फातिमा इतिहास को वह पात्र हैं, जो जोतीराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन से जुड़ा हैं। कहा जाता हैं की, फातिमा शेख सावित्रीमाई फुले की सहयोगी थी। उन्होंने सावित्रीमाई के साथ मिलकर स्कूल में बच्चो को पढ़ाने का कार्य किया। दरअसल यह बात सावित्रामाई के एक खत के आधार पर की जाती हैं। जिसमें फातिमा का जिक्र हैं। मगर सिर्फ एक शब्द का! जिससे फातिमा का पूरा पात्र खड़ा नहीं हो पाता। यहीं वजह से उनको माननेवाले और नकारने वालों के दो धड़े दिखाई पड़ते हैं।
देखा
जाए तो फातिमा शेख के किरदार से इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह सावित्रीमाई
फुले के लिखी बातों में हैं। मगर और ज्यादा ऐतिहासिक संदर्भ या सबूत मिलते तो,
फातिमा का पूरा व्यक्तित्व हमारे सामने आ सकता था। फातिमा के किरदार पर उठते सवाल पुरी
तरह सहीं भी नहीं है और गलत भी नहीं। मगर इस संदेह से फातिमा के किरदार को पुरी
तरह नकारना बेमानी होगी।
इस
पात्र लेकर पीछले कुछ सालों से राजनीति चल निकली हैं। प्रगतीशील और प्रतिगामी
विचारधारा की आपसी लड़ाई ने इस पात्र को लेकर और ज्यादा विवाद पैदा किया हैं। वैसे
देखा जाए तो सत्यशोधक आंदोलन के विरोधी इसके स्थापना से फुले के विचारों और
कार्यों का विरोध करते आए हैं। जिसके पीछे जाति समर्थक ब्राह्मणवादी मानसिकता थी।
आज वहीं हरकत फुलेविरोधी संघठन फातिमा के साथ करते देखे जा सकते हैं।
इसी
विचारधारा ने जोतीराव फुले के विचार, कार्य, सोच और साहित्य को प्रकाश में आने से
रोका। उनके विचारों और कार्यों पर सवालिया निशान लगाए। सावित्रीबाई को भला-बुरा
कहां। इसी कड़ी में फातिमा पर उठते सवालों को भी देखा जा सकता हैं।
9 जनवरी 2022 को गूगल ने फ़ातिमा शेख
पर डूडल बनाकर उन्हें 191वें जन्मदिन की बधाइयां पेश की। जिसके
बाद देशभर में फातिमा को लेकर चर्चा आम हुई। गूगल ने जो कहानी बताई, उसका ऐतिहासिक
संदर्भ या आधार नहीं था। इतिहास में फातिमा के एक सिंगल नाम के अलावा कुछ दिखता नहीं
तो गूगल के पास यह कहानी कहां से आई?
गूगल के
डूडल के बाद प्रगतीशील आंदोलन खुश था, तो प्रतिगामी संघठन सदमें में चला गया। मगर
गूगल जो किया वह इतिहास के साथ बेमानी थी। गूगल के इस हरकत ने फातिमा के किरदार पर
पूर तरह से सवालियां निशान लगा ड़ाला। जिसके बाद दक्षिणपंथी धड़ों में फातिमा को काल्पिनक
पात्र बताने ही होड़ सी लग गई।
महज एक ‘शब्द’ से किसी व्यक्ती का पूरा पात्र खड़ा करने में
आपत्ती हैं। इसे इतिहास के साथ छेडछाड़ भी कहा जा सकता हैं। प्रस्तृत लेखक फातिमा को
लेकर कई सालों से शोध कर रहे हैं। मगर उन्हें अब तक कुछ तसल्लीवश नही हासील हो
पाया। मगर गूगल के डूडल के बाद पब्लिक डोमेन में फातिमा के जीवन कार्य और उनके
व्यक्तित्व को लेकर एक मजबूत आधार मिला हैं।
गूगल के हरकत पर प्रस्तृत लेखक सवाल उठाता हैं। एक शब्द को लेकर कहानी गढने से फातिमा पर उठते सवालों को और बल मिलेंगा। यह भी हो सकता हैं की, फुले विरोधी और दक्षिणपंथी ताकते इसका गलत मतलब निकाल कर इतिहास के अन्य क्रांतिकारी महामानवों के खिलाफ झूठी बयानबाजी कर सकते हैं। दुष्प्रचार करेंगे। उन्हें नकार भी सकते हैं। गलत मुहिम चलाकर अधुरी या कम जानकारी वाले अन्य सुधारकों जैसे, गफ्फार बेग, उस्मान शेख, ताराबाई शिंदे, मुक्ता साळवे आदी के अस्तित्व को नकारने के लिए भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं।
प्रस्तृत
लेखक का मानना था की, जब तक कोई ठोस आधार नही मिलने इसपर बात नहीं करेगे। मगर गूगल
के हरकत बाद खामोश रहना गलत लगा। झुठी जानकारी या गलत इतिहास से लेखक को परहेज
हैं। पिछले 100 सालों मे देश ने उसके परिणाम देखे
हैं। इस को ध्यान मे रखते हुए हम इस निबंध को लिख रहे हैं। हो सकता हैं, इससे
प्रगतीशील धड़ा नाराज हो और दक्षिणपंथीयों को और बल मिले!
सबसे पहले हम साफ करना चाहते हैं
की, हमें फातिमा के किरदार को लेकर कोई संदेह नही हैं। मगर महज एक शब्द लेकर पुरा
व्यक्तित्व गढ़ना गलत हैं। उस दिन गूगल ने लिखा, “आज का डूडल भारतीय
शिक्षिका और नारीवादी प्रतीक फ़ातिमा शेख को याद कर रहा है, जिन्हें व्यापक रूप से भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षक माना जाता
है। सहयोगी अग्रदूत और समाज सुधारक जोतीराव और सावित्रीबाई फुले के साथ, शेख ने 1848 में स्वदेशी पुस्तकालय की सह-स्थापना की, जो लड़कियों के लिए भारत के पहले स्कूलों में से एक था।”
गूगल आगे लिखता हैं, “फ़ातिमा शेख का जन्म आज ही के दिन 1831 में पुणे, भारत में हुआ था। वह अपने भाई उस्मान के साथ रहती थी। निचली जातियों
के लोगों को शिक्षित करने के कोशिश के बाद (पिता द्वारा) फुले दम्पत्ति को घर से
निकाले जाने के बाद इन (फ़ातिमा-उस्मान) भाई-बहनों ने उनके लिए अपना घर खोल दिया।
पहला स्वदेशी पुस्तकालय यहीं शेख
की छत के नीचे खुला। यहां, सावित्रीबाई फुले और
फ़ातिमा शेख ने हाशिए के दलित समुदायों के बच्चों और मुस्लिम महिलाओं को पढ़ाया, जिन्हें वर्ग, धर्म या लिंग के आधार पर
शिक्षा से वंचित किया गया था।
भारत की निचली जातियों में पैदा
हुए लोगों को शैक्षिक अवसर प्रदान करने के फुले के प्रयासों को ‘सत्यशोधक’ समाज (सत्य का खोजी समाज) आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा। समानता के
लिए इस आंदोलन के आजीवन सदस्य के रूप में शेख ने घर-घर जाकर अपने समुदाय और दलितों
को स्वदेशी पुस्तकालय में पढ़ने और भारतीय जाति व्यवस्था की कठोरता से बचने के लिए
आमंत्रित किया।
उन्हें प्रभुत्वशाली वर्गों के
भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने सत्यशोधक आंदोलन में शामिल लोगों को
अपमानित करने की कोशिशें की, लेकिन शेख और उनके
सहयोगी डटे रहे।
हालांकि, (फ़ातिमा) शेख की कहानी को ऐतिहासिक रूप से अनदेखा कर दिया गया है, भारत सरकार ने 2014 में अन्य अग्रणी भारतीय शिक्षकों के साथ उर्दू
पाठ्यपुस्तकों में उनकी व्यक्तीचरित्र को प्रकाशित कर उनकी उपलब्धियों पर नई रोशनी
डाली।”
1
कुछ तथ्य
जैसा के शुरुआत में बताया गया
की, समग्र सावित्रीबाई में फ़ातिमा का एक शब्द का जिक्र मिलता हैं। जो 10 अक्टूबर
1856 को उन्होंने अपने पति जोतीराव को लिखा था। उस मूल खत का कुछ हिस्सा निचे दे
रहे हैं। जिसे डॉ. मा.गो. माळी द्वारा संपादित ‘सावित्रीबाई फुले समग्र साहित्य’, पेज
नंबर 73-74 से लिया गया हैं। यह
किताब सबसे पहले 1988 में छपी थी। जिसमे सावित्री लिखती हैं-
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सावित्रीबाई ने जोतीराव के लिए भेजा हुआ खत |
पत्रास कारण की,
माझ्या तबियतीत अनेकदा उलटा
पालटी होऊन ताळ्यावर आली आहे. या दुखण्यात भाऊने अपरिमित श्रम घेऊन माझी सेवा केली
आहे. यावरून तो किती प्रेमळ आहे हे दिसून येते. मी परिपूर्ण दुरुस्त होताच पुण्यास
येईन. काळजीत असू नये. फातीमास त्रास पडत असेल पण ती कुरकूर करणार नाही. अस्तु.”2
मूल सार का अनुवाद-
“सत्यरूप जोतिबा जी को,
सावित्री का सविनय प्रणाम।
“खत लिखने की वजह यह है की, मेरी तबीयत बहुत बार उलट-पलट होने के बाद अब ठीक हुई हैं। इस हालात में भाई ने मेरी हमेशा देखभाल की और ख़ूब खिदमत की। उसकी इस खिदमत से मैंने महसूस किया कि मेरे लिए उसका प्यार और लगाव बहुत ही ज्यादा है। मेरी फिक्र न करें, मैं पूरी तरह ठिक होकर ही आऊँगी। मैं जानती हूं कि मेरे पुणे में न होने के वजह से फ़ातिमा पर काम को बोझ बढ़ गया होगा, पर वह कभी ना-नुकर नहीं करेगी।”
इसी किताब के 50 नंबर के पन्ने पर एक तस्वीर छपी हैं। जिसमे सावित्री बाई
के साथ दो महिला और दो बच्चे है। नीचे लिखा हैं, 100 साल पहले के दुर्लभ
निगेटिव्ह के आधार पर यह बनाई हैं। किताब के संपादक मा.गो. माळी ने इसका विवरण
दिया हैं। लिखते हैं,
मूल मराठी: “सावित्रीबाईंच्या
छायाचित्रबद्दलची स्पष्टीकरण देणे आवश्यक आहे. पूर्वी हे छायाचित्र ‘मजूर’ या पुण्यामध्ये प्रसिद्ध
होत असलेल्या पत्रात प्रसिद्ध झाले होते. हे पत्र पुण्यात 1924 ते 1930 या काळात
निघत होते. या पत्राचे संपादक कै. ना.रा. लाड हे होते. हे छायाचित्र मला श्री.
द.स. झोडगे यांच्याकडून मिळाले. स्वतः झोडगे ‘मजूर’ पत्राचे काही काळ
उपसंचालक होते. त्यांनी या छायाचित्राबाबत अधिक स्पष्टीकरण केले. लोखंडे नावाच्या
एका मिशनरी गृहस्थाने प्रसिद्ध केलेल्या पुस्तकात सावित्रीबाईंचा ग्रुप फोटो होता.
तो फोटो व प्रसिद्ध झालेल्या ‘मजूर’ पत्रातील फोटोत साम्य आहे. त्या
ग्रुप फोटोवरून सावित्रीबाईंचे छायाचित्र काढले आहे. 1966 साली प्रसिद्ध झालेल्या ‘महाराष्ट्राच्या
कर्तृत्वशालिनी’ (लेखिका : प्रा. लीला पांडे) या पुस्तकातही जे रेखाचित्र
पहावयास मिळते त्या रेखाचित्रात व या छायाचित्रात कोणताही फरक नाही. या
छायाचित्रांशीवाय इतर छायाचित्रांबाबत मी शहानिशा करून घेतली आहे. पुण्यात श्री.
एकनाथ पालकर यांच्याकडे काही निगेटिव्हज होत्या. श्री. झोगडे यांना त्या उपलब्ध झाल्या.
त्यावरून सावित्रीबाई फुले आणि फातिमा शेख यांचे छायाचित्र उपलब्ध झाले.”
अनुवाद
इस तरह :
“सावित्रीबाई
के तस्वीर को लेकर स्पष्टीकरण देना जरुरी हैं। पहले यह तस्वीर ‘मजूर’ नाम की पुणे से प्रकाशित होने पत्रिका में छपा
था। यह पत्रिका पुणे से 1924 से 1930 के बीच निकलती थी। इस पत्रिका के संपादक स्व.
ना.रा. लाड थे। यह तस्वीर मुझे श्री. द.स. झोडगे की ओर से मिली। झोडगे खुद ‘मजूर’ पत्रिका के कुछ समय तक उपसंचालक थे। उन्होंने
इस तस्वीर के बारे अधिक स्पष्टीकरण दिया। लोखंडे नाम के एक मिशनरी के व्यक्ती द्वारा
प्रकाशित किताब में सावित्रीबाई की यह ग्रुप फोटो थी। इसमें और प्रकाशित हुए मजूर
पत्रिका के फोटो में समानता हैं। उस ग्रुप फोटो से सावित्रीबाई की तस्वीर निकाली
हैं। साल, 1966 में प्रकाशित ‘महाराष्ट्राच्या कर्तृत्वशाली’ (लेखिका : प्रो. लीला पांडे) किताब में जो रेखाचित्र
देखा जा सकता हैं उस रेखाचित्र में या इस तस्वीर में कोई भी अंतर नहीं। इस तस्वीर के
अलावा अन्य तस्वीरों के संदर्भ में मैंने खोजबीन कर ली हैं। पुणे में श्री. एकनाथ
पालकर के पास कुछ निगेटिव्हज थे। श्री. झोगडे को वह इन्हीं से मिली। इस द्वारा ही
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख की तस्वीरे उपलब्ध हुई.” 3
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फातिमा और सावित्री का फोटो |
वह लिखती हैं, “दोनों महिलाओं ने साधारण और मजबूत किनारों वाली सादे रंग की, एक जैसे साड़िया पहनी हैं। इससे पता चलता है कि वे खुद को पेशेवर
शिक्षकों के रूप में पेश करना चाहते थे, जो एक ही साधारण लेकिन सम्मानजनक पहनावे में थे।” 4 मगर बाकी इतिहास पर चर्चा करने से वे बचती हैं।
इस संकलन से पहले डॉ. मा.गो.
माळी का हरी नरके संपादित ‘महात्मा फुले गौरव ग्रंथ’ (1982) में ‘क्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले : काळ आणि कर्तृत्व’ नाम से एक लेख हैं। उसमें
उन्होंने फातिमा शेख के बारे में विस्तार से लिखा हैं। कहते है,
मूल मराठी: “उस्मान शेख यांच्या भगिनी फातिमा शेख यांनी सावित्रीबाईच्याबरोबर शिक्षिका
म्हणून उत्तम काम केले आहे. उस्मान शेख हे महात्मा फुल्यांचे जिवलग मित्र.
ज्यावेळी फुले दंपतीला अंगावरील वस्त्रानिशी जगाचा संसार करण्यासाठी घराबाहेर
पडावे लागले त्यावेळी हा खरा मित्र मदतीस धावून आला. त्याने आपल्या गंजपेठेतील
राहत्या घरातील जागाच दिली असे नव्हे तर संसाराला लागणारी थोडी भांडीकुंडीसुद्धा
दिली. फुले दंपतीने शिक्षिका तयार करण्यासाठी जे 'नॉर्मल
स्कूल' काढले त्यामधून ट्रेंड झालेल्या पहिल्या विद्यार्थिनी
व पहिल्या शिक्षिका म्हणजे फातिमा शेख होत. तसेच एकोणिसाव्या शतकातील त्या
भारतातील पहिल्या मुस्लिम स्त्रीशिक्षिका होत. सावित्रीबाई आणि फातिमा या दोघी
एका-एका मागासलेल्या समाजातील मुलींच्या शाळेवर, तर ब्राह्मण
शिक्षक ब्राह्मण श्रीमंतांच्या मुलींच्या शाळेवर काम करत असत. या दोघींचे
अध्यापनकार्य सर्व दृष्टीने उठावदार आणि गुणवत्तापूर्ण असे.”
अनुवाद
इस तरह :
“उस्मान
शेख की बहन फातिमा शेख ने सावित्रीबाई के साथ मिलकर शिक्षिका के रूप में बढ़िया
काम किया है। उस्मान शेख महात्मा फुले के करीबी दोस्तों में थे। जिस समय फुले दम्पति
को बदन के कपड़ों के साथ दुनियावी संसार करने के लिए घर के बाहर निकलना पड़ा, तब यह
सच्चे दोस्त मदद के लिए दौड़ कर आए। उन्होंने अपने गंज पेठ के रिहायशी घर में जगह
दी। इसी के साथ गृहस्थी के लिए लगने वाले थोड़े बरतन-वरतन भी दिये। फुले दम्पति ने
शिक्षिका तैयार करने के लिए जो ‘नॉर्मल स्कूल’ निकाले उसमें से ट्रेंड होने वाली पहली छात्र और पहली शिक्षिका फातिमा
शेख थी। इसी के साथ वह उन्नसवीं सदी की भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका बनी।
सावित्रीबाई और फातिमा इन दोनों एक-एक पिछड़े समुदाय के लड़कियों के स्कूल पर, तो
ब्राह्मण शिक्षक ब्राह्मण अमीरों के लड़कियों के स्कूल पर काम करते थे। इन दोनों
का अध्यापन कार्य हर नजरिए से उठावदार और गुणवत्तापूर्ण था।”5
जैसा की
पीछे बताया गया हैं कि यह लेख 1982 मे छपा था। इसके
बाद के कुछ किताबों मे इस तरह के प्रमाण पाये जाते हैं। मुरलीधर जगताप नामी एक
लेखक ने ‘युगपुरुष
महात्मा फुले’ किताब (1993) में कहा
हैं की, जोतीराव के घर से निकलने पर मुन्शी गफ्फार बेग ने उनकी सहायता की। यह
जानकारी अन्य संदर्भों से मेल नही खाती। साथ ही लेखक ने फातिमा को मुन्शी गफ्फार बेग
की बेटी बताया हैं।
उन्होंने लिखा हैं, “गफ्फार बेग मुन्शी उर्दू और फारसी के अध्यापक थे। ...पिता का घर
छोड़कर जोतीराव बाहर चले आए, तो पेट की चिंता उत्पन्न हुई। कपड़ो के अलावा वे पिता के
घर से कोई भी वस्तु नहीं ले आए थे। ऐसे संकट के समय मुन्शी गफ्फार ने उनकी सहायता
की। मुन्शीजी की बेटी फातिमा आगे चलकर जोतीराव की पाठशाला में सहायक बनी।” 6
जबकी फुले के पहले और अधिकारिक
जीवनीकार पं.सी. पाटील ने अपनी किताब ‘महात्मा फुले यांचा अल्प परिचय’ (1927) में गफ्फार मुन्शी बेग को लेकर कहीं बात ज्यादा सटीक हैं।
उनके मुताबिक साल 1841 में फुले के कुछ रिश्तेदारों ने जोतीराव का स्कूल जाना
धर्मद्रोह हैं, कहकर फुले के पिताजी गोवींदराव के कान भरे। उसके बाद गोविंदराव ने
जोतिबा को स्कूल भेजने के बजाए बाग काम में लगा दिया। ऐसे समय में गफ्फार बेग
मुन्शी और मि. लेजेट नें गोविंदराव को अच्छी सलाह और नसीहत देकर जोतीराव को फिर से
स्कूल में भेजने को कहा।7
कई जगहों पर मुन्शी को फ़ातिमा
के भाई, तो
कुछ जगह पिता बताया गया हैं, जबकि मुन्शी पर मराठी के
तमाम किताबों ज्यादा कुछ लिखा नहीं हैं। इसी तरह उस्मान शेख पर कोई ज्यादा विवरण नहीं
मिलता। कहा जाता हैं उस्मान शेख ने जो कि फातिमा के भाई थे, ने अपने
घर में फुले दम्पति को जगह दी। इससे यह कहा जा सकता हैं की, फुले दम्पति फातिमा के
साथ उनके घर रहे।
महात्मा फुले के जीवनीकार पं. सी.
पाटील (1938) लिखते हैं, “पिता के कहने पर जोतीराव ने घर छोड़ा, तो
वह गंज पेठ के एक मकान में रहने गए। जिसे अब ‘फुले वाड़ा’ कहते
हैं।”8 जबकि धनंजय कीर (1968), गं.बा. सरदार (1981), लक्ष्मणशास्त्री
जोशी (1991), पं.सी.
पाटील (1938) ने घर छोड़ने के बाद
जोतीराव कहां गए इसका जिक्र नहीं किया हैं।
यह सभी फुले के अधिकृत जीवनीकार
हैं। इनकी लिखी मराठी भाषा की फुले साहित्य को काफी अहमियत हैं। उन्होंने कहीं भी
नहीं लिखा की, फुले
घर छोड़ने के बाद किसी उस्मान शेख के घर गये या गफ्फार बेग की मकान पर! फिर
फुले कि फ़ातिमा ‘शेख’ के घर जाकर रहने की चर्चा बेमानी साबित होती हैं।
ऐतिहासिक प्रमाण नदारद
पिछले 200 सालों से महाराष्ट्र
में जोतीराव फुले तथा उनके सत्यशोधक आंदोलन के साहित्य पर संशोधन होता रहा हैं। आज
भी इसी साहित्य को संशोधित करने वाले बहुत से लोग देश-विदेश के अलग-अलग
यूनिवर्सिटियों में मौजूद हैं। उनके मुताबिक महात्मा फुले द्वारा लिखें किसी भी
साहित्य तथा उनके सहयोगी लेखक, समाजसेवी के लेखन में
फ़ातिमा शेख का जिक्र नहीं मिलता।
प्रस्तृत लेखक ने व्यक्तिगत तौर
पर इस मामले में बहुत खोज की हैं। कई पुरानी धुल भरी पुरानी किताबों के कई पन्ने
झटके हैं। समसामाईक टिप्पणीयां, स्मृतिलेख, आत्मकथन तथा लेखन में फ़ातिमा को ढुंढा
हैं, पर
कहीं पर भी फ़ातिमा का जिक्र नहीं मिलता। लेखक ने महात्मा फुले और उनके समकालीन
मराठी लिखने वालों को भी पढ़ा है, उस समय के अखबारों को
टटोला है पर कहां भी फ़ातिमा के बारे में कुछ लिखा मिला नहीं।
हालांकि जोतीराव फुले अपनी हर एक
बात को ग्रंथ स्वरूप देकर लिख चुके हैं। उनकी सारी किताबें समग्र साहित्य के रूप
में मौजूद है। यह साहित्य महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। इसके
अलावा प्राथमिक संदर्भो के साथ फुले दम्पत्ति पर भी बहुत कुछ लिखा गया हैं और आज
लिखा भी जाता है। उसमें कहीं भी फ़ातिमा का जिक्र छोटा या विस्तार से नहीं आता।
फुले के समकालीन ‘कृष्णराव
भालेकर समग्र वाङ्मय’ में भी फातिमा का का जिक्र नज़र नही हैं।8 उसी
तरह ‘आम्ही पाहिलेले महात्मा फुले’ यानी ‘हमने देखे हुए महात्मा फुले’ यह एक काफी
अहम किताब हैं। जिसमे फुले के देखनेवाले-जाननेवाले लोगों ने फुले का व्यक्तिचरित्र
रेखांकित किये हैं। यह संस्मरण पंढरीनाथ सीताराम पाटील (1903-1978)
ने इकट्ठा किये थे। पाटील जोतीराव फुले के पहले अधिकारिक जीवनीकार
माने जाते हैं। उन्होंने फुले को जानने वाले, उनके करीबी जो उस वक्त हयात थे, ऐसे
लोगो से लिखित रूप मे संस्मरण लिए थे।
साल 1927 में पाटील ने फुले की जीवनी
लिखने के लिए यह संस्मरण इकट्ठा किए थे। तब तक वह एक छोटी पुस्तिका ‘महात्मा जोतीराव फुले यांचे चरित्र’ लिख चुके थे। पर उससे
उनका समाधान नही हुआ। जिसके बाद उन्होंने नये से संदर्भ जोड़ने शुरू किये और फुले
के जानने-पहचानने वालो को खत लिखे।9 उसके लिखित में जवाब पाटील के पास आए। इस आधार पर
उन्होंने अपनी बहुचर्चित किताब लिखी, जो 1938 में प्रकाशित
हुई।
इस पत्राचार को बाद में ‘आम्ही पाहिलेले फुले’ नाम से स्वतंत्र किताब
के रूप प्रकाशित किया गया। हमें बाबा आढाव के ‘समता प्रतिष्ठान’ द्वारा प्रकाशित 1992 का
संस्करण मिला। उसके बाद 1993 में राज्य सरकार के ‘महाराष्ट्र राज्य फुले चरित्र प्रकाशन समिती’ ने इसे
छापा। इस किताब में उस दौर के कई लोगों ने जोतीराव के बारे में विस्तार से लिखा हैं।
मगर फातिमा के बारे मे कोई जानकारी नहीं मिलती।
कुछ कहानियां
सावित्री बाई के खत में मौजूद उस
एक वाक्य के अलावा इतिहास में फ़ातिमा को लेकर और कोई संसाधन तथा प्रमाण उपलब्ध
नहीं होते। इतिहास के प्राथमिक सोर्स के बारे मे बात करे तो, ‘फातिमास’ इस एक शब्द के अलावा कुछ
नहीं हैं। ऐसे में यह भी एक वास्तविकता हैं की, इस एक शब्द से फ़ातिमा का
समग्र व्यक्तिचरित्र खड़ा नही होता। फिर भी उनके साथ ‘शेख’ उपनाम जोड़ व्यक्तिचरित्र
गढ़ा गया।
ऐसे में गूगल के दावे पर सवाल
उठना लाजमी हैं। 9 जनवरी को गूगल की इस
हरकत पर कई लोगों ने सवाल किया। सवाल पुछने वाले उन सब की सूची में प्रस्तुत लेखक
का भी नाम आता हैं। हम सभी का मानना था की, जब कोई रिसोर्सेज तथा
ऐतिहासिक प्रमाण नहीं होने के सूरत में गूगल ने यह नई जानकारी कहां से लाई?
जिस दिन गूगल ने फ़ातिमा के
जन्मदिन के बारे में बताया, इसके पहले से हम इस विषय
में लिखने की सोच रहे थे। सितम्बर, 2020 में
हमने सवालियां ब्लॉग लिखा था।10 कुछ तथ्यों के साथ फिर से विस्तार से लिखना चाह रहे थे। हमारी
रिसर्च चल ही रही थी, की गूगल ने चर्चा छेड़ दी!
इस संशोधन में हमें सेकेंडरी
सोर्स पर आधारित बहुत सी लिखावट मिली। जिसमें एक उपन्यास की चर्चा करना हम यहां
जरुरी समझते हैं। इस कहानीकार का नाम दिनकर विष्णू काकडे हैं। उन्होंने ‘फ़ातिमा शेख : भारतातील पहिली मुस्लिम शिक्षिका’ शीर्षक से एक मराठी
नॉवेल लिखी है,
जो पूरी
तरह फिक्शनल है।
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दिनकर विष्णू काकडे की नाव्हेल का कव्हर पेज |
यह एक काल्पनिक उपन्यास है। हमने
लेखक से बात की हैं। मगर वह हमे रिसोर्सेज के बारे में कोई तसल्लीवश जवाब नहीं दे
पाए। उनके मुताबिक फ़ातिमा पर कोई प्राथमिक संसाधन उपलब्ध नही है। मगर
फुले-शाहू-अम्बेडकर विचारधारा के कार्यकर्ता, प्रगतिशील संगठन को
ध्यान में रखते हुए तथा नजरअंदाज होते मुस्लिम पात्रों को प्रकाश में लाने हेतू
उन्होंने इसे लिखा।
लेखक ने हमें बताया, “इतिहास को ध्यान में रखते हुए मैंने इसमें काल्पनिकता भरी हैं, जिससे फ़ातिमा शेख का पात्र खड़ा हो सके।”12 इसे
महाराष्ट्र के पूर्व आई.जी. (पुलिस महानिरीक्षक) एस.एम. मुश्रीफ ने आमुख लिखा है।
मुश्रीफ बहुचर्चित ’हू किल्ड करकरे?’ किताब
के लेखक भी हैं। वह फुले-शाहू-अम्बेडकर आंदोलन के
वरीष्ठ कार्यकर्ता हैं।
इस प्रस्तावना से फ़ातिमा पर
प्रचारित चार वाक्यों के अलावा और भी जानकारी मिलती हैं। लिखते हैं, “फ़ातिमा शेख और उस्मान शेख मूल रूप से नासिक जिले के मालेगांव के रहने
वाले हैं। 1857 के विद्रोह के बाद, उत्तर प्रदेश में जुलाहा (बुनकर) समुदाय के कई परिवार महाराष्ट्र के
मालेगांव, धुले, भिवंडी, मुंबई में आकर बस गए थे।
फ़ातिमा और उस्मान शेख इसी परिवार से थे। जब दोनों छोटे थे, तब उनके माता-पिता परलोक सिधार गये और दोनो अनाथ हो गए।
उसी दौर में मालेगांव में भयानक
अकाल पड़ा। बुनकर समुदाय द्वारा बनाए गए कपड़ो का कोई खरीददार नहीं था। इसलिए कई
बुनकर परिवार मालेगांव छोड़कर पुणे आ गये। उनके साथ फ़ातिमा और उस्मान भी थे।
उन्हें पुणे के गंज पेठ स्थित गफ्फार बेग नाम के एक सज्जन ने आश्रय दिया था।
उस्मान की उम्र अब स्कूल जाने लायक हो चुकी थी। तो बेग साहब ने उसे एक स्कूल में
डाल दिया। जोतीराव फुले भी उसी स्कूल में पढ़ रहे थे। वह उस्मान के सहपाठी थे और
बाद में वे दोस्त बन गए।”13
बचे साड़े तीन पन्नों में
मुश्रीफ ने सत्यशोधक आंदोलन, जोतीराव, सावित्रीबाई, ब्राह्मणवाद
तथा उस दौर के दक्षिणपंथी और सनातनी ब्राह्मणवाद पर टिप्पणी करते है।
इस आमुख के बारे में अनौपचारिक
चर्चा में पुछने पर मुश्रीफ ने हमें बताया, “मेरे निजी परिचित व्यक्ति के संपर्क से लेखक मुझ तक आए।
उन्होंने किताब हाथ में देते हुए कहा, आप इसकी प्रस्तावना लिखे। आपके लिखे आमुख से किताब का महत्व बढ़
जाएगा। मैंने इस किताब में जो लिखा हैं, आप उसी समरी को लिख कर दे तो भी बेहतर! इसके बाद मैंने आमुख में वैसा ही लिखा। जिसका मेरी नजर में कोई
अकादमिक वैल्यू नहीं हैं। बस नॉवेलिस्ट के कहने पर मैंने लिखा।”14
फुले साहित्य पर महारत रखने वाले
सूरज येंगडे जो इन दिनों हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शोधकार्य कर रहे हैं। वे दलित
स्कॉलर और पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में भी जाने जाते हैं। 2017 में ट्विटर पर इस तरह के
कहानियों पर उन्होंने लिखा था, “प्रोफेसर हरी नरके 30 साल के रिसर्च और मेरे अपने
शोध में हम फातिमा शेख के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं पा सके, जो फुले की शिक्षिका और ‘सह-कर्मी’ थी। सार्वजनिक अपील है की, कृपया विश्वसनीय अभिलेखीय/प्राथमिक स्रोत प्रदान करें सेकेंडरी नही।”15
जब कल्पना संदर्भ बनती है
मुश्रीफ के मुताबिक ऊपर उनकी
लिखे आमुख का अकादमिक मूल्य शून्य हैं। मतलब काकडे ने काल्पनिकता को आधार बनाया
हैं। पर इन दोनो संदर्भ के आधार पर एक और किताब लिखी गई हैं। जो पिछले साल भर से
व्हॉट्सएप पर व्हायरल हो रही हैं। इसके लेखक हैं सय्यद नासिर अहमद हैं। जो मूलत: आंध्र
प्रदेश के गुंटूर जिले के निवासी हैं।
‘दि फर्स्ट मुस्लिम विमेन टीचर ऑफ
मॉडर्न इंडिया : फ़ातिमा शेख’ शीर्षक की यह किताब 74 पन्नों (मूल लेख 30 पेज) की हैं। मूल तेलुगु का यह अंग्रेजी अनुवाद हैं। आमुख
में वह लिखते हैं, “(सटीक जानकारी न मिलने की सूरत
में) मैंने उस निराशाजनक परिदृश्य में भी पीछे न हटने का फैसला किया और दृढ़
निश्चय के साथ आगे बढ़ा। मैंने अपना मन बना लिया था की, जो भी जानकारी हासिल हुई, उसके साथ एक किताब निकाले।”16
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नासीर अहमद की किताब का कव्हर |
सितम्बर, 2019 को ‘दि प्रिंट’ में
दिलीप मंडल ने एक लेख लिखा था। जिसका शीर्षक “सावित्री बाई फुले के
साथ मिलकर महिलाओं का पहला स्कूल खोलने वाली फ़ातिमा शेख।” इस आलेख में भी घुमा फिरा कर
उन्हीं चार वाक्यों को रटा गया है, जो प्रचारित है। लेखक ने
हेडलाइन में फ़ातिमा का नाम लेकर पाठकों को ठगा है।18 इसी तरह कुछ मराठी-हिंदी
वेब पोर्टल पर फ़ातिमा को लेकर कई आर्टिकल रचे हैं, जिसमें कोई तथ्य या प्रमाण नजर
नहीं आते।
ठोस आधार पर मिली जानकारी हमें बताती
हैं की, 9 जनवरी 2022 को गूगल द्वारा जो डूडल बनाया
गया, उसके लिए नासीर अहमद की किताब का संदर्भ लिया गया हैं। इस किताबचे में फातिमा
के पैदाईश और मौत की तारीखें दी गई हैं। उसके लिए लगाया तर्क अजीब हैं। लिखते हैं,
“इस मौखिक जानकारी के
आधार पर पुणे ही नहीं बल्कि पूरे महाराष्ट्र के लोग मानते हैं कि फातिमा शेख की पैदाईश
21 सितंबर, 1832 को हुई थी और उनकी मौत 9 जनवरी, 1900 को हुई थी। यह भी कहा जाता
है कि उनका जन्म 9 जनवरी, 1831 को हुआ था। कई स्वयंसेवी संगठन और लोग उनकी जयंती तथा
पुण्यतिथि को उन तारीखों पर मनाते हैं जो उन्हें सही लगती हैं। ...तेलुगु
राज्यों में 9 जनवरी, 1831 को उनकी जन्मतिथि माना जाता है। यह ध्यान देने बात है
कि इन तिथियों का कोई प्रामाणिक प्रमाण न तो फाइलों के रूप में है और न ही किताबों के रूप में।”19
गूगल ने
इसे अप्रामाणिक कथन को आदार बनाकर एक नया इतिहास पेश किया हैं। गूगल की दूसरी जानकारी
को स्त्रोत भी यहीं किताब लगती हैं। इस तरह कहीं-सुनी बाते इतिहास बन गई हैं।
चर्चा बालभारती की
इस चर्चा में ‘बालभारती’ का
जिक्र करना लाजमी हो जाता हैं। क्योंकि हर जगह इसी संदर्भ को आगे किया जाता हैं।
बालभारती महाराष्ट्र का स्कूली शिक्षा पाठ्यक्रम मंडल। जिसने दूसरी कक्षा के उर्दू
किताब में फ़ातिमा का पाठ लिया
हैं। जो सबसे पहले 2013 में शामिल किया गया। पेज
नंबर 59-61 पर यह पाठ आता हैं।
तीन पन्नों के इस पाठ में लिखा
हैं, “वालिद के नाराज होने की वजह से जोतिबा को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा।
उनके एक दोस्त उस्मान शेख पूना के गंज पेठ में रहते थे। उन्होंने जोतिबा को रहने
के लिए अपना घर दिया। यहीं जोतिबा ने अपना पहला स्कूल शुरू किया।
उस्मान शेख भी लड़कियों की तालीम
की अहमियत को समझते थे। उनकी एक बहन फ़ातिमा थी। जिससे वह बहुत चाहते थे। उस्मान
शेख ने अपनी बहन के दिल में तालीम का शौक पैदा किया। सावित्री बाई के साथ वह भी
लिखना पढ़ना सीखने लगी।
बाद में उन्होंने मुदर्रिसी की
सनद भी हासिल की। महात्मा फुले ने लड़कियों के लिए कई स्कूल कायम किए। सावित्री
बाई और फ़ातिमा ने वहां पढ़ाना शुरू किया। वह जब भी रास्ते से गुजरती, तो लोग उनके उनकी हंसी उड़ाते और उन्हें पत्थर मारते।
दोनों इस ज्यादती को बर्दाश्त
करती रही, लेकिन उन्होंने अपना काम
बंद नहीं किया। फ़ातिमा शेख के जमाने में लड़कियों की तालीम में बेशुमार रुकावटें
थी। ऐसे जमाने में उन्होंने खुद तालीम हासिल की। दूसरों को लिखना पढ़ना सिखाया।
वह तालीम देने वाली पहली मुस्लिम
खातून थी जिनके पास मुदर्रिसी की सनद मौजूद थी। फ़ातिमा शेख ने लड़कियों की तालीम
के लिए जो खिदमत अंजाम दी, उसे भुलाया नहीं जा
सकता। घर-घर जाना लोगों को तालीम की जरूरत समझाना। लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए
उनके मां-बाप की खुशामद करना, फ़ातिमा शेख की आदत बन
गई थी।
आखिर उनकी मेहनत ने अपना असर
दिखाया। लोगों के हालात में तब्दीली आई। वह लड़कियों को स्कूल भेजने लगे। लड़कियों
में भी तालीम का शौक पैदा हुआ। स्कूल में उनकी तादाद बढ़ती गई। मुस्लिम लड़कियां
भी कुछ खुशी-खुशी स्कूल जाने लगी।”20
यह पाठ स्कूली बच्चों को ध्यान में रखते हुए लिखा गया हैं। जैसा की काकडे और नासिर अहमद बता चुके हैं, सावित्री बाई के जिंदगी का दूसरा रूप फ़ातिमा हैं। बस इसी को आधार बनाए फ़ातिमा पर कहानियां बनाई गई हैं। मगर यह भावनिकता और काल्पनिकता धीरे-धीरे और भी रंगीन होते गई हैं और आज का इतिहास बन गई।
कहानीयों से क्या हासील?
ऊपर दिए गए तमाम विवरणों से यह
साबित होता हैं की, फ़ातिमा नाम के अलावा इतिहास के संसाधनों में और प्रमाण नहीं
मिलते। फिर भी महाराष्ट्र में फातिमा के नाम पर कहानियां बन रही हैं। जोतीराव और
सावित्रीबाई को सामने रखकर जब यूंही मन की कहानियां गढ़ी गई और लोगों ने उसे ही
इतिहास मानना शुरू कर दिया हैं। यह तो इतिहास के साथ नाइंसाफी हैं।
गूगल के हरकत के बाद फातिमा के
अध्याय में एक कहानी गढ़ी गई हैं, एक व्यक्तिचरित्र बनाया गया। जो आने वाले कल में
इतिहास बनकर हमारे सामने आता रहेगा। इससे भावनिकता के आधार से दक्षिणपंथी ताकतों को
और बल मिल सकता हैं। उसके हो सकता हैं की, बाद गफ्फार मुन्शी बेग, उस्मान शेख
इत्यादी किरदार पर भी सवाल उठ सकते हैं। यानी यह दोनो पात्र जैसे है, वैसे ही
फातिमा को रखने में हर्ज क्या था? महज एक नाम से फातिमा का पूरा पात्र गढ़ा गया हैं,
उनकी जन्म और मृत्यु की तारीखे भी घोषित की गई। यह क्या हुआ हैं?
इस कहानी ने फातिमा के पात्र, सावित्रीबाई
के खत पर, उनके कार्य पर एक संदेह पैदा हो गया हैं। यों से नये मसले खड़े हो सकते
हैं। इन कहानीयों का धीर धीरे विस्तार होते जा रहा हैं।
सवालों से डर क्यो?
फातिमा का पुरा किरदार इतिहास
में नजर नही आता, तो उनपर कहानियां बनाने की जरुरत न थी। अब कहानी बनने के बाद उसपर
उठते तर्कशील सवालों से प्रगतिशील संगठन परेशान होता दिखाई दे रहा हैं। जवाब मे लुला
समर्थन दिखाई देता हैं। सवाल करने वालों को भला-बुरा कहा जाता हैं। संघ-आरएसएस का एजंट
बताया जाता हैं। फुले विरोधी कहकर उनके महत्व को कम किया जाता हैं।
इसलिए यह कहना पड़ता हैं की, आज
फातिमा शेख इतिहास नहीं बल्कि अस्मिता का पात्र बना हैं। भारत में पहचान कि राजनीतिक
जंग काफी पुरानी हैं। समुचा सत्यशोधक आंदोलन इसी बिसात पर खड़ा हैं। यही वजह हैं की
संबंधित समुदाय, प्रगतीशील आंदोलन तथा सुधारवादी संघठन-संस्थाएं सवालों से आहत हैं।
यहीं वजह हैं कि आज महाराष्ट्र
में प्रगतिशील धड़े के कई जाने-माने नाम फातिमा पर बोलने से कतराते हैं। हमने कई
विद्वानों से बात की, वह निजी बैठकों में तो सवाल करते हैं, पर सार्वजनिक रूप
से बोलना टालते हैं।
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आम्ही पाहिलेले फुले किताब का कव्हर |
पुणे के एक मुस्लिम समाजसेवी नाम
न छापने के शर्त पर बताते हैं, “बीते चार-पाँच साल से हम हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद
के लिए इस मंच का इस्तेमाल कर रहे हैं। फ़ातिमा का नाम लेने पर कई नॉन मुस्लिम लोग
हमसे जुडते हैं। जंग ए आज़ादी तथा देश के विकास में अहम भूमिका मे रहे मुस्लिम
महामानवों पर बात करते हैं।”
नासिर अहमद भी दलित-मुस्लिम
यूनिटी के लिए कम जानकारी होने के बावजूद किताब लिखने की बात स्वीकार करते हैं।
कहते हैं, “हमारे परिसर में दलित-मुस्लिम एकता के लिए फ़ातिमा एक अच्छा मंच साबित
हो रही हैं। फ़ातिमा से समाज में सद्भाव की भावना पनप रही हैं। आगे चलकर यह एक
अच्छी मिसाल साबित हो सकती हैं। इसलिए जो भी जानकारी फिर वह सेकंडरी ही क्यो न हो
लिखना तो जरूरी हैं!”21
सोच सहीं हैं, मगर इसके कई नुकसान
भी हो सकते हैं। यह ना हो, इसलिए 9 जनवरी
को कई विद्वानों ने गूगल को सवाल पुछे थे। हरी नरके महाराष्ट्र में ‘फुले
साहित्य’ पर
महारत रखने वाले एक बड़ी शख्सियत हैं। उन्होंने भी फेसबुक पर इस तरह के सवाल गूगल
से किये।
लिखते हैं, “फ़ातिमा शेख को उनके जन्मदिन पर अभिवादन करते हुए डूडल और उसके बाद
सोशल मीडिया पर बधाई की बौछार हो रही है। खुशी होती है। इस जन्म तिथि की खोज किसने
की? कब की? किस दस्तावेज के आधार पर
यह जिक्र मिला हैं, मैं यह जानने का इच्छुक
हूं। क्या कोई मुझे बता सकता है? एक दिल से गुजारीश हैं।”
जाहिर हैं, उनके
सवालों पर चर्चा करने के बजाए प्रगतीशील धड़े के साहित्यकार, भाष्यकार
तथा समाजसेवी संगठनों के सदस्यों के बिच शाब्दिक कहासुनी हुई। जिसके बाद दूसरे दिन
नरके ने फिर से एक टिप्पणी कर लिखा, “तीस साल से मैं गफ्फार
मुन्शी बेग, उस्मान और फ़ातिमा शेख
पर ‘मिळून साऱ्याजणी’ (एक मराठी पत्रिका) से लेकर कई किताबों में, लिख-बोल रहा हूँ। सीरियल में दिखाया हूँ। वास्तविक सबसे पहले इस
जानकारी को प्रकाश में लाने वाला और उसे निरंतरता से चर्चा में रखने वाला मैं ही
हूँ, फिर भी मुझे विरोधी बताने वाले धन्य हैं।”22
कलम जिसकी इतिहास उसका
पीछे दिये गये विवरण से पता चलता
हैं की, फुले के दौर के किताबों मे फातिमा को लेकर चर्चा नही हैं। ऐसे में उस समय
के इतिहासकारों ने भी फातिमा के प्रमाण पर ध्यान नही दिया होगा। कहते हैं, इतिहास
लिखने वालों का होता हैं। जिसकी कलम उसका इतिहास! जो कलम चलाना नहीं जानता, उसका
इतिहास नदारद होता हैं। उस समय साक्षरता के प्रमाण और लिखने और प्रकाशित करने के
संसाधन को ध्यान में रखते हुए इस इतिहास को समझना पडेगा।
समाजशास्त्र के अध्येता प्रो.
खालिद अन्सारी इसपर कहते हैं, “फातिमा शेख पर हालिया
चर्चा उनके अस्तित्व या उनकी जन्म तिथि की सच्चाई के बारे में नहीं है। उस हिसाब
से, सभी सबाल्टर्न इतिहास शायद विफल हो जाएंगे।”
प्रो. अन्सारी बेंगलुरू स्थित अज़ीम
प्रेमजी यूनिवर्सिटी में असोसिएट प्रोफेसर हैं, वे उत्तर भारत में चल
रहे ‘पसमांदा
आंदोलन’ थिंक टँक भी हैं। आम
लोगों के सामाजिक इतिहास पर वे कहते हैं, “हिस्ट्री राइटिंग के
अलग-अलग मीडियम होते हैं, हम उस पर सवाल नहीं कर
रहे हैं। हम उनके योगदान को भी नकार नहीं रहे हैं। बहस यह है कि जब कोई पॉपुलर
मेमरीज का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है, कहीं पर कोई ठोस कोई चीज नहीं मिलती है, फिर नई-नई कहानियां कहां से आती हैं?”
प्रो. अन्सारी के
मुताबिक, “हिस्ट्री हमेशा आज के जरूरतों के हिसाब से, वर्तमान के हिसाब से लिखी जाती है। तो समझने का मामला है कि फ़ातिमा
शेख के किरदार को, उनके व्यक्तिरेखा को, उनके योगदान को क्यों रिकंस्ट्रक्ट किया जा रहा है। 2010 के बाद ऐसी
क्या जरूरत थी जिसकी वजह से उनको रिकंस्ट्रक्ट किया जा रहा है।”23
प्रो. अन्सारी दलित-मुस्लिम
यूनिटी के फ़ातिमा शेख के पात्र को संवारने में कई बुराई नहीं मानते। मगर महज एक नाम
से पूरी काल्पनिक कहानी गढ़ने से उन्हे परहेज हैं।
सारांश
जोतीराव
फुले का सारा कार्य और ब्राह्मणवादी व्यवस्था, धर्माधारित जातिभेद के खिलाफ था। उन्होंने
धर्म के आड़ मे चलते वर्ग विशेष के कारोबार पर हमला बोला था। वास्तविक, फुले इस
व्यवस्था के पीडित थे, यहीं वजह हैं के उन्होंने इस धर्म के नाम पर फुलते-फुलते झूठ,
दगाबाजी, जालसाजी, पोंगापंथ के खिलाफ आंदोलन खड़े किये।
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बालभारती की उर्दू के मजमून के लिए इस्तेमाल किया गया फोटो |
फुले के पहले जीवनीकार पं.सी.
पाटील के मुताबिक जोतीराव फुले को नकारने या उनके लिखे साहित्य को छिपाने से उनके
खिलाफ गलत बयानबाजी जोर-शोर से की जा सकती हैं। पाटील के मुताबिक उनके लिखने से
पहले फुले के दो जीवनीयां प्रकाशित थी। जिसमें पहली फुले के लड़के यशवंतराव फुले ने
1890 में लिखी थी। फिर अ.ए. गवंडी ने भी फुले का चरित्र लिखा था। मगर बहुत दिनों
तक वह पब्लिक डोमेन में गायब था। जिसकी वजह से फुले को इनकार करने वाले, उन्हे
धर्मद्रोही कहना आसान हो गया था।24
यहीं फातिमा के साथ भी हो रहा हैं।
वैसे दक्षिणपंथी समुदाय का चरित्र मुस्लिमविरोधी रहा हैं। ऐसे में सत्यशोधक आंदोलन
से जुड़ा एक मुस्लिम नाम उन्हें कैसे बरादाश्त हो सकता हैं? फातिमा के विमर्श के बाद दक्षिणपंथी समुदाय का बड़ा सा गूट उन्हें
नकारने पर तुला हैं। जो ताकते हैं, फुले को नकार रही थी, उनके सोच का विरोध कर रही
थी, उनके खिलाफ गलत बयानबाजी कर रही थी। आज वहीं ताकते फातिमा पर सवाल उठा रही हैं।
और यह सवाल उठाने का मौका इतिहास को भावनिकता के साथ देखने वाले प्रगतीशील आंदोलन ने
उन्हे दिया हैं।
फातिमा शेख को लेकर मौजूदा चर्चा
भी इसी तरह की हैं। फतिमा को सत्यशोधक आंदोलन का हिस्सा बनाना दक्षिणपंथी गूटो का
रास नही आ रहा हैं। यहीं वजह है की, उन्हे नकारना उनके लिए आसान बना हैं। ऐसे
सुरत में दक्षिणपंथी धड़ों की ओर से इसका गलत इस्तेमाल होना लाज़मी हैं। हिंदू राष्ट्रवादीयों
ने फातिमा के साथ सत्यशोधक आंदोलन के कई सुधारकों पर सवालियां निशान लगाए हैं। आगे
भी कई सुधारकों को नकारने की परंपरा चल निकलेगी।
दूसरी
ओर जहां तक फुले के साथ खड़े ब्राह्मण समुदाय के लोगो कि बात आती हैं, तो फुले
विरोधी और दक्षिणपंथी गूट उनको उभारता हैं, उनपर व्याख्यान देते हैं, लेख लिखे
जाते हैं, किताबे छपती हैं। उनके बारे में झूठ और मनगढ़त कहानियां लाने में जरा भी
देरी नहीं होती। फुले का ब्राह्मणों का हितैशी बताया जाता हैं। इन दक्षिणपंथी हिंदू
राष्ट्रवादीयों के फातिमा विरोध को देखकर लगता हैं, फातिमा के साथ अगर कोई प्रचलित
ब्राह्मण नाम जुडता तो झट से फातिमा किरदार को अस्तित्व मिल मिल पाता। नई कहानियां
पेश की जाती। सावरकर का उदाहरण हमारे सामने हैं। जिस घटना का हिस्सा वह नहीं थे, वहां
भी सावरकर को जोड़ दिया गया हैं।
ऐसे समय में फातिमा शेख को लेकर
अधिकाधिक शोध करने की जरुरत हैं, जिससे उनका असल चरित्र सामने आयेगा, उनका
सत्यशोधक आंदोलन का योगदान दुनिया को समझेगा और मनगढ़त कहानियां विमर्श से हट
जाएंगी! साथ ही ‘नकारने’ या ‘कबुलने’ के सामाजिक व सांस्कृतिक राजनीति को भी हमें समझने की
जरुरत हैं। जानकारी न मिलने की सुरत में फातिमा के पात्र को जैसे है वैसे रहने देने
की जरुरत हैं।
(लेखक पुणे स्थित सामाजिक एवं सांस्कृतिक
विषय के अध्येता हैं।)
संदर्भ सूची :
1) गुगल
लिंक, 9 जनवरी, 2022, https://doodles.google/doodle/fatima-sheikhs-191st-birthday/
2) डॉ. मा.
गो माळी (1988), सावित्रीबाई फुले समग्र, महाराष्ट्र राज्य
साहित्य संस्कृती मंडळ, मुंबई
3) वहीं
4) रॉसलिंड
ओ’हैनलन, इंडियन एक्सप्रेस, 16 जनवरी 2022,
5) डॉ.
मा.गो. माळी, (2000) महात्मा फुले गौरव ग्रंथ (सं-हरी नरके) पेज-429, महात्मा ज्योतिराव फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, मुंबई
6) मुरलीधर
जगताप, (1993) युगपुरुष महात्मा फुले, पेज,
20 और 41, महात्मा ज्योतिराव फुले चरित्र
साधने प्रकाशन समिती, मुंबई
7) पं.सी
पाटील, (1984) महात्मा ज्योतिराव फुले यांचा अल्प परिचय,
पेज, 2-3, महाराष्ट्र
राज्य साहित्य संस्कृती मंडळ, मुंबई
8) मुरलीधर
जगताप, (1993) युगपुरुष महात्मा फुले, पेज,
13, महात्मा ज्योतिराव फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, मुंबई
9) सीताराम
रायकर, (साल नही) कृष्णराव भालेकर समग्र वाङ्मय, श्रीविद्या प्रकाशन, पुणे
10) कलीम
अजीम, फातिमा शेख किस का फिक्शन हैं, https://kalimajeem.blogspot.com/2020/09/blog-post_10.html
11) दिनकर
विष्णू काकडे (2019) फ़ातिमा शेख : भारतातील पहिली मुस्लिम
शिक्षिका, संघमित्रा पब्लिकेशन, मीरज
12) दिनकर
विष्णू काकडे से फोन द्वारा व्यक्तिगत बातचित की गई ती। जिसमें उन्होने कहा था की,
मैं बामसेफ का कार्यकर्ता हू। पीछले 30 सालों से दलित आंदोलन
से जुडा हू। दलित-मुस्लिम एकता के लिए मैंने यह यह किताब लिखने की सोंची।
13) एस.एम.
मुश्रीफ (2020) प्रस्तावना,
फ़ातिमा शेख : भारतातील पहिली मुस्लिम शिक्षिका, संघमित्रा पब्लिकेशन, मीरज
14) एमएम
मुश्रीफ मुझे अच्छे से जानते हैं। पुणे स्थित उनके घर आना-जाना रहता हैं। इसी तरह
एक औपचारिक मुलाकात मैं मैंने मुश्रीफ यह इस प्रस्तावना को लेकर बात की थी। जिसपर
उन्होंने कुछ इस तरह जवाब दिया था।
15) सूरज येंगडे
का 18 जनवरी 2020 का ट्वीट : https://x.com/surajyengde/status/1218405483582754816?t=Vydp-vS6l5dKLZqEh1Tbow&s=19
16) नासिर
अहमद, (2021) दि
फर्स्ट मुस्लिम विमेन टीचर ऑफ मॉडर्न इंडिया : फ़ातिमा शेख, पेज नं -6, आज़ाद हाऊस ऑफ पब्लिकेशन, उंडावल्ली, जिला गुंटूर
17) सय्यद
नासिर अहमद ने मुझे 2019 में फातिमा शेख के जानकारी को लेकर
फोन लगाया था। उस समय मेरी उनसे लंबी बातचित हुई थी। हमने उन्हे अधुरी जानकारी पर
पुस्तक लिखने को मना किया था। मगर उन्होंने कहा की, सब गैरमुस्लिम बिरादरी और
प्रगतीशील संघठन के लोग फातिमा शेख का इस्तेमाल कर रहे हैं। हम तो मुस्लिम हैं,
हमारा तो फातिमा पर ज्यादा हक हैं। इसलिए हमे उनपर लिखना चाहिए। यह सुधारवादी
आंदोलन का बड़ा संसाधन हो सकता हैं।
18) दिलीप
मंडल, 9 जनवरी 2019, दि प्रिंट
अंग्रेजी वेबसाइट पर लिखा लेख। यहीं लेख 5 सिंतबर 2019 को हिंदी में ‘सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर
महिलाओं का पहला स्कूल खोलने वाली फातिमा शेख’ शीर्षक से छपा
था।
19) नासिर
अहमद, (2021) दि
फर्स्ट मुस्लिम विमेन टीचर ऑफ मॉडर्न इंडिया : फ़ातिमा शेख, पेज नं -51, आज़ाद हाऊस ऑफ पब्लिकेशन, उंडावल्ली, जिला गुंटूर
20) बालभारती
(2013) उर्दू कक्षा दूसरी की किताब, पेज नंबर 59-61, महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती मंडल, पुणे
21) नासिर
अहमद से नीजी बातचित
22) हरी
नरके (2022) फेसबुक पोस्ट, 10 जनवरी 2022
: https://www.facebook.com/share/p/184sh1jrRd/
23) खालिद
अनीस अन्सारी, (2022) फेसबुक पोस्ट, 11
जनवरी 2022 : https://www.facebook.com/share/p/1BMcx7YSKh/
24) पं.सी.
पाटील (2018) आम्ही पाहिलेले फुले, पेज, 105, महात्मा ज्योतिराव फुले चरित्र साधने प्रकाशन समिती, मुंबई
कलीम अजीम, पुणे
मेल-kalimazim2@gmail.com

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अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com