जैसे-जैसे आम
चुनाव करीब आ रहा है वैसे-वैसे यह लगता जा रहा है कि भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे की
पिछले साल अचानक निकली बात कहीं सही न हो जाए।मुंडे ने कहा था कि पिछले लोकसभा
चुनाव में उनका चुनावी खर्च आठ करोड़ रुपए के आसपास बैठा था। लोकसभा में भाजपा के
उपनेता होने के नाते मुंडे का यह बयान न सिर्फ उनके लिए, बल्कि पार्टी के लिए भी भारी था। पार्टी ने तो
तुरंत उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया और चुनाव आयोग ने उनको नोटिस थमा दिया, जिस पर उनकी सफाई के बाद आयोग ने उन्हें सलाह देकर छोड़ दिया।
कागज में मुंडे
साहब का चुनावी हिसाब-किताब ठीक है और उन्होंने स्पष्टीकरण में कहा कि उनकी बात
सामान्य तौर पर की गई एक टिप्पणी थी जिसका किसी तथ्य से लेना-देना नहीं था। आयोग
चाहता तो सीमा से ज्यादा चुनाव खर्च करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 10-ए के तहत उन्हें तीन साल तक चुनाव लड़ने से वंचित रख सकता था। लेकिन कागज
में चकाचक और हकीकत में धकाधक वाली राजनीतिक खर्च की यह स्थिति क्या हमारा
लोकतंत्र लंबे समय तक सह पाएगा?
गोपीनाथ मुंडे
के बयान को जितने हल्के ढंग से लिया गया वह दरअसल उतने हल्के ढंग से लिया जाने
लायक नहीं है। उनके बयान से निकला सवाल हमारी राजनीति का इस साल सबसे ज्यादा पीछा
करेगा, खासकर उस समय जब वह
अपने को साफ-सुथरा बनाने के लिए भ्रष्टाचार मिटाने के राजनीतिक एजेंडे पर चलने की
कोशिश कर रही है।
हालांकि चुनाव
खर्च महंगा करने में भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल ही नहीं, दूसरे छोटे और क्षेत्रीय दल भी पीछे नहीं हैं,
लेकिन जब हम किसी पार्टी का हिसाब देखते हैं तो आदर्श दिखाई पड़ता
है। अगर पिछले विधानसभा चुनावों के खर्च पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ से लेकर मिजोरम
तक हर जगह हमारे राजनीतिक दल मितव्ययी दिखाई पड़ते हैं और लगता है कि उन्होंने लोकतंत्र
में सादगी का सिद्धांत अपना लिया है। छत्तीसगढ़ जहां एक विधानसभा सीट पर चुनाव-खर्च
की सीमा सोलह लाख रुपए थी, वहां ज्यादातर उम्मीदवारों ने
औसतन 8,46,936 रुपए यानी तिरपन प्रतिशत खर्च किया। जबकि
दिल्ली में जहां चौदह लाख रुपए की सीमा थी, वहां औसत खर्च 7,16,744
रुपए यानी इक्यावन प्रतिशत ही हुआ।
इन पांचों
राज्यों में खर्च का सबसे कम औसत (छियालीस प्रतिशत) राजस्थान में रहा और उससे थोड़ा
ज्यादा (अड़तालीस प्रतिशत) मध्यप्रदेश का था। जबकि मिजोरम में, जहां सिर्फ आठ लाख की सीमा थी, पचपन प्रतिशत खर्च हुआ। अगर हम मुख्यमंत्री बनने वाले राजनेताओं के चुनावी
खर्च पर निगाह डालें तो सर्वाधिक खर्च (छियासठ प्रतिशत) वसुंधरा राजे ने और सबसे
कम खर्च अरविंद केजरीवाल ने (उनतीस प्रतिशत) किया। केजरीवाल का दावा है कि
उन्होंने अपना चुनाव महज 3.99 लाख रुपए में लड़ा। शिवराज सिंह
चौहान ने बुधनी में आयोग की सीमा का तिरसठ प्रतिशत और विदिशा में इकसठ प्रतिशत
व्यय किया।
अगर यह व्यय
सही है तो हमें किसी प्रकार की चिंता की बात नहीं है और मान लेना चाहिए कि चुनाव
पारदर्शी हो रहा है और किफायती भी। लेकिन आदर्शवाद की ओर बढ़ते चुनावों के इस माहौल
में हम यह देखते हैं कि न तो कोई उम्मीदवार अपनी संपत्ति की सही प्रकार से घोषणा
करता है और न ही उसके खर्चों में पार्टी के खर्च को शामिल किया जाता है। पार्टी के
अलावा समर्थकों के खर्च और तमाम प्रचार एजेंसियों पर होने वाले खर्च तो और भी
कहानी कहते हैं।
गोपीनाथ मुंडे
ने 2009 के लोकसभा चुनाव
के बारे में दावा किया था कि उन्होंने या उनकी जानकारी में पार्टी के उम्मीदवारों
ने तकरीबन आठ करोड़ खर्च किए थे। तब एक लोकसभा सीट पर चुनाव खर्च की सीमा पचीस लाख
रुपए थी। अगर गौर किया जाए तो गलती से स्वीकारा गया वह खर्च न सिर्फ सीमा से तीस
गुना बैठता है, बल्कि वह उनकी घोषित 6.22 करोड़ की संपत्ति से भी ज्यादा है।
हालांकि उसके
बाद महंगाई को हिसाब में लेते हुए चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की खर्च-सीमा बढ़ा कर
चालीस लाख कर दी थी। अब आयोग पर फिर उस सीमा को बढ़ाने का दबाव है। उम्मीद है कि
अगले हफ्ते तक आयोग इस खर्च-सीमा को विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख से बाईस
लाख और लोकसभा उम्मीदवार के लिए चालीस लाख से पचपन लाख कर देगा। वैसे राजनीतिक
दलों की मांग लोकसभा प्रत्याशी के लिए खर्च-सीमा कम से कम तो एक करोड़ करने की है, जिसे आयोग शायद ही माने।
अगर राजनीतिक दल
इस सीमा को एक करोड़ रुपए करवा भी ले गए, तब भी मुंडे के बयान में बताई गई अनुमानित राशि आठ गुना बैठती है। ऐसे में
काले धन और दूसरे लिहाज से आर्थिक और कानूनी कदम तो उठाने की जरूरत तो है ही,
उससे पहले कम से कम नैतिक रूप से झूठ पर आधारित हलफनामे बंद होने
चाहिए। आयोग की सीमा और राजनीतिक यथार्थ का यह अंतर हमारे लोकतंत्र में एक प्रकार
का पाखंड पैदा कर रहा है। वह पाखंड ही हमें भ्रष्टाचार, मजबूत
या कठोर नेतृत्व और फिर कॉरपोरेट-राजनीतिक तानाशाही की तरफ ले जाता है।
चुनाव
प्रचार पर कांग्रेस भी कम खर्च नहीं कर रही है और पार्टी का कोई व्यक्ति देर-सबेर
गोपीनाथ मुंडे की तरह सच उद्घाटित कर दे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस ने
फिलहाल अपनी और राहुल गांधी की छवि के निर्माण में इन दिनों पांच सौ करोड़ रुपए
झोंक रखा है और उसका असर देश के कोने-कोने में दिखाई पड़ रहा है। पर इस चुनाव को
नरेंद्र मोदी बनाम अन्य की तर्ज पर संसदीय से राष्ट्रपति प्रणाली पर ले जाने में
जिन ताकतों ने योगदान दिया है उनमें कॉरपोरेट जगत का बड़ा योगदान है। इसका स्पष्ट
प्रमाण है इकोनॉमिक टाइम्स और नेल्सन का वह सर्वे जिसमें सौ में सत्तर सीइओ (मुख्य
कार्यकारी अधिकारियों) ने मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहा था। जबकि
उनमें से महज सात ऐसे थे, जो राहुल गांधी को
प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं।
दरअसल, चुनाव खर्च तब बढ़ते हैं जब राजनीतिक दलों के
पास कार्यकर्ताओं की कमी होती है और उन्हें उनकी जगह पर एपको वर्ल्डवाइड और
रिडिफ्यूजन जैसी वैश्विक जनसंपर्क एजेंसियों का सहारा लेना पड़ता है। साथ ही प्रचार
एजेंसियों की जरूरत उस समय भी पड़ती है, जब नेतृत्व वैसा होता
नहीं जैसा उसे दिखाए जाने की दरकार होती है। ऐसा राजीव गांधी के लिए 1989 के चुनावों में किया गया और वैसा ही आज नरेंद्र मोदी के लिए किया जा रहा
है। इसी के साथ चुनाव खर्च बढ़ाने का बड़ा कारण राजनीति और व्यापार का नापाक गठजोड़
और राजनीति का व्यापार बन जाना है। चुनाव का बेहिसाब धन ठेकेदारों, पूंजीपतियों, व्यापारियों और कॉरपोरेट घरानों के
माध्यम से आता है और बदले में वे चाहते हैं कि नीतियां उनके हित में बनें और सरकार
गरीब जनता से ज्यादा उन्हें रियायत दे।
शासकों और
पूंजीपतियों का यह रिश्ता जहां विकास के नाम पर राज्य को जनता से दूर ले जाएगा, वहीं वह द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले जर्मनी और
इटली में उभरे नाजीवाद और फासीवाद की तरह तानाशाही का खतरा पैदा करेगा। अमेरिका के
कई व्यापारियों ने मुसोलिनी में एक बेहतरीन बिजनेस एक्जीक्यूटिव देखा था और जर्मनी
में नाजीवाद के उदय के काफी बाद तक जनरल मोटर्स के रिश्ते सरकार से बहुत अच्छे थे।
आज अगर वैसी तमाम कंपनियां किसी एक व्यक्ति को शाहों में शहंशाह, एक बड़ी दृष्टि का नेता देख रही हैं तो इतिहास दोहराने के खतरे बन सकते
हैं।
भारत के
संविधान निर्माताओं ने इन्हीं तमाम खतरों को देखते हुए यहां राष्ट्रपति शासन
प्रणाली को नहीं स्वीकार किया। न ही आजादी के सर्वमान्य नेता महात्मा गांधी बिड़ला
से कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा चंदा लेने के पक्ष में थे। एक बार जब उन्होंने
पटेल को इसके लिए परोक्ष तरीके से टोका तो पटेल ने किसी से कहा भी था कि पार्टी
हमें चलानी है या उन्हें। आज भारत के सामने सर्वधर्म समभाव के साथ वह सवाल फिर खड़ा
हुआ है कि चुनाव का खर्च कितना हो और कैसे हो। ऐसे में हमें राजनीतिक दलों को
सरकार की तरफ से चुनावी खर्च दिए जाने संबंधी इंद्रजीत गुप्त समिति की रपट को ठंडे
बस्ते से निकालने और इस चुनाव में उस पर गंभीर बहस की जरूरत है।
यह
दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि उसी समिति के एक सदस्य मनमोहन सिंह दस साल तक प्रधानमंत्री
रहने के बावजूद उस रपट पर पहल नहीं कर सेके। गोपीनाथ मुंडे को चुनाव आयोग ने माफ
जरूर कर दिया है, लेकिन उनके बयान को
भुला कर हम इस लोकतंत्र को साफ-सुथरा और पारदर्शी नहीं बना सकते। आज जरूरत इस बात
की है कि चुनाव के चर्चे बढ़ाने के लिए खर्च मत बढ़ाइए, बल्कि
खर्च कम करने के लिए चुनावी चर्चा तेज कीजिए।
साभार- जनसत्ता
http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=59483:2014-02-15-05-42-25&catid=20:2009-09-11-07-46-16
वाचनीय
ट्रेडिंग$type=blogging$m=0$cate=0$sn=0$rm=0$c=4$va=0
-
जर्मनीच्या अॅडाल्फ हिटलरच्या मृत्युनंतर जगभरात फॅसिस्ट प्रवृत्ती मोठया प्रमाणात फोफावल्या. ठिकठिकाणी या शक्तींनी लोकशाही व्यवस्थेला हादरे द...
-
“जो तीराव फुले और सावित्रीमाई फुले के साथ काम फातिमा कर चुकी हैं। जब जोतीराव को पत्नी सावित्री के साथ उनके पिताजी ने घर से निकाला तब फातिमा ...
-
उस्मानाबाद येथे ९३वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन पार पडत आहे. या संमेलनाचे अध्यक्ष फादर फ्रान्सिस दिब्रिटो आहेत. तर उद्घाटन म्हणून रान...
-
अ खेर ४० वर्षानंतर इराणमधील फुटबॉल स्टेडिअमवरील महिला प्रवेशबंदी उठवली गेली. इराणी महिलांनी खेळ मैदानात प्रवेश करून इतिहास रचला. विविध वे...
-
मध्यपूर्वेतील इस्लामिक राष्ट्रात गेल्या 10 वर्षांपासून लोकशाही राज्यासाठी सत्तासंघर्ष सुरू आहे. सत्तापालट व पुन्हा हुकूमशहाकडून सत्...
-
फिल्मी लेखन की दुनिया में साहिर लुधियानवी और सलीम-जावेद के उभरने के पहले कथाकार, संवाद-लेखक और गीतकारों को आमतौर पर मुंशीजी के नाम से संबोधि...
-
इ थियोपियाचे पंतप्रधान अबी अहमद यांना शांततेसाठी ‘नोबेल सन्मान’ जाहीर झाला आहे. शेजारी राष्ट्र इरिट्रियासोबत शत्रुत्व संपवून मैत्रीपर्व सुरू...
/fa-clock-o/ रिसेंट$type=list
चर्चित
RANDOM$type=blogging$m=0$cate=0$sn=0$rm=0$c=4$va=0
/fa-fire/ पॉप्युलर$type=one
-
को णत्याही देशाच्या इतिहासलेखनास प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष रीतीने उपयोगी पडणाऱ्या साधनांना इतिहाससाधने म्हणतात. या साधनांचे वर्गीकर...
-
“जो तीराव फुले और सावित्रीमाई फुले के साथ काम फातिमा कर चुकी हैं। जब जोतीराव को पत्नी सावित्री के साथ उनके पिताजी ने घर से निकाला तब फातिमा ...
-
इ थे माणूस नाही तर जात जन्माला येत असते . इथे जातीत जन्माला आलेला माणूस जातीतच जगत असतो . तो आपल्या जातीचीच बंधने पाळत...
-
2018 साली ‘ युनिसेफ ’ व ‘ चरखा ’ संस्थेने बाल संगोपन या विषयावर रिपोर्ताजसाठी अभ्यासवृत्ती जाहीर केली होती. या योजनेत त्यांनी माझ...
-
राजा ढाले यांच्या लेखनीतून : घड्याळाच्या काट्यावर चालणाऱ्या अजस्त्र पण सुस्त मुंबईत काही घटना, घडामोडी घडताहेत. खरं म्हणजे मुंबईची घडी-मोड ह...
अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com