(लेख सभार मीडिया विजिल)
ग्यारह साल पुराने हैदराबाद के मक्का मस्जिद धमाके में असीमानदं
उर्फ़ नबकुमार सरकार उर्फ रामदास का दूसरे आरोपियों के साथ बरी होना कथित हिंदू
आतंक के बाकी पुराने मामलों में लगातार बरी हो रहे आरोपियों से थोड़ा अलग मायने
रखता है। असीमानंद पर 16 अप्रेल को आए फैसले के बाद ज़रा भारतीय जनता पार्टी के
नेताओं के बयान देखिए। प्रमुखता से एक बात कही गई है कि यूपीए सरकार द्वारा गढ़ी
गई ”हिंदू आतंक”
की शब्दावली झूठी निकली है और इसलिए
कांग्रेस को माफी मांगनी चाहिए। इस प्रतिक्रिया में एक तात्कालिक तथ्य को भुला
दिया जा रहा है कि असीमानंद के बरी होते ही फैसला सुनाने वाले जज ने भी खुद को न्यायपालिका
से बरी कर लिया। जिस देश में जजों का मारा जाना आम बात हो चली हो, वहां अच्छी ख़बर ये है कि रवींद्र रेड्डी का केवल इस्तीफ़ा ही हुआ।
बहरहाल,
असीमानंद अब मुक्त हैं। फैसले के बाद से
मैं लगातार खोज रहा था कि राजेश्वर सिंह आजकल कहां हैं? राजेश्वर सिंह याद हैं? थोड़ा ज़ोर
डालें दिमाग पर,
कि इस नाम के शख्स का असीमानंद से क्या
लेना-देना?
किसी अपराध के मामले से जब कोई आरोपी मुक्त
होता है,
बरी होता है, तो पीछे जाकर यह देखना ज़रूरी हो जाता है कि उसके मामले में
किसने-किसने प्रतिकूल बयान दिए थे। चूंकि आरोपी के बरी होने के साथ ही सारे
प्रतिकूल बयान कठघरे में आ जाते हैं। या यों कहें कि अगर बयान देने वाला शख्स
आरोपी के ही विचार-कुल का हो, तो न्यायपालिका
का फैसला ही कठघरे में खड़ा हो जाता है। न्यायपालिका के फैसले पर सवाल उठाने की
हमारी कोई मंशा नहीं है,
लेकिन कमज़ोर स्मृति वालों के इस देश में
पलट कर एक बार देखना ज़रूरी है कि आज से कुछ साल पहले क्या बातें चल रही थीं।
याद करिए कि 2007 के अजमेर शरीफ बम धमाके के मामले में असीमानंद ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत क्या बयान दिया था, जिससे वे बाद
में पलट गए। अजमेर मामले में एक सुनील जोशी नाम का आदमी आरोपी था, जो बाद में मार दिया गया। अजमेर ब्लास्ट में एनआइए की अदालत से बरी
होने के पहले असीमानंद और भरत मोहन रतेश्वर उर्फ भरत भाई ने मजिस्ट्रेट के समक्ष
164 में जो बयान दर्ज करवाए थे, उनके मुताबिक
असीमानंद के कहने पर ही अप्रैल 2006 में उन्हीं
के सह-आरोपी भरत भाई और सुनील जोशी योगी आदित्यनाथ (आज यूपी के मुख्यमंत्री) से
मदद मांगने के लिए मिलने गए थे। यह मुलाकात सीधे नहीं हुई थी। उस वक्त आदित्यनाथ
सांसद हुआ करते थे गोरखपुर से। असीमानंद ने दोनों को पहले आगरा भेजा था राजेश्वर
सिंह से मिलने के लिए। राजेश्वर सिंह इन्हें योगी के पास ले गया था। राजेश्वर
आरएसएस संबद्ध संगठन धर्म जागरण समन्वय समिति का कार्यकर्ता
था।
असीमानंद और भरत भाई के मजिस्ट्रेट के समक्ष रिकार्ड किए बयान के
मुताबिक योगी ने उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी और अगले दिन आने को कहा
था। ज़ाहिर है,
मुलाकात चूंकि आरएसएस के कार्यकर्ता
राजेश्वर सिंह के माध्यम से हुई थी, तो योगी के मन
में एक हिचक भी रही होगी। गोरखनाथ मठ और संघ के बीच का ऐतिहासिक टकराव जो जानते
हैं, वे समझ सकते हैं कि इतनी आसानी से योगी संघ के आदमी को चारा नही
डालते। बहरहाल,
असीमानंद का बयान था कि सुनील जोशी के
मुताबिक न तो योगी से और न ही राजेश्वर सिंह से उसे कोई मदद मिली। बाद में इस
मामले में दिलचस्प मोड़ तब आया जब असीमानंद तो अपने बयान से पलट गए और उन्हें
बरी भी कर दिया गया,
लेकिन एनआइ ने उनके पुराने बयान पर ही
भरोसा करते हुए कह डाला कि इस मामले में योगी की जांच करने का कोई मतलब नहीं बनता
क्योंकि असीमानंद और भरत भाई के मुताबिक योगी ने उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं
दिया था। विडंबना यह थी कि ऐसा कहते वक्त एनआइए ने यह भी नहीं सोचा कि जिस सुनील
जोशी के योगी के पास जाने की बात की गई थी, वह मौत के बाद
भी मामले से बरी नहीं हुआ था।
ऐसा कैसे हो सकता है कि बयान से पलटने के बाद आरोपी तो बरी हो जाए, लेकिन मुकदमा चलाने वाली जांच एजेंसी पुराने बयान के आधार पर किसी
तीसरे को रियायत दे डाले?
बहरहाल,
अजमेर के बाद मक्का मस्जिद मामले में
असीमानंद की रिहाई होना तय मानकर चला जा रहा था। 2014 में आई नरेंद्र मोदी की सरकार के बाद एनआइ के पास लंबित पड़े कथित
हिंदू आतंक के 11 मामलों में रिहाई और बरी होने और ज़मानत दिए जाने के काम में जो तेजी
आई, न्याय का जैसा पैटर्न उभरा, उसमें
असीमानंद का बरी होना हैरान नहीं करता। हैरान यह बात करती है कि जिन-जिन गवाहों ने
2007 में हुए आतंक के मामलों में सीबीआइ और एनआइए को बहुत बाद में (2014-15) अपने बयान दिए थे, उनके बयानों
का मुकदमे की सुनवाई पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। इन्हीं में एक राजेश्वर सिंह नाम
का शख्स था जिसका जि़क्र 2014 में अचानक चला था जब आगरा में 200 मुसलमानों की
”घर वापसी”
यानी धर्मांतरण का एक विवादित आयोजन किया
गया था, जिसकी देखरेख राजेश्वर सिंह ने ही की थी। आप राजेश्वर सिंह को स्वामी
असीमानंद को मानद पुत्र या परम शिष्य मान सकते हैं। कहानी आगे सुनाएंगे।
यह बात दिसंबर 2014 में मीडिया की
निगाह से लगभग अनदेखी और अचर्चित रह गई थी कि आगरा में मुसलमानों का धर्मांतरण करवाने वाले राजेश्वर सिंह को एनआइए ने
मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में गवाह बना लिया था। राजेश्वर
सिंह ने मई 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट कांड के संबंध में पहले अपना बयान केंद्रीय
अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) को दिया और उसके बाद फरवरी 2007 में दिल्ली-लाहौर समझौता एक्सप्रेस विस्फोट कांड पर अपना बयान
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को दर्ज करवाया, जिसके मुताबिक
समझौता और मक्का मस्जिद के अलावा जोशी व असीमानंद के नेतृत्व वाला मॉड्यूल ही
मालेगांव (महाराष्ट्र),
अजमेर दरगाह और मोडासा (गुजरात) में हुए
धमाकों का भी जिम्मेदार था। बाद में जोशी की उसी के आदमियों ने मध्यप्रदेश के
देवास में दिसंबर 2007 में कथित रूप से हत्या कर दी जबकि असीमानंद को सीबीआइ ने नवंबर 2010 में गिरफ्तार कर लिया था। अपने बयान में सिंह ने यह भी बताया है कि
वह कर्नल श्रीकांत पुरोहित से मिला था जो 2008 के मालेगांव
धमाकों में आरोपी था।
चेहरे पर खिन्न भाव के साथ उसने 16 दिसंबर, 2014 को अलीगढ़
में इंडिया टुडे से कहा, ‘‘मैं मुक्त कर दिया गया हूं; जो पूछना हो
पूछिए।”
दरअसल, उत्तर प्रदेश
में आगरा की घटना ने जहां सियासी गलियारों में बवाल मचा दिया, वहीं संघ को एक कदम पीछे हटकर अलीगढ़ में 25 दिसंबर 2014
को प्रस्तावित ‘‘घर वापसी”
का कार्यक्रम टालना पड़ा था। यह बात अलग है
कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 25 दिसंबर को
सुशासन दिवस मनाने की घोषणा कर दी और इसे अटल बिहारी वाजपेयी को समर्पित कर दिया
जिनका जन्मदिन इसी दिन होता है। इसी के चलते राजेश्वर
सिंह को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया था, जिसके बाद उन्होंने यह
इंटरव्यू दिया।
धर्मांतरण कार्यक्रमों के अपने अतीत का हवाला देते हुए बारहवीं तक
पढ़ाई किए सिंह ने इंडिया टुडे को बताया था, ‘‘1996 में हमारा काम ‘परावर्तन’ के नाम से शुरू हुआ था। इसे 1997 में घर वापसी
का नाम दिया गया। मैं इस क्षेत्र में काम करने वाला पहला संघ प्रचारक हूं।” सिंह का दावा था कि उसने 25 दिसंबर 2014 के प्रस्तावित कार्यक्रम के लिए अलीगढ़ को इसलिए चुना क्योंकि यहां
मुसलमानों (20 फीसदी से ज्यादा) और ईसाइयों की संख्या बहुत ज्यादा है। उसका कहना था
कि ‘‘चूंकि जिले में करीब 60 फीसदी
मुसलमान वे राजपूत हैं जिन्होंने धर्म बदल लिया था, इसलिए उसने जब उन्हें दोबारा परिवर्तित करने का फैसला किया तो वे
प्रतिक्रिया में उतर आए (नकारात्मक)।” यह पूछे जाने
पर कि उन्हें किसने रोका,
सिंह ने बचाव में कहा था, ‘‘यह नहीं बताया जा सकता। क्षेत्र प्रचारक ने सीधे मुझसे कहा था।
उन्होंने मुझसे कहा कि काफी दबाव है, इसलिए छोड़ दो।
मैं सहमत हो गया।”
उसका अंदाजा था कि ‘‘किसी कमजोर
दिल वाले नेता”
ने अलीगढ़ का आयोजन ‘‘मुसलमानों…
आइएसआइ द्वारा हत्या किए जाने के डर से” रद्द करवा दिया। उसका कहना था कि यह एक बड़ा झटका है, और फिर उसने उसी ज़हरीली भाषा दोबारा इस्तेमाल की जिसके लिए वह कुख्यात
रहा है,
‘‘लेकिन जब हम लौटेंगे तो हम बदला लेंगे।
हमारा उद्देश्य इस्लाम और ईसाइयत को खत्म कर देना है, और 31
दिसंबर 2021 भारत में दोनों धर्मों का आखिरी दिन होगा।”
असीमानंद के बरी होने के मौके पर राजेश्वर सिंह को याद करने के कई
कारण है। असीमानंद से उसका रिश्ता बहुत पुराना है। पहला तो यह कि स्वामी
असीमानंद द्वारा 2006 में आयोजित शबरी कुम्भ में वह गया था। वहां यह तय हुआ था कि वीर
सावरकर द्वारा 1930 में निर्मित अभिनव भारत संगठन को दोबारा जिंदा करना है। उसने 2011 के एक बयान में हा था, ”यह महसूस किया
गया था कि वक्त की जरूरत है कि मुस्लिम कट्टरपंथियों पर हिंदू प्रार्थनास्थलों में
पलटवार किया जाए और उन्हें माकूल जवाब दिया जाए।”
शबरी कुंभ के बारे में जानना दिलचस्प होगा ताकि हम जान सकें कि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वामी असीमानंद के साथ क्या रिश्ता रहा है। 25 दिसंबर 2014 को प्रस्तावित अलीगढ़ के भव्य धर्मांतरण कार्यक्रम का टाला जाना महज
एक राजनीतिक दबाव का परिणाम था जिससे अगर राजेश्वर सिंह को नाखुशी थी तो मोदी भी
इससे खिन्न ही रहे होंगे।
”कारवां” पत्रिका
में लीना रघुनाथ ने ‘‘दि बिलीवर” नाम से स्वामी असीमानंद का एक
प्रोफाइल किया था। उसमें
उन्होंने स्वामी असीमानंद द्वारा गुजरात के डांग जिले में किए गए धर्मांतरण
कार्यक्रम की परतें खोली थीं। यह वही डांग जिला है जहां शबरी कुंभ मेले का आयोजन
किया गया जिसमें पहली बार राजेश्वर सिंह की मुलाकात असीमानंद से हुई थी। असीमानंद 1998 के आरंभ में डांग जिले में काम करने आया था। उस वक्त केशुभाई पटेल
गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इससे पहले तक लगातार गुजरात में कांग्रेस की सरकार रही
थी हालांकि 1995
में सात माह के लिए पटेल ने राज्य की कमान
संभाली थी। मार्च 1998
में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री
बने और उस वक्त तक एनडीए सरकार को राजनीतिक दबावों के तहत अपने वैचारिक आग्रहों को
झुकाने की जरूरत नहीं आन पड़ी थी, ऐसे में संघ
के भीतर अचानक इस आकांक्षा का उभार हुआ कि अपनी कल्पना का भारत बनाने का वक्त अब आ
गया है। इसी साल दिसंबर में बड़े दिन को डांग में एक दंगा हुआ जिसने संकेत दिया कि
संघ अपनी परियोजना को मूर्त रूप देना शुरू कर चुका है।
लीना अपनी स्टोरी में लिखती हैं, ‘‘असीमानंद की
कामयाबी का एक आरंभिक संकेत वहां सोनिया गांधी का लगा दौरा था जो इस हिंसा की
निंदा करने वहां आई थीं और जिसे उन्होंने ‘‘दिल तोड़ने
वाला” करार दिया था। इसके बाद तो वहां नेताओं की कतार लग गई और समाचारों में
मिली कवरेज ने असीमानंद को चर्चा में ला दिया। संघ में इस वजह से उसकी साख ऊपर
हुई। इसके बाद बहुत दिन नहीं बीते जब संघ ने उसे सालाना श्री गुरुजी पुरस्कार दे
डाला जो गुरु गोलवलकर के नाम पर दिया जाता है।
असीमानंद के करवाए दंगों पर दिल्ली में मचे हल्ले को शांत करवाने के
लिए तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को मध्यस्थता करनी पड़ी। असीमानंद ने ‘कारवां’
को बताया था, ‘‘मेरी धर्मांतरण की खबरें जब सुर्खियों में आईं और जब सोनिया गांधी
मेरे खिलाफ भाषण देने के लिए वहां पहुंची, तो मीडिया में
काफी चर्चा हुई। तब आडवाणीजी गृहमंत्री थे और उन्होंने मुझ पर लगाम कसने के लिए
केशुभाई को कहा। इसके बाद केशुभाई हमें काम करने से रोकने लगे और यहां तक कि
उन्होंने हमारे कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया।” इसी दौरान असीमानंद के मुताबिक अहमदाबाद में आरएसएस के वरिष्ठ
स्वयंसेवकों की एक बैठक हुई। इसमें मोदी उसके पास आए और उससे कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि केशुभाई आपके साथ क्या कर रहे हैं। स्वामीजी, आप जो कर रहे हैं उसकी कोई तुलना ही नहीं है। आप असली काम कर रहे हैं।
अब यह तय हो चुका है कि मुख्यमंत्री मुझे ही बनना है। मुझे आने दीजिए, फिर मैं ही आपका काम खुद करूंगा। आराम से रहिए।”
मोदी अक्टूबर 2001
में मुख्यमंत्री बने और जिस वक्त फरवरी के
अंत में मुसलमानों का नरसंहार गुजरात में किया गया, ऐन उसी समय असीमानंद ने डांग जिले के उत्तर स्थित पंचमहाल जिले में
अपने हमले शुरू किए। असीमानंद ने दावा किया, ‘‘इस इलाके में
भी मुसलमानों को साफ करने का काम मेरी ही निगरानी में हुआ” (कारवां)। इसी साल के अंत में मोदी डांग के दौरे पर पहुंचे। अक्टूबर 2002 में असीमानंद ने राम को बेर खिलाने वाली महिला शबरी के नाम पर शबरी
धाम आश्रम और मंदिर के निर्माण का काम शुरू किया। इस आश्रम और मंदिर को बनाने के
लिए पैसे जुटाने के लिए उसने आठ दिन की रामकथा का आयोजन किया जिसमें मुरारी बापू
कथा सुनाने आए। इस आयोजन में करीब दस हजार लोगों ने हिस्सा लिया। दंगों के बाद
जुलाई में अपनी सरकार जाने के बाद दोबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए प्रचार में लगे
मोदी ने इस कार्यक्रम के मंच पर आने के लिए वक्त निकाला।
उस साल मोदी के चुनावी घोषणापत्र का एक अंश गुजरात फ्रीडम फ्रीडम
रेलीजन बिल था,
जिसमें प्रस्ताव था कि सारे धर्मांतरणों
को जिला मजिस्ट्रेट की मंजूरी होनी चाहिए। असीमानंद द्वारा आयोजित रामकथा के चार
माह बाद अमित शाह ने इस बिल को राज्य विधानसभा में पेश किया। बिल पारित हुआ और
अप्रैल 2003
में इसे कानून की शक्ल दे दी गई। जल्द ही
असीमानंद ने मुरारी बापू,
मोदी और संघ के नेतृत्व की मदद से डांग
में एक भव्य घर वापसी कार्यक्रम की योजना बनानी शुरू कर दी।
इसी रामकथा के समापन पर मुरारी बापू ने शबरी धाम में एक नए कुंभ मेले
को आयोजित किए जाने का प्रस्ताव रखा था। इस आयोजन की तैयारी होने में चार साल लग
गए। इसे धर्मांतण के विरुद्ध एक भव्य प्रदर्शन और हिंदुत्व का उत्सव होना था। इस
मेले के आयोजन की जिम्मेदारी असीमानंद ने ली और संघ ने इसमें सहयोग किया। फरवरी 2006 के दूसरे सप्ताह में दसियों हजारों लोग सुबीर नामक एक गांव में शबरी
कुंभ मेले के लिए उमड़े जो असीमानदं के शबरी धाम आश्रम से छह किलोमीटर दूर था।
चारों परंपरागत कुंभों की तरह यह कुंभ भी धार्मिक शुद्धीकरण के कर्मकांड पर
केंद्रित था जिसमें लोगों को एक स्थानीय नदी में डुबकी लगानी थी जिसके बाद
आदिवासियों के हिंदू धर्म में वापस आने की घोषणा कर दी जाती। समूचे मध्य भारत के
आदिवासी जिलों से ट्रकों में भरकर दसियों हजार आदिवासी वहां हिंदू बनाने के लिए
लाए गए थे।
सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन में (कारवां को) यह जानकारी
प्राप्त हुई थी कि गुजरात सरकार ने कम से कम 53 लाख रुपये
खर्च कर के पानी को नदी की ओर मोड़ा था ताकि उसमें इतना पानी रह सके कि वह इतनी भीड़
के डुबकी लगाने के लिए पर्याप्त हो। यही वह मेला था जिसका जिक्र धर्म जागरण समिति
के मुखिया राजेश्वर सिंह ने इंडिया टुडे की 18 दिसंबर 2014 के इंटरव्यू में किया था, जहां उसकी
मुलाकात असीमानंद से हुई थी।
शबरी कुंभ हिंदू दक्षिणपंथियों की एकजुटता का एक प्रदर्शन भी था। तीन
दिनों तक चले इस मेले में मुरारी बापू, आसाराम बापू, जयेंद्र सरस्वती, साध्वी ऋतम्भरा, इंद्रेश कुमार, प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल, शिवराज सिंह चौहान आदि मंच पर साथ थे। कारवां के मुताबिक यह मेला ‘‘साधुओं, संघ और सरकार” का समागम था। इस आयोजन के उद्घाटन समारोह में मोदी ने लोगों को
संबोधित करते हुए कहा था कि आदिवासियों को राम से दूर ले जाने के हर प्रयास को
नाकाम कर दिया जाएगा। तत्कालीन आरएसएस प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने कहा था, ‘‘हम कट्टरपंथी मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा चलाए जा रहे कपट युद्ध के
विरोध में खड़े हैं… और इससे हम अपने पास उपलब्ध हर संसाधन से
निपटेंगे।”
उस वक्त सुदर्शन के बाद संघ में दूसरे नंबर पर
रहे मोहन भागवत ने कहा था, ‘‘हमारा विरोध करने वालों के दांत तोड़ दिए
जाएंगे।”
यह पुराना ब्योरा मैंने क्यों दिया? अगले लोकसभा चुनाव 2019 में होने हैं। हिंदूवादी संगठनों के पास
खुलकर खेलने के लिए एक साल से भी कम का वक्त बचा है। अगर 2019 में दोबारा भाजपा को बहुमत मिलता है, जो बिखरे हुए विपक्ष और विश्वसनीय चेहरे के अभाव में अब भी संभव है, चूंकि तब तक हिंदू ‘‘मोबिलाइज़ेशन” का चरण येनकेन प्रकारेण संपन्न हो ही चुका होगा, ऐसे में राजेश्वर सिंह के कहे मुताबिक 2021 का 31 दिसंबर इस देश के संविधान के बदलने की ज़मीन तय कर देगा।
बहरहाल, हमारा पहला सवाल अब भी अनुत्तरित है कि
राजेश्वर सिंह आजकल कहां है? अलीगढ़ वाला धर्मांतरण आयोजन विफल होने और
आगरा वाले धर्मांतरण कार्यक्रम के विवाद में आ जाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने
आरएसएस के नेताओं से मिलकर रोष जताया था कि ऐसे आयोजन सरकार की छवि को खराब कर रहे
हैं। इसके बाद धर्म जागरण समन्वय समिति के पश्चिमी यूपी व उत्तराखण्ड प्रभारी
राजेश्वर सिंह को लंबी छुट्टी पर संघ ने भेज दिया था। यह बात जनवरी 2015 के पहले सप्ताह की है। उस वक्त राजेश्वर सिंह ने
इकनॉमिक टाइम्स को दिए एक बयान में कहा था, ”संघ हमेशा ताकतवर नहीं रहता। हो सकता है
उन्हें फिलहाल मेरी ज़रूरत न हो, लेकिन कल उन्हें मेरी ज़रूरत पड़ेगी।” उसने ठीक कहा था।
महज तीन महीने की छुट्टी के बाद राजेश्वर सिंह की घर
वापसी हो गई। समिति की जगह उसे मूल संगठन आरएसएस
में वापस ले लिया गया, वो भी प्रमोशन के साथ। अप्रैल 2015 के पहले सप्ताह में सिंह को मातृ संगठन में क्षेत्र प्रचारक बनाकर
मेरठ में स्थापित कर दिया गया। आंतरिक अनुक्रम में आरएसएस सबसे ऊपर आता है, फिर विश्व हिंदू परिषद और धर्म जागरण समिति उसके भी नीचे आती है। इस
लिहाज से मातृ संगठन में क्षेत्र प्रचारक की भूमिका मिलना राजेश्वर सिंह के
राजनीतिक करियर में दोहरी उछाल थी। यह संयोग नहीं है कि 25 फरवरी 2018 को मोहन भागवत ने मेरठ में एक लाख की
रैली की,
जिसके लिए पहले ग़ाजि़याबाद को चुना गया था। मेरठ
पश्चिमी यूपी का केंद्र है। यूपी से 2014 में केंद्र की सत्ता निकली थी। 2019 में भी यूपी ही बीजेपी की किस्मत तय करेगा। किस्मत तय करने वालों
में परदे के पीदे राजेश्वर सिंह प्रमुख चेहरा होंगे। उस चेहरे पर कोई दाग न हो, इसके लिए ज़रूरी था कि उनके गुरु असीमानंद के चेहरे पर लगी कालिख पोंछ
दी जाए। कल ऐसा ही हुआ। यह अप्रत्याशित नहीं है।
याद रखें, अमदाबाद में असीमानंद से मोदी ने क्या
कहा था,
”स्वामीजी, आप जो कर रहे हैं उसकी कोई तुलना ही नहीं है। आप असली काम कर रहे हैं।
अब यह तय हो चुका है कि मुख्यमंत्री मुझे ही बनना है। मुझे आने दीजिए, फिर मैं ही आपका काम खुद करूंगा। आराम से रहिए।” असीमानंद बरी हैं, आराम से हैं। राजेश्वर सिंह प्रमोटेड हैं, आराम से हैं। बेरामी उस जज को है जिसने फैसला सुनाने के बाद इस्तीफ़ा
दे दिया है।
लेखक मीडिया विजिल के कार्यकारी संपादक हैं

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