड देखकर तसल्ली हुई। चलीए बोर्ड अब तक तो हैं, कहते हुए मैंने अपने आप को धन्यवाद दिया। बोर्ड पर ठेलेवाले ने अपनी वस्तूए लटका रखी थी। उस बंदे से बात करने कि मेरी हिम्मत नही हुई।

इस विरान पडी स्मृतिस्थली देखकर मैं हर बार खुद को ही कोसता हूँ। देश को ब्रिटिशो से स्वतंत्रता दिलाने में अपनी जिन्दगी गुजारने वाला यह इन्सान अपने कब्र पर फातेहा के दो अल्फाजो के लिए तरस रहा था। मजार की यह बेबसी देखकर मुझे मुघल शासक बहादूरशाह जफर कि वह पंक्तियां याद आई जिसमें वे कहते -

पए फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों

कोई आके शमा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूं

मौलाना ने अपनी सारी जिंदगी राजनीति और देशसेवा में गुजार दी। उन्होने अपने इस फर्ज को ऐसे निभाया जिसकी मिसाल विश्व के अनेक इतिहासकार और विद्वान देते नही थकते।

मौलाना आजाद सिर्फ एक राजनेता नही थें, बल्की वे एक उच्च कोटी के विद्वान, इस्लाम के प्रकाण्ड उलेमा, विचारक, दर्शनशास्त्री, कवि और साहित्यकार थें। उनका असल व्यक्तित्व उनकी बहुचर्चित किताब गुबारे खतीर से बयाँ होता हैं। मौलाना के करीबी मित्र रहे हुमायून कबीर भी यह मानते हैं कि इस किताब से मौलाना के शानदार व्यक्तित्व का नया रूप नजर आता हैं।

उर्दू अदब में यह किताब बेहद महत्व रखती हैं। मौलाना अपने दोस्त नवाब सदरे यार जंग को लिखे पत्रों मे अपने दिल का हाल बयां किया हैं। जिसमें स्वाधिनता आंदोलन, काँग्रेस कि राजनीति, अंग्रेजो के खिलाफ बगावत, भारतीय मुसलमान, उनके मसाईल और अपने वैवाहिक रिश्तो के बारे में वे खुलकर लिखते हैं। मगर अपनी मुफलिसी मौलाना नें बडी ही खुबी से छुपाई हैं।

पढ़े : अब्बास तैय्यबजी : आज़ादी के इतिहास के गुमनाम नायक

मौलाना आजाद ने अपनी सारी उम्र मुसलमानों में समाजी बेदारी और सियासी हुकूक दिलाने के लिए बिताई। अल हिलाल अखबार के पहले अंक में वह इस बारे में कहते हैं कि मुसलमानों को इस्लाम कि शिक्षा और उनमे राजनितीक समझ पैदा करना हमारा मकसद हैं। बाद के कई अंको में उन्होंने एक श्रृखंलाबद्ध तरिके से अल हिलाल के मकासिद और पोलिटिकल तालिम पर चर्चा की हैं।

हस्ती से अदम तक नफ्से-चंद (कुछ सांसे) की हैं राह

दुनिया से गुजरना सफर ऐसा हैं कहाँ का!

आजाद के जे जीवन एक बडा अरसा कैद में गुजरा हैं। गुबारे खतीर में 11 अगस्त 1942 के एक पत्र में वे लिखते हैं, कैद में बंद जिंदगी का यह छठा तजरूबा सन 1916 में पेश आया था, जब मुससल चार बरस तक कैद ओ बंद में रहा। फिर सन 1921, सन 1932 और सन 1940 में यके बाद दिगरें यही मंजिल पेश आती रही। और अब फिर उसी मंजिल सें काफिलेये-बाद पैमाये-उम्र गुजर रहा हैं।

पिछली पाँच गिरफ्तारीयों की अगर मजमुई मुद्दत शुमार की जाए तो सात बरस आठ महिने से ज्यादा नही होगी। उम्र के तरेपन बरस जो गुजर चुके हैं उनसे यह मुद्दत वजा (भाग देना) करता हूँ तो सातवे हिस्से के करीब पडती हैं। गोया जिंदगी के हर सात दिन में एक कैदखाने में गुजरा।

तौरात (कुरआन से पहले का इस्लामी धर्मग्रंथ) के अहकामे-अशरा (दस हुक्म) में एक हुक्म सब्त (छुट्टी का दिन जिस दिन यहूदी लोग इबादत करते हैं यह शनिवार होता हैं) के लिए भी था। यानी हफ्ते का सातवाँ दिन तामिल का मुकद्दस दिन समझा जाए। मसीहित और इस्लाम ने भी यह तातील (छुट्टी) कायम रखी। सो हमारे हिस्से में भी सब्त का दिन आया मगर हमारी तातील इस तरह बसर हुई गोया ख्वाजा शीराज के दस्तूर उल अमल पर कार (काम) बंद रहे।

जेल में काटे दिनो को आजाद एक पाठशाला के रूप में देखते थें। इस बारे में वे आगे लिखते हैं, वक्त के हालात पेशे-नजर रखते हुए इस तनासुब (आपसी संबंध) पर गौर करता हूँ तो ताज्जुब होता हैं। इस पर नही कि सात बरस आठ महिने कैद ओ बंद में क्यों कटे? इस पर कि सात बरस आठ महिने ही क्यो कटे?” (पेज-47-48)

आजाद लिखते अपने ढलते उम्र में जेल में बिताए समय को एक यातना के रूप में देखते हैं। पर उसे खुद से स्वीकार किया हैं, यह भी वह अभिमान से कहते है। वे कहते हैं,

वक्त के जो हालात हमें चारों तरफ से घेरे हुए हैं उनमें इस मुल्क के बांशिदों के लिए जिंदगी बसर करने की दो राहे रही गई हैं। बेहिसी कि जिंदगी बसर करे या अहसासे हाल की। पहली जिंदगी हर हाल में और हर जगह बसर की जा सकती हैं। मगर दूसरी के लिए कैदखाने की कोठरी के सिवा और कही जगह न निकल सकी, हमारे सामने भी दोनो राहे खुली थी। पहली हम इख्तियार नही कर सकते थें। नाचार दूसरी इख्तियार करनी पडी।

देश के लोगो के पास जिन्दगी बसर करने के दो ही रास्ते हैं एक तो, जेल में रहो या फिर बाहर रहना हैं तो अंग्रेजो के इशारे पर रहना होंगा। जिसे आजाद ने अस्वीकार करते हुए जेल में रहना पसंद किया था।

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मौलाना अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन्हे घर-परिवार कि जरा भी सूध नही थी। वह जब दौरे पर थे, तब उनके पिताजी कि मृत्यू हुई। वे जब अहमदनगर जेल में थें तब उनके बीवी का इंतेकाल हुआ। बेगम के मृत्यू के शोक में लिखे एक खत में आजाद कहते हैं,

गुजिश्ता पच्चीस बरस के अंदर कितने ही सफर पेश आए और कितनी ही मर्तबा गिरफ्तारियाँ हुई, लेकिन मैंने इसे दर्जे अफसुर्दी खातिर उसे कभी नही देखा था। क्या यह जज्बात की वक्ती कमजोरी थी जो उसकी तबीयत पर गालिब आ गई थी? मैंने उस वक्त ऐसा ही खयाल किया था।

लेकिन अब सोचता हूँ तो खयाल होता हैं शायद उसे सूरते-हाल का एक मजहूल अहसास होने लगा था। शायद वो महसूस कर रही थी कि इस जिंदगी में यह हमारी आखरी मुलाकात हैं। वो खुदा हाफिज इसलीए नही कह रही थी कि मैं सफर कर रहा था। वो इसीलिए कह रही थी कि खुद सफर करनेवाली थी।

मौलाना आजाद त्याग और बलिदान कि वह मूर्ति थी, जिसकी तुलना किसी से की नही जा सकती। आजाद उम्रभर हिन्दू-मुस्लिम एकता, मुसलमानो में धार्मिक औऱ राजनितिक समझ पैदा करने के लिए मेहनत करते रहे। ऐसे शख्स के मजार पर हम चार फुल भी नही चढा सकते क्या?

कलीम अज़ीम, पुणे

मेल:kaimazim2@gmail.com

वाचनीय

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मैं आजाद के बेकसी का मज़ार हूँ...!
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