[‘सामाजिक समतेचा प्रवाह’ इस
महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के विमोचन कार्यक्रम में पधारे महामहीम अतिथी महाराष्ट्र के पूर्व
मुख्यमंत्री एवं पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री श्री. सुशीलकुमार शिंदे तथा हमारे प्रमुख
मेहमान मोहतरमा आरफा खानम साहिबा और हमारे मार्गदर्शक सुलतान शेख साहब, मैं गाजियोद्दीन
रिसर्च सेंटर और दि युनिक फाउंडेशन की और से आपका इस्तेखबाल करता हूँ।
इस ग्रंथ का संपादक होने के नाते मैं किताब के बारे में चंद बाते आपके सामने
रखना चाहता हूँ। सही मायने में इस ग्रंथ की परिकल्पना हमारे गुरुवर्य मरहूम प्रो। फकरुद्दीन
बेन्नूर नें सालभर पहले रची थी। वरीष्ठ पत्रकार सबा नक्वी की बहुचर्चीत किताब ‘इन गुड फेथ’ तथा योगिंदर सिकंद की ‘सेक्रेड
स्पेसेस’ जैसी एक-दो किताबे सामने रखकर श्री। बेन्नूर
सर ने एकबार हमसे कहा था, ‘इस तरह का एक प्रोजेक्ट मैं मराठी भाषा में
बनाना चाह रहा हूँ।’
मैंने सबा नक्वी को पढा था, इसलिए सर से कहाँ सर इसकी प्रक्रिया हम जल्दी
शुरू करेंगे। आज बेन्नूर सर का वह प्रोजेक्ट बनकर तयार हैं। पर अफसोस बेन्नूर सर आज
हमारे बीच नही हैं। हमारे लिए यह बहुत ही जज्बाती पल हैं। आज मैं बहुत ही भावूक हो
रहा हूँ। सर, हमने आपका अधुरा सपना पुरा कर दिखाया हैं।
इस ग्रंथ का विमोचन पुणे में हो रहा हैं। मेरे लिए दुसरा भावूक क्षण हैं।
पुणे विश्वविद्यालय में जनसंचार की पढाई करते समय इस ‘पत्रकार भवन’ के इसी डायस वालों सें हमने कई मान्यवरो को
सवालो के दरारो में धर दबोचा हैं। मेरे कई मित्र आज यहाँ मौजूद हैं, वे इस बात समझ
सकते हैं। नागपूर और मुंबई से भी मित्रगण यहाँ आये हैं। उनका मैं शुक्रिया अदा करता
हूँ।
महाराष्ट्र के अती दुर्गम तथा पिछडे इलाको से यहाँ पुणे में छात्र-छात्राए
पढने के लिए आते हैं। पर यहाँ आकर उन्हे नफरतो भरी नजरो का सामना करना पडता हैं। क्योंकि
मराठी भाषिक होते हुए भी उनकी भाषा और रहन-सहन अलग-अलग हैं। वह बाकी सो कॉल्ड शहरी
लोगों के तुलना में दबे-दबे और बुझे-बुझे रहते हैं। यहा आसपास के लोगो का उनके प्रति
व्यवहार संदेहनीय औऱ द्वेषपूर्ण हैं। यह द्वेश धर्म के आधार पर नही बल्की प्रदेश औऱ
बोली के आधार पर हैं। इस भाषाई औऱ प्रादेशिक दुर्व्यवहार और भेदभाव को हम क्या नाम
देंगे।
कहने को तो हमारे यहाँ मराठी अस्मिता और प्रादेशिकता हैं, हम लंबे-लंबे निबंधो
में और परिचर्चा में हम कहते हैं, हमारे यहाँ भेदभाव नही होता। बडे-बडे शब्दो में हम
भारत के विविधता की तारीफ करते हैं। पर जब बात अपने पर आती हैं तो हम उस कथित ‘भारतीय़ता’ को किसी पर ढकेल देते हैं। यह भेदभाव संविधान के मौलिक अधिकारो का हनन हैं।
हमारे यहाँ इस तरह का भेदभाव जाति, वंश और धर्म के अलावा प्रादेशिकता पर भी तय होता
हैं। पर इसकी बात कोई नही करता।
माना जाता हैं की भारत एक प्राचीन सभ्यता वाला देश हैं। ऐसा भी कहा जाता हैं
की, विश्व में हमारी बहुसांस्कृतिकता और विविधता के उहादरण दिये जाते थे। किताबो के
पन्ने पटलकर देखे तो हमारा देश संसदीय लोकतंत्र में अपनी गहन
आस्था और प्रतिबद्धता के लिए विख्यात हैं। भारत में संस्कृति और एकता का अनूठा संगम पाया जाता हैं। सही मायनें में यह हमारे बुजुर्ग तथा सुफी, संतो
और मध्यकाल के तत्त्वचिंतको के अच्छे कर्मो का फल हैं। उन्होने हमे जिंदगी जीने का
‘फलसफा’ दिया हैं। और उस फलसफे को आधुनिक भारत के निर्माताओं ने अपनी बौद्धिक सूझबूझ एवं प्रयासों
से आगे
लेकर जाने का कार्य किया हैं।
धर्म, जाति, वंश, बोली, रहन-सहन तथा रंग रूप
को दरकिनार कर हमने भारत की प्रभुतता को बरकरार रखा हैं। प्राचीनकाल से चली आ रही इस
संमिश्र परंपराओ तथा सभ्यता को मध्यकाल में सुफी औऱ संतो नें आगे ले जाने का काम किया
हैं। राजा-रजवाडो नें कथित खूनखराबे के साथ प्राचीन भारत की सभ्यता और सौहार्द को सहेजकर
रखने का कार्य किया हैं। भारत में कई दार्शिनक गुजरे हैं। उन्होने भी भारत के इस विविधता
को आधार बनाकर बहुसांस्कृतिक भारत की नीव रखी हैं।
हमारे इन बुजुर्गो के रहमो-करम के साये में हम
जी रहे हैं। यही वजह हैं कि, कई बार सामाजिक तानाबाने और दुविधाओ से गुजरकर भी भारत
अपनी बहुसांस्कृतिक खुबसुरती बरकरार रख पाया हैं। धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के
कारण समय-समय पर होने वाले संघर्षों के बावजूद भी हमने समाधान खोजने का प्रयास किया हैं।
पर बीते कुछ सालो सें इस खुबसुरत माहौल हम धर्म और अलग दिखने के आधार प्रताडित किया
जा रहा हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कई जाति-समुदाय के लोगो नें एकसाथ आकर ब्रिटिशो
के खिलाफ लढाईयाँ लढी हैं। इससे पहले भी कई संकटो के समय विभिन्न धर्म समुदाय के लोगो
नें भारत की अखंडता को बरकरार रखने का काम किया हैं। पर १८५७ के विद्रोह के बाद हालात
बदले गये।
तब तक का यह एकमात्र सशस्त्र आंदोलन था जहाँ
हिदू और मुसलमान एक साथ आकर ब्रिटिशो के खिलाफ लडे थे। इस समय दोनो समुदाय के सामने
गुलामी को तोडने की चुनौती थी। इस विद्रोह के बाद धर्मो के आधार पर फुट डालने की नीति
अपनाई गई। ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के आधार हजारो सालों से एकसाथ
रहते आये दो समाजो को आपस लडाया गया। इस लडाई के लिए इतिहास को आधार बनाया गया, जिसके
परिणामस्वरूप मध्यकाल के मुसलमानो के इतिहास को तोड-मरोडकर पेश किया गया। ब्रिटिशरो
नें कई पेशेवर लोगो को इस काम मे लगाया। जिन्होने भारत के मध्यकाल का इतिहास हिंदु-मुसलमानो
के संघर्षो के इतिहास के रूप में पेश किया गया। बीते कुछ दिन पहले ‘पदमावत’ नामक फिल्म को लेकर विवाद चल रहा था। करनी सेना
के गुंडो नें उसका विरोध शुरू किया था, असल में विरोध तो मुसलमानो ने करना चाहीए था।
क्योंकि मुसलमानो के इतिहास को वहाँ सिनेमॅटिक अभिव्यक्ती के नाम पर तोड-मरोडकर पेश
किया गया था। जो भी कोई इस फिल्म को देखेंगा तो उसका खून जरूर उबाल मारेंगा। क्योंकि
क्रूरता की हदे कई बार पार की गई हैं। पढालिखा मुसलमान देखेंगा तो वह आग-बबुला होंगा
क्योंकि इतिहास को गलत ढंग से पेश तिया गया, अगर मान लो कोई गैरमुस्लिम देखेंगा तो
क्रूरता देखकर उसका भी खून खौलेंगा।

देढ सौ साल बाद भी हमारा इतिहास औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त नही है पाया हैं। इस वजह सें हमारा लोकतंत्र कई बार
खतरे में आया हैं। संविधान में भारत को एक “संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक
गणराज्य बनाने का संकल्प किया गया है। जिसमें कहा गया है कि इसके लिए तथा उसके समस्त
नागरिकों सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,
धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर
की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता और
अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान
सभा में इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते
हैं”
संविधान में देश को संपूर्ण
प्रभुत्व संपन्न और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का जो संकल्प किया गया
उसके अनुसार देश के सभी धर्मों को अपनी धार्मिक आझादी को
बनाये रखने का अधिकार दिया गया है। पर बीते पाँच सालो से देश के अल्पसंख्यक समुदाय के अस्तित्व और सुरक्षा
को लेकर कई गंभीर प्रश्न खडे हुए हैं। धार्मिक स्वंतत्रता की बात करने वाले संविधान
की धज्जीया कई बार उडाई गई हैं। पिछले सेंकडो साल से धार्मिक उपासना करते आये अल्पसंख्यक
समुदाय आज दहशत के साये में जी रहा हैं। उसके उपासना के अधिकार को छिना जा रहा हैं।
हमारे संविधान में अल्पसंख्य समुदाय के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। जिसके तहत सरकार किसी को
भी धर्म के आधार पर बाँट नही सकती। धर्म के नाम पर किसी भी तरह की जुल्म, ज्यादती और मनमानी नही की जा सकती। सभी धर्मों
के लिए संविधान
समान अवसर प्रदान करता हैं। देश में हर इन्सान की संवैधानिक गारंटी सुनिश्चित की गयी है। इसके बावजूद संविधान में इस बात का ध्यान
रखा गया है कि समय-समय पर इसके लिए कई सकारात्मक कदम उठाये गये हैं। पर बीते कई सालो से
इस संवैधानिक अधिकारोका उल्लंघन किया जा रहा हैं. देश का सौहार्द
और सद्भाव का वातावरण बिगड़ानेका प्रयास किया जा रहा हैं।
बीजेपी
सरकार ने सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए कोई भी कानूनी, प्रशासनिक एवं अन्य
कदम नही
उठाये हैं। जिसके कारणवश देश का सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारा और राष्ट्रीय
एकता को
नजरअंदाज कर व्होटो की राजनिती की जा रही थी।
बीजेपी के ध्रुवीकरण के राजनिती ने लोगों आपसी रंजीश पाल
ली हैं। हजारो वर्षों से सदभाव से रहता आया समाज आज
अचानक एकदुसरे का दुश्मन बन गया हैं। आये दिन धर्म के नाम पर हम एकदुसरे को उकसा रहे
हैं। या निचा दिखा रहे हैं। संवैधानिक दायरे को देके तो सरकार किसी धर्म विशेष के
मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। पर बीते पाँच सालो से
हमने देखा हैं, कि किस तरह से सरकार इन
मामलो में हस्तक्षेप
कर रही हैं। धर्म के नाम पर समान अवसरो से वंचित रखा जा रहा हैं। धर्म के नाम पर अलग-थलग किया जा रहा हैं। धर्म के नाम पर ज्यादती, जुल्म और मनमानी की जा रही हैं।
बीते पाँच सालो में धर्म के नाम क्या कुछ नही
हुआ,
हमने क्या कुछ नही सहा यह हम सब जानते
हैं। इस ५ साल मंथन हुआ हैं। चर्चाए की गई है। इस तंग वातावरण को कम करने की कोशिशे की गई हैं। समय-समय लोगों ने रास्ते पर निकलकर कई सकारात्मक कदम उठाये
हैं। सांप्रदायिक सौहार्द, आपसी मेलमिलाप, एकता और सद्भाव के वातावरण को बिगड़ने से रोकने के लिए कई लोगो नें आगे बढकर
कोशिशे की हैं। हमारी ‘सामाजिक समतेचा प्रवाह’ इसी तरह की एक कोशिश हैं। इसी सद्भाव, भाईचारे और राष्ट्रीय
एकता को बढ़ावा देने के लिए हमने गाजियोद्दीन रिसर्च सेंटर की प्रतिष्ठापना की हैं। इस रिसर्च सेंटर के जरीए विगत दो सालो में हमने
छह-सात अच्छी किताबो का निर्मीण किया हैं। इसके अलावा प्रो. बेन्नूर सर के भी कई
महत्त्वपूर्ण किताबे हम आनेवाले कुछ दिनो में लेकर आयेंगे।
‘सामाजिक
समतेचा प्रवाह’ इस किताब के जरीए हमने गंगा-जमुनी मानदंडो को
एकठ्ठा करने की कोशीश की हैं। जिसमे भाषा, संस्कृति, सभ्यता, कला, स्थापत्त्य, सुफीझम, इस्लामीझम, सौहार्द, सद्भावना, राष्ट्रीयत्व, भारतीयत्व, मुस्लिमत्व आदी कई घटको को एकसाथ लाया हैं। इस किताब के जरीए हमने सांप्रदायिक सौहार्द को
बनाए रखने के लिए संवैधानिक, कानूनी, प्रशासनिक, आर्थिक एवं अन्य कदम उठाकर अपने प्रतिबद्धता की पुष्टि की
है। इस महत्तवपूर्ण ग्रंथ के माध्यम सें हमने
सद्भावना औऱ सौहार्द की प्राचीन परंपरा को सहजने का काम किया। जिससे देश में पनपे सामाजिक बिगाडपन को एक अलग
तरह का जवाब मिल जायेंगा। जो
शत्रुकरण की परंपरा अपनाई जा रही हं. उससे किसी हद तक निजात मिल जायेगी।
इस किताब के बारे में कहने के लिए तो बहुत कुछ
है। पर उस राज को खोलकर आपकी उत्सुकता को कम नही
करना चाहता। आप इस किताब को खरीदकर पढे। आज इसे हाँ बहुत ही कम किमत पर बिक्री के लिए
रखी गई हैं। आधे दामो में आपको यह किताब मिल जायेंगी। ३३० पन्ने के इस किताब की किमत ३०० रुपये हैं। पर आज इस किताब को आप महज आधे दाम में याने देढ
सौ रुपये में खरीद सकेंगे।
मैं शुक्रिया अदा करना चाहुंगा इन मेहमानो का..
जो हमारे इस विमोचन कार्यक्रम में उपस्थित रहकर हमे आनंदित किया हैं।]
शुक्रिया..
कलीम अजीम,
पुणे

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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com