फातिमा शेख का किरदार इतिहास में नजर क्यों नहीं आता?

 

बीते 9 जनवरी को गूगल ने फ़ातिमा शेख पर डूडल बनाकर उन्हें 191वें जन्मदिन की बधाइयां पेश की। जिसके बाद देशभर में बधाइयों का सिलसिला चला। भारत का हर एक राजनेता और समाजसेवी फ़ातिमा को याद कर रहे थे। उस दिन सोशल मीडिया पर ट्रेंड भी चला। ट्विटर स्पेस पर उनको लेकर चर्चा भी हुई। हर कोई फ़ातिमा शेख को याद करने और कथित रूप से भुला देने की भी वजह बता रहा था।

उस दिन गूगल ने लिखा, आज का डूडल भारतीय शिक्षिका और नारीवादी प्रतीक फ़ातिमा शेख को याद कर रहा है, जिन्हें व्यापक रूप से भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षक माना जाता है। सहयोगी अग्रदूत और समाज सुधारक जोतीराव और सावित्रीबाई फुले के साथ, शेख ने 1848 में स्वदेशी पुस्तकालय की सह-स्थापना की, जो लड़कियों के लिए भारत के पहले स्कूलों में से एक था।

गूगल आगे लिखता हैं, फ़ातिमा शेख का जन्म आज ही के दिन 1831 में पुणे, भारत में हुआ था। वह अपने भाई उस्मान के साथ रहती थी। निचली जातियों के लोगों को शिक्षित करने के कोशिश के बाद (पिता द्वारा) फुले दम्पत्ति को घर से निकाले जाने के बाद इन (फ़ातिमा-उस्मान) भाई-बहनों ने उनके लिए अपना घर खोल दिया।

पहला स्वदेशी पुस्तकालय यहीं शेख की छत के नीचे खुला। यहां, सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख ने हाशिए के दलित समुदायों के बच्चों और मुस्लिम महिलाओं को पढ़ाया, जिन्हें वर्ग, धर्म या लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित किया गया था।

भारत की निचली जातियों में पैदा हुए लोगों को शैक्षिक अवसर प्रदान करने के फुले के प्रयासों को सत्यशोधक समाज (सत्य का खोजी समाज) आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा। समानता के लिए इस आंदोलन के आजीवन सदस्य के रूप में शेख ने घर-घर जाकर अपने समुदाय और दलितों को स्वदेशी पुस्तकालय में पढ़ने और भारतीय जाति व्यवस्था की कठोरता से बचने के लिए आमंत्रित किया।

उन्हें प्रभुत्वशाली वर्गों के भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने सत्यशोधक आंदोलन में शामिल लोगों को अपमानित करने की कोशिशें की, लेकिन शेख और उनके सहयोगी डटे रहे।

हालांकि, (फ़ातिमा) शेख की कहानी को ऐतिहासिक रूप से अनदेखा कर दिया गया है, भारत सरकार ने 2014 में अन्य अग्रणी भारतीय शिक्षकों के साथ उर्दू पाठ्यपुस्तकों में उनकी व्यक्तीचरित्र को प्रकाशित कर उनकी उपलब्धियों पर नई रोशनी डाली।

कुछ तथ्य

गूगल द्वारा प्रकाशित इस जानकारी और ऐतिहासिक किरदार की हमने पड़ताल करनी चाही। जिसके बाद कुछ तथ्य हमारे हाथ आये हैं। जिसे आपके सामने रख रहे हैं।

पिछले दो सौ सालों से महाराष्ट्र में फुले के साहित्य पर संशोधन होता रहा हैं। आज भी इसी साहित्य को संशोधित करने वाले बहुत से लोग देश-विदेश के अलग-अलग यूनिवर्सिटियों में मौजूद हैं। उनके मुताबिक महात्मा फुले द्वारा लिखें किसी भी साहित्य तथा उनके सहयोगी लेखक, समाजसेवी के लेखन में फ़ातिमा शेख का जिक्र नहीं मिलता।

प्रस्तुत लेखक भी व्यक्तिगत तौर पर इस मामले में बीते चार साल से खोज कर रहे हैं। जिन्होंने पुरानी धुल भरी किताबों के कई पन्ने झटके हैं। कई किताबें, लेख, टिप्पणी में फ़ातिमा शेख को ढुंढा हैं, पर कहीं किसी जगह भी फ़ातिमा के जिक्र को पाया नहीं हैं। लेखक ने महात्मा फुले और उनके समकालीन मराठी लिखने वालों को पढ़ा है, अखबारों को टटोला है पर कहां भी फ़ातिमा के बारे में कुछ लिखा मिला नहीं।

हालांकि फुले अपनी हर एक बात को ग्रंथ स्वरूप देकर लिख चुके हैं। उनकी सारी किताबें समग्र साहित्य के रूप में पब्लिक डोमेन में मौजूद है। यह साहित्य महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। इसके अलावा फुले दम्पत्ति पर भी बहुत कुछ लिखा गया हैं और लिखा भी जा रहा है। उसमें कहीं भी फ़ातिमा शेख का जिक्र छोटा या विस्तार से नहीं आता।

फुले के समकालीन ‘कृष्णाजी भालेकर’ के समग्र साहित्य में भी फातिमा का का जिक्र नज़र नही आता। उसी तरह ‘आम्ही पाहिलेले फुले’ यानी ‘हमने देखे हुए फुले’ यह एक काफी अहम किताब हैं। जिसमे फुले के देखनेवाले लोगों ने फुले का व्यक्तिचरित्र रेखांकित किया हैं। यह किताब 1992 में बाबा आढाव के समता प्रतिष्ठान ने प्रकाशित की हैं। जिसमें फुले के दौर के कई लोगों ने जोतीराव के बारे में विस्तार से लिखा हैं। मगर फातिमा के बारे मे कोई जानकारी नहीं मिलती।

मगर समग्र सावित्रीबाई मे फ़ातिमा का एक शब्द का जिक्र मिलता हैं। जो 10 अक्टूबर 1856 को उन्होंने अपने पति जोतीराव को लिखा था। उस मूल खत का कुछ हिस्सा निचे दे रहा हूँ। जो मा. गो. माळी द्वारा संपादित सावित्रीबाई फुले समग्र साहित्य, पेज नंबर 73-74 से लिया गया हैं। वे लिखती हैं-

सावित्रीचा शिरसाष्टांग नमस्कार,

पत्रास कारण की,

माझ्या तबियतीत अनेकदा उलटा पालटी होऊन ताळ्यावर आली आहे. या दुखण्यात भाऊने अपरिमित श्रम घेऊन माझी सेवा केली आहे. यावरून तो किती प्रेमळ आहे हे दिसून येते. मी परिपूर्ण दुरुस्त होताच पुण्यास येईन. काळजीत असू नये. फातीमास त्रास पडत असेल पण ती कुरकूर करणार नाही. अस्तु.

मूल सार का हिंदोस्ताँनी अनुवाद-

सत्यरूप जोतिबा जी को,

सावित्री का सविनय प्रणाम।

खत लिखने की वजह यह है की, मेरी तबीयत बहुत बार उलट-पलट होने के बाद अब ठीक हुई हैं। इस हालात में भाई ने मेरी हमेशा देखभाल की और ख़ूब खिदमत की। उसकी इस खिदमत से मैंने महसूस किया कि मेरे लिए उसका प्यार और लगाव बहुत ही ज्यादा है। मेरी फिक्र न करें, मैं पूरी तरह ठिक होकर ही आऊँगी। मैं जानती हूं कि मेरे पुणे में न होने के वजह से फ़ातिमा पर काम को बोझ बढ़ गया होगा, पर वह कभी ना-नुकर नहीं करेगी।

इसी किताब के 50 नंबर के पन्ने पर एक तस्वीर छपी हैं। जिसमे सावित्री बाई के साथ दो महिला और दो बच्चे है। नीचे लिखा हैं, सौ साल पहले के दुर्लभ निगेटीव के आधार पर यह तस्वीर बनाई हैं। इस तस्वीर पर बहस करता 16 जनवरी को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पर एक आर्टिकल छपा हैं। जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास और संस्कृति की प्रोफेसर रॉसलिंड ओहैनलन ने लिखा हैं।

लिखती हैं, दोनों महिलाओं ने साधारण और मजबूत किनारों वाली सादे रंग की, एक जैसे साड़िया पहनी हैं। इससे पता चलता है कि वे खुद को पेशेवर शिक्षकों के रूप में पेश करना चाहते थे, जो एक ही साधारण लेकिन सम्मानजनक पहनावे में थे। मगर बाकी इतिहास पर चर्चा करने से वे बचती हैं।

ऐतिहासिक प्रमाण नदारद

सावित्री बाई के खत में मौजूद उस एक वाक्य के अलावा इतिहास में फ़ातिमा शेख को लेकर और कोई संसाधन तथा प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। इतिहास के प्राथमिक सोर्स के बारे मे बात करे तो, फातिमासइस एक शब्द के अलावा कुछ नहीं हैं। ऐसे में यह भी एक वास्तविकता हैं की, इस एक शब्द से फ़ातिमा शेख का समग्र व्यक्तीचरित्र खड़ा भी नही होता।

ऐसे में गूगल के उपरोक्त जानकारी पर सवाल उठना लाजमी हैं। 9 जनवरी को गूगल की इस हरकत पर कई लोगों ने सवाल किया। सवाल पुछने वाले उन सब की सूची में प्रस्तुत लेखक का भी नाम आता हैं। हम सभी का मानना था की, जब कोई रिसोर्सेज तथा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं होने के सूरत में गूगल ने यह नई जानकारी कहां से लाई?

जिस दिन गूगल ने फ़ातिमा के जन्मदिन के बारे में बताया, इसके पहले से मैं इस विषय में लिखने की सोच रहा था। सितम्बर, 2020 में मैंने एक ब्लॉग पोस्ट में टिप्पणी की थी। उसे कुछ तथ्यों के साथ फिर से विस्तार से लिखना चाह रहा था। जिसके लिए मैंने सावित्रीबाई की जयंती यानी 3 जनवरी के बाद महाराष्ट्र में फुले पर काम करने वाले लेखकों से संपर्क भी साधा। जिस पर कई महामहिम लेखकों ने मुझसे कहा, इनके बारें में हमने कुछ पढ़ा नहीं है। मेरी रिसर्च चल ही रही थी, की गूगल ने चर्चा छेड़ दी।

जिसके बाद मुझे लगा की कुछ और संशोधन के साथ इसे लिखे। मेरी खोज में कुछ सेकेंडरी सोर्स पर आधारित लिखावट मिली। जिन को लेकर उन लिखने वालों से मैंने बात की, जिसमें सबसे पहले आते हैं, दिनकर विष्णू काकडे। उन्होंने फ़ातिमा शेख : भारतातील पहिली मुस्लिम शिक्षिका शीर्षक से एक मराठी नॉवेल लिखी है, जो पूरी तरह फिक्शनल है।

सत्तर वर्षीय काकडे सांगली जिले के मिरज में रहते हैं। उन्होंने 2019 में उपरोक्त उपन्यास लिखा है। मूलत: यह सावित्रीबाई के नाम से होनी चाहिए थी, क्योंकि इसमें सिर्फ उनका ही चरित्र नजर आता है और बाद में जोतीराव फुले के कार्यों का विस्तार से जिक्र।

यह एक फिक्शनल यानी मनगढ़त कहानी है। मैं लेखक से बात कर चुका हूं। वह भी मुझे रिसोर्सेज के बारे में कोई तसल्लीवश जवाब नहीं दे पाए। उनके मुताबिक फ़ातिमा पर कोई प्राथमिक संसाधन उपलब्ध नही है। मगर फुले-शाहू-अम्बेडकर विचारधारा के कार्यकर्ता, प्रगतिशील संगठन को ध्यान में रखते हुए तथा नजरअंदाज होते मुस्लिम पात्रों को प्रकाश में लाने हेतू उन्होंने यह नॉवेल लिखी है।

लेखक ने मुझे बताया, इतिहास को ध्यान में रखते हुए मैंने इसमें काल्पनिकता भरी हैं, जिससे फ़ातिमा शेख का पात्र खड़ा हो सके।इस उपन्यास को महाराष्ट्र के पूर्व आई.जी. (पुलिस महानिरीक्षक) एस.एम. मुश्रीफ ने आमुख लिखा है। मुश्रीफ बहुचर्चित हू किल्ड करकरे?’ किताब के लेखक भी हैं। 

इसमें फ़ातिमा पर प्रचारित चार वाक्यों के अलावा और जानकारी भी उपलब्ध होती हैं। लिखते हैं, फ़ातिमा शेख और उस्मान शेख मूल रूप से नासिक जिले के मालेगांव के रहने वाले हैं। 1857 के विद्रोह के बाद, उत्तर प्रदेश में जुलाहा (बुनकर) समुदाय के कई परिवार महाराष्ट्र के मालेगांव, धुले, भिवंडी, मुंबई में आकर बस गए थे। फ़ातिमा और उस्मान शेख इसी परिवार से थे। जब दोनों छोटे थे, तब उनके माता-पिता परलोक सिधार गये और दोनो अनाथ हो गए।

उसी दौर में मालेगांव में भयानक अकाल पड़ा। बुनकर समुदाय द्वारा बनाए गए कपड़ो का कोई खरीददार नहीं था। इसलिए कई बुनकर परिवार मालेगांव छोड़कर पुणे आ गये। उनके साथ फ़ातिमा और उस्मान भी थे। उन्हें पुणे के गंज पेठ स्थित गफ्फार बेग नाम के एक सज्जन ने आश्रय दिया था। उस्मान की उम्र अब स्कूल जाने लायक हो चुकी थी। तो बेग साहब ने उसे एक स्कूल में डाल दिया। जोतीराव फुले भी उसी स्कूल में पढ़ रहे थे। वह उस्मान के सहपाठी थे और बाद में वे दोस्त बन गए।

बचे साड़े तीन पन्नों में मुश्रीफ ने सत्यशोधक आंदोलन, जोतीराव तथा सावित्रीबाई, ब्राह्मणवाद और उस दौर के रिग्रेसिव फोर्स पर टिप्पणी की है।

इस आमुख के बारे में पुछने पर मुश्रीफ ने मुझसे कहा, लेखक मेरे निजी परिचित व्यक्ति के संपर्क से आए। उन्होंने किताब हाथ में देते हुए कहा, आपके लिखे आमुख से किताब का महत्व बढ़ जाएगा। मैंने इस किताब में जो लिखा हैं, आप उसी समरी को लिख कर दे तो भी बेहतर! इसके बाद मैंने आमुख में वैसा ही लिखा। जिसका मेरी नजर में कोई अकादमिक वैल्यू नहीं हैं। बस नॉवेलिस्ट के कहने पर मैंने लिखा।

1857 की कहानी यहां फिट नहीं बैठती। क्योकि गुगल के मुताबिक फातिमा का जन्म सन 1831 में पुणे में हुआ हैं। वहीं दुसरी बात यह भी हैं की, फुले 1857 के गदर के खिलाफ थे। उन्होंने इसके विरोध में भूमिका ली थी। इसकी वजह इनका एक मुस्लिम दोस्त था। जिसका नाम मौलवी नूरूल हुदा था। नूरुल को गणू माळी के साथ मौत की सजा दी गई थी, उनपर आरोप था की उन्होंने इस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोहीयों की मदद की हैं। यह दोनो जोतीराव के करीबी दोस्तों मे गिने जाते थे। यहीं वजह थी की कंपनी सरकार फुले से नाराज थी। ग. बा. सरदार के मुताबिक फुले ने यह नाराजगी दूर करने के लिए 1857 के विद्रोह के खिलाफ भूमिका ली और विद्रोहींयो का भला-बुरा कहा। (पेज-66) जब फातिमा का परिवार 1857 का गुनहगार था तो फुले के सोथ उनकी खुलकर दोस्ती कैसे हो सकती हैं? 

जब कल्पना संदर्भ बनती है

मुश्रीफ के मुताबिक ऊपर उनकी लिखे आमुख का अकादमिक मूल्य शून्य हैं। तो काकडे ने काल्पनिकता को आधार बनाया हैं। पर इन दोनो संदर्भ के आधार पर एक और किताब लिखी गई हैं। जो पिछले सालभर से व्हॉट्सएप पर व्हायरल हो रही हैं। इसके लेखक हैं सय्यद नासिर अहमद हैं। जो मूलत: आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के निवासी हैं।

दि फर्स्ट मुस्लिम विमेन टीचर ऑफ मॉडर्न इंडिया : फ़ातिमा शेखशीर्षक की यह किताब 74 पन्नों (मूल लेख 30 पेज) की हैं। मूल तेलुगु का यह अंग्रेजी अनुवाद हैं। आमुख में वह लिखते हैं, (सटीक जानकारी न मिलने की सूरत में) मैंने उस निराशाजनक परिदृश्य में भी पीछे न हटने का फैसला किया और दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ा। मैंने अपना मन बना लिया था की, जो भी जानकारी हासिल हुई, उसके साथ एक किताब निकाले।

इस किताब के पेज नंबर 50 पर उन्होंने काकडे और मुश्रीफ का नाम लेकर संदर्भित किया हैं। किताब लिखने के पहले सितम्बर 2020 में नासिर अहमद ने मुझसे बात भी की थी। मुझसे पहले वह मराठी के तमाम जानकारों से बात कर चुके थे। जबकि मैंने उन्हें साफ कह दिया था, फ़ातिमा शेख पर एक शब्द के आधार कल्पना खड़ी करना इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने जैसा हैं।जवाब में उन्होंने मुझसे कहा, जब प्रगतिशील आंदोलन फ़ातिमा शेख को अपने हर कार्यक्रम में जगह दे रहा हैं तो, मुसलमानों की जिम्मेदारी बनती हैं, बार-बार उनका स्मरण करे।

सितम्बर 2019 को दि प्रिंटमें एक आर्टिकल छपा, जो दिलीप मंडल ने लिखा था। जिसका शीर्षक सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं का पहला स्कूल खोलने वाली फ़ातिमा शेख। इस आलेख में भी घुमा फिरा कर उन्हीं चार वाक्यों को रटा गया है, जो प्रचारित है। लेखक ने हेडलाइन में फ़ातिमा शेख का नाम लेकर पाठकों को ठगा है। इसी तरह कुछ मराठी वेब पोर्टल पर फ़ातिमा शेख को लेकर कई आर्टिकल रचे गए हैं जिसमें कोई तथ्य या प्रमाण नजर नहीं आते।

बालभारती की चर्चा

इस चर्चा में बालभारती का जिक्र करना लाजमी हो जाता हैं। क्योंकि हर जगह इसी संदर्भ को आगे किया जाता हैं। बालभारती महाराष्ट्र का स्कूली शिक्षा पाठ्यक्रम मंडल। जिसने दूसरी कक्षा के उर्दू किताब में फ़ातिमा का पाठ लिया हैं। जो सबसे पहले 2013 में शामिल किया गया। पेज नंबर 59-61 पर यह पाठ आता हैं।

तीन पन्नों के इस पाठ में लिखा हैं, वालिद के नाराज होने की वजह से जोतिबा को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। उनके एक दोस्त उस्मान शेख पूना के गंज पेठ में रहते थे। उन्होंने जोतिबा को रहने के लिए अपना घर दिया। यहीं जोतिबा ने अपना पहला स्कूल शुरू किया।

उस्मान शेख भी लड़कियों की तालीम की अहमियत को समझते थे। उनकी एक बहन फ़ातिमा थी। जिससे वह बहुत चाहते थे। उस्मान शेख ने अपनी बहन के दिल में तालीम का शौक पैदा किया। सावित्री बाई के साथ वह भी लिखना पढ़ना सीखने लगी।

बाद में उन्होंने मुदर्रिसी की सनद भी हासिल की। महात्मा फुले ने लड़कियों के लिए कई स्कूल कायम किए। सावित्री बाई और फ़ातिमा ने वहां पढ़ाना शुरू किया। वह जब भी रास्ते से गुजरती, तो लोग उनके उनकी हंसी उड़ाते और उन्हें पत्थर मारते।

दोनों इस ज्यादती को बर्दाश्त करती रही, लेकिन उन्होंने अपना काम बंद नहीं किया। फ़ातिमा शेख के जमाने में लड़कियों की तालीम में बेशुमार रुकावटें थी। ऐसे जमाने में उन्होंने खुद तालीम हासिल की। दूसरों को लिखना पढ़ना सिखाया।

वह तालीम देने वाली पहली मुस्लिम खातून थी जिनके पास मुदर्रिसी की सनद मौजूद थी। फ़ातिमा शेख ने लड़कियों की तालीम के लिए जो खिदमत अंजाम दी, उसे भुलाया नहीं जा सकता। घर-घर जाना लोगों को तालीम की जरूरत समझाना। लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए उनके मां-बाप की खुशामद करना, फ़ातिमा शेख की आदत बन गई थी।

आखिर उनकी मेहनत ने अपना असर दिखाया। लोगों के हालात में तब्दीली आई। वह लड़कियों को स्कूल भेजने लगे। लड़कियों में भी तालीम का शौक पैदा हुआ। स्कूल में उनकी तादाद बढ़ती गई। मुस्लिम लड़कियां भी कुछ खुशी-खुशी स्कूल जाने लगी।

यह पाठ स्कूली बच्चों को ध्यान में रखते हुए लिखा गया हैं। जैसा की काकडे और नासिर अहमद बता चुके हैं, सावित्री बाई के जिंदगी का दूसरा रूप फ़ातिमा शेख हैं। बस इसी को आधार बनाए फ़ातिमा शेख पर कहानियां बनाई जा रही हैं। मगर यह काल्पनिकता धीरे-धीरे और भी रंगीन होते जा रही हैं और इतिहास बनती जा रही हैं। 

फुले के चरित्र में गफ्फार मुन्शी बेग नाम का एक पात्र आता हैं। 1938 मे लिखी पंढरीनाथ सिताराम पाटील (मध्य प्रदेश के वऱ्हाड प्रांत [अब महाराष्ट्र का विदर्भ] विधायक थे, जिन्हे फुले का पहला जीवनीकार माना जाता हैं।) ने  महाराष्ट्र का फुले जीवनी में गफ्फार बेग के बारे में लिखा हैं की जोतीराव 14 साल की उम्र (1841) में फिर से स्कूल जाने लगे, क्योंकि गफ्फार बेग और उनके सहयोगी मी. लिजिट साहब ने जोतीराव के पिता गोविंदराव को सलाह दी की अपने लड़के को स्कूल भेजे, क्योंकि वह पढ़ाई मो हशियार हैं। (पेज-2) गं. बा. सरदार भी फुले के अधिकृत जीवनीकार माने जाते हैं, उन्होंने भी अपने महात्मा फुले नामक चरित्र (1981, ग्रंथाली प्रकाशन) में यह बात (पेज-43) लिखी हैं। 

महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित महात्मा फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती से प्रकाशित और मुरलीधर जगताप लिखित युगपुरुष महात्मा फुले किताब (1991) में लिखा हैं, “गफ्फार बेग मुन्शी उर्दू और फारसी के अध्यापक थे। ... पिता का घर छोड़कर जोतीराव बाहर चले आए, तो पेट की चिंता उत्पन्न हुई। कपड़ो के सिवा वे पिता के घर से कोई भी वस्तु नहीं ले आए थे। ऐसे संकट के समय मुन्शी गफ्फार ने उनकी सहायता की। मुन्शीजी की बेटी फातिमा आगे चलकर जोतीराव की पाठशाला में सहायक बनी।” (पेज, 20 और 41)

वर्तमान में फातिमा को लेकर बोलचाल में कई कहानियां मौजूद हैं। लिखित की कहानियों में फातिमा को गफ्फार मुन्शी बेग की बहन बताई गई हैं, तो कही बेटी। इसी तरह उस्मान शेख और गफ्फार मुन्शी को लेकर भी कई कहानियां मिल जाएगी।  

महाराष्ट्र सरकार की सहयोगी संस्था साहित्य संस्कृति मंडल ने महात्मा फुले पर जितना भी साहित्य प्रकाशित किया हैं, इसमें गफ्फार बेग मुन्शी (जो फारसी और उर्दू के जानकार शिक्षक थे, उनके साथ ही मि. लेजेट) द्वारा गोविंदराव को बताए गए शिक्षा के महत्व और उसे जारी रखने की सलाह पर उन्होंने अपने लड़के जोतीराव को फिर से (1841) स्कूल भेजा। मगर कई जगहों पर मुन्शी को फ़ातिमा के भाई, तो कुछ जगह पिता बताया गया हैं, जबकि मुन्शी पर मराठी के तमाम किताबों ज्यादा कुछ लिखा नहीं हैं।

महात्मा फुले के जीवनीकार पं.सि. पाटील (1938) लिखते  हैं, पिता के कहने पर जोतीराव ने घर छोड़ा, तो वह गंज पेठ के एक मकान में रहने गए। जिसे अब फुले वाड़ा कहते हैं। (पेज-13) जबकि धनंजय कीर (1968), गं. बा. सरदार (1981), लक्ष्मणशास्त्री जोशी (1991), पाटील (1938) ने घर छोड़ने के बाद जोतीराव कहां गए इसका जिक्र नहीं किया हैं।

यह सभी फुले के अधिकृत जीवनीकार हैं। इनकी लिखी मराठी भाषा की फुले जीवनी को काफी अहमियत हैं। उन्होंने कहीं भी नहीं लिखा की, फुले घर छोड़ने के बाद किसी उस्मान शेख के घर गये या गफ्फार बेग की मकान पर.! फिर फ़ातिमा शेख को लेकर हो रही ऊपरी सभी चर्चा बेमानी साबित होती हैं।

धनंजय कीर ने अपने फुले जीवनी में 16 दिसंबर 1853 के ‘बॉम्बे गार्डियन’अखबार का हवाला देकर फुले के घर से  निकाले जाने का जिक्र किया हैं। उस अखबार के लिए फुले ने लिखा था, “निम्न वर्ग के बच्चों को पढ़ाने के वजह से मुझे अपने जाति के लोगों का तिरस्कार सहना पड़ा। मेरे पिता ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया और मुझसे कहा कि मैं कहीं भी अपनी घर-ग्रहस्थी शुरू कर दू। बेशक, स्कूल बंद था और मुझे आजीविका के लिए व्यवसाय करना पड़ा।” (पेज-42 इ-बुक पीडीएफ)

झुलेखां जबीं मेरी संपर्क की महिला मित्र है, जो इन दिनों दिल्ली में रहती है। वह 2018 से फ़ातिमा शेख पर रिसर्च करने के लिए पुणे और उसके परिसर के कई चक्कर काट चुकी है। महाराष्ट्र के दिगर जिलों का भी उन्होंने दौरा किया हैं। कई लोगों से मिल चुकी है, पर वह भी अब तक इस मामले में कोई ठोस जानकारी जुटा नहीं पायी है।

इसी तरह प्रस्तुत लेखक भी अब तक पुणे स्थित गंज पेठ के चक्कर लगा रहा हैं, की कोई ऐसा शख्स मिले जो गफ्फार बेग, उस्मान या फ़ातिमा के बारे में बता सके। मैं अब तक 50 से ज्यादा स्थानिक और बुजुर्ग लोगों से मिल चुका हूँ, पर कोई कुछ बता नहीं सका।

फ़ातिमा क्यों चाहिए?

ऊपर दिए गए तमाम विवरणों से यह साबित होता हैं की, फ़ातिमा शेख नाम का कोई किरदार इतिहास के संसाधनों में नजर नहीं आता। मगर फिर भी महाराष्ट्र में प्रगतिशील संघठनों की ओर से फातिमा का नाम सामने आता हैं। नाम से किसी को कोई दिक्कत नहीं, मगर प्रभाव में आकर जब काल्पनिक कहानियां गढ़ी जाती हैं और लोग उसे ही इतिहास मानने लगते है तो यह इतिहास के साथ बेईमानी होगी।

गूगल के हरकत के बाद फातिमा शेख के अध्याय में एक और कहानी गढ़ी गई हैं। जो कल को इतिहास बनकर हमारे सामने आता रहेगा। फातिमा शेख के पात्र से परहेज नहीं बल्कि उनके लिए बनाए जा रही कहानियों से नये मसले खड़े हो सकते हैं। इन कहानीयों का धीर धीरे विस्तार होते जा रहा हैं।

समाजशास्त्र के अध्येता प्रो. खालिद अन्सारी ने सितम्बर 2020 में सोशल मीडिया में फातिमा शेख के पर बहस छेड़ दी थी। गूगल की हरकत के बाद मैंने उनसे संपर्क किया, उन्होंने बताया की, फातिमा शेख पर हालिया चर्चा उनके अस्तित्व या उनकी जन्म तिथि की सच्चाई के बारे में नहीं है। उस हिसाब से, सभी सबाल्टर्न इतिहास शायद विफल हो जाएंगे। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सार्वजनिक स्मृति के रूप में क्या मौजूद है। जिसको लेकर कहानियां गढ़ी जा रही हैं

फुले साहित्य पर महारत रखने वाले सूरज येंगडे जो इन दिनों हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शोधकार्य कर रहे हैं। वे दलित स्कॉलर और पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में भी जाने जाते हैं। 2017 में ट्विटर पर इस तरह के कहानियों पर उन्होंने लिखा था, “प्रोफेसर हरी नरके 30 साल के रिसर्च और मेरे अपने शोध में हम फातिमा शेख के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं पा सके, जो फुले की शिक्षिका और सह-कर्मीथी। सार्वजनिक अपील है की, कृपया विश्वसनीय अभिलेखीय/प्राथमिक स्रोत प्रदान करें सेकेंडरी नही।

खालिद अन्सारी अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में असोसिएट प्रोफेसर हैं, वे उत्तर भारत में चल रहे भी पसमांदा आंदोलन थिंक टँक भी हैं। काल्पनिक कहानियों पर वे कहते हैं, हिस्ट्री राइटिंग के अलग-अलग मीडियम होते हैं, हम उस पर सवाल नहीं कर रहे हैं। हम उनके योगदान को भी नकार नहीं रहे हैं। बहस यह है कि जब कोई पॉपुलर मेमरीज का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है, कहीं पर कोई ठोस कोई चीज नहीं मिलती है, फिर नई-नई कहानियां कहां से आती हैं?”

यहीं वजह है की, 9 जनवरी को कई विद्वानों ने गूगल को सवाल पुछे थे। हरी नरके महाराष्ट्र में फुले साहित्य पर महारत रखने वाले एक बड़ी शख्सियत हैं। उन्होंने भी फेसबुक पर इस तरह के सवाल गूगल से किये।

लिखते हैं, फ़ातिमा शेख को उनके जन्मदिन पर अभिवादन करते हुए डूडल और उसके बाद सोशल मीडिया पर बधाई की बौछार हो रही है। खुशी होती है। इस जन्म तिथि की खोज किसने की? कब की? किस दस्तावेज के आधार पर यह जिक्र मिला हैं, मैं यह जानने का इच्छुक हूं। क्या कोई मुझे बता सकता है? एक दिल से गुजारीश हैं। -प्रा. हरी नरके..”

जाहिर हैं, उनके सवालों पर चर्चा करने के बजाए प्रगतीशील धड़े के साहित्यकार, भाष्यकार तथा समाजसेवी संगठनों के सदस्यों के बिच शाब्दिक कहासुनी हुई। जिसके बाद दूसरे दिन नरके ने फिर से एक टिप्पणी कर लिखा, तीस साल से मैं गफ्फार मुन्शी बेग, उस्मान और फ़ातिमा शेख पर मिळून साऱ्याजणी (एक मराठी पत्रिका) से लेकर कई किताबों में, लिख-बोल रहा हूँ। सीरियल में दिखाया हूँ। वास्तविक सबसे पहले इस जानकारी को प्रकाश में लाने वाला और उसे निरंतरता से चर्चा में रखने वाला मैं ही हूँ, फिर भी मुझे विरोधी बताने वाले धन्य हैं।

ऐसा ही वाकया मेरे साथ उस दिन पेश आया। टीवी पत्रकारिता के दिनों के मेरे वरिष्ठ सहयोगी चंद्रकांत पाटील ने फातिमा लिखे मेरे ट्विटर थ्रेड पढ़े। जिसके बाद उन्होंने मुझे ट्विटर स्पेस में बोलने के लिए आमंत्रित किया। मैंने उन्हें तब ही बताया की, इसमें बोलने जैसा कुछ हैं नही। क्योंकि इस किरदार पर बेसिक कोई जानकारी ही नहीं मिलती फिर क्या बोले!

फिर भी मैं उनके गुजारिश पर स्पेस मे शामिल हुआ। मेरी तथ्यात्मक तथा वास्तविक जानकारी पर लोग उसी तरह सवाल करने लगे। मेरा फातिमा के पात्र को खंडन करने का कोई इरादा नहीं था। मगर वास्तविकता को भी झुठलाया नहीं जा सकता है।

फातिमा शेख पर वास्तवदर्शी सवालों से प्रगतिशील संगठन परेशान होता दिखाई दे रहा हैं। आज फातिमा शेख इतिहास नहीं बल्कि अस्मिता का पात्र बना हैं। भारत में अस्मिता की जंग काफी पुरानी हैं। जिससे संबंधित समुदाय विशेष का आहत होना लाजमी हैं।

यहीं वजह हैं कि आज महाराष्ट्र में प्रगतिशील धड़े के कई जाने माने नाम फातिमा पर बोलने से कतराते हैं। मैंने कई विद्वानों से बात की, वह निजी बैठकों में तो वह बात करते हैं, पर सार्वजनिक रूप से बोलना टालते दिखाई देते हैं।

पुणे में कई संगठ, संस्था निजी रूप से फातिमा पर खोज करने काम करते हैं। कई खोजकर्ता के मुताबिक फातिमा शेख दलित मुस्लिम यूनिटी के लिए एक अहम पात्र साबित हो सकता हैं। यहीं वजह हैं कि हम उसे रोशनी में लाने का काम कर रहे हैं।

एक मुस्लिम सामाजसेवी नाम न छापने के शर्त पर बताते हैं, “बीते चार-पाँच साल से हम हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद के लिए इस मंच का इस्तेमाल कर रहे हैं। फ़ातिमा का नाम लेने पर कई नॉन मुस्लिम लोग हमसे जुडते हैं। जंग ए आज़ादी तथा देश के विकास में अहम भूमिका मे रहे मुस्लिम महामानवों पर बात करते हैं।

नासिर अहमद भी दलित-मुस्लिम यूनिटी के लिए कम जानकारी होने के बावजूद किताब लिखने की बात स्वीकार करते हैं। कहते हैं, हमारे परिसर में दलित-मुस्लिम एकता के लिए फ़ातिमा एक अच्छा मंच साबित हो रही हैं। फ़ातिमा से समाज में सद्भाव की भावना पनप रही हैं। आगे चलकर यह एक अच्छी मिसाल साबित हो सकती हैं। इसलिए जो भी जानकारी फिर वह सेकंडरी ही क्यो न हो लिखना तो जरूरी हैं!”

प्रो. अन्सारी के मुताबिक, हिस्ट्री हमेशा आज के जरूरतों के हिसाब से, वर्तमान के हिसाब से लिखी जाती है। तो समझने का मामला है कि फ़ातिमा शेख के किरदार को, उनके व्यक्तिरेखा को, उनके योगदान को क्यों रिकंस्ट्रक्ट किया जा रहा है। 2010 के बाद ऐसी क्या जरूरत थी जिसकी वजह से उनको रिकंस्ट्रक्ट किया जा रहा है।

प्रो. अन्सारी दलित-मुस्लिम यूनिटी के फ़ातिमा शेख के पात्र को संवारने में कई बुराई नहीं मानते। मगर काल्पनिक कहानियों से उन्हे परहेज हैं।

(जाते जाते सूचना : यह आलेख दो साल पुराना हैं, पर गुगल ने फातिमा की जन्मदिन की तारीख घोषित करने के बाद इसे अपडेट कर यहां प्रकाशित किया हैं। पीछले लेख में लिखे सूचना के साथ इसे यहां दे रहे हैं। फातिमा पर शोधकार्य जारी हैं, इस शोध में जो मिला या नहीं मिला उसपर इतना लेख लिख पाये हैं। आगे भी शोध जारी हैं।)

कलीम अजीम, पुणे

मेल-kalimazim2@gmail.com

वाचनीय

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नजरिया: फातिमा शेख का किरदार इतिहास में नजर क्यों नहीं आता?
फातिमा शेख का किरदार इतिहास में नजर क्यों नहीं आता?
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