नैतिक दबाव में ही सही किंतु महाराष्ट्र सरकार ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के
बलिदान के बाद काला जादू और अंधविश्वास विरोधी कानून को लागू कर दिया. बीते
मंगलवार को डॉ. दाभोलकर की पुणे में हत्या के बाद राज्य सरकार ने आनन-फानन में एक
अध्यादेश निकालकर उसे राज्यपाल की अनुमति के लिए भेज दिया, जो शनिवार को
लागू भी हो गया. दरअसल, यह करीब तीन दशक
के संघर्ष का परिणाम था. डॉ दाभोलकर ने वर्ष 1983 में दकियानूसी
विचारों के खिलाफ अपनी लडाई आरंभ की थी जिसके माध्यम से वर्ष 1989 में अंधश्रद्धा
निर्मूलन समिति का गठन किया गया. लंबे समय से उनकी लडाई ं अंधविश्वास के खिलाफ कानून बनाए जाने के लिए केंद्रित हो गई थी.
लंबे समय तक सरकार ने राजनीति के सहारे कानून को ठंडे बस्ते में रखा किंतु डॉ.
दाभोलकर ने जीते जी न तो हार मानी और न ही अपने दृष्टिकोण के आगे कोई समझौता किया.
उन्होंने समाज की कुरीतियों के खिलाफ जो प्रण लिया, उसे ताउम्र निभाया. इस कार्य में उनके सामने अनेक बाधाएं आईं. काफी आलोचना भी
हुई लेकिन उनके प्रयास पूरी ईमानदारी तथा परिश्रम के साथ जारी रहे. आखिरकार सरकार
को उनकी मांग को पूरा करना ही पडा. यूं तो उनके प्रयासों को बार-बार धर्म अथवा
आस्था का विरोधी रंग देने की कोशिश की गई, मगर वे हार न मानते हुए हमेशा स्पष्ट करते रहे कि उनका विरोध धर्म और श्रद्धा
के खिलाफ नहीं बल्कि उसके नाम पर समाज में चल रही कुरीतियों के खिलाफ है. इसके
बावजूद अनेक लोग उनके मंतव्य को गलत अथरें में लेकर विरोध करते रहे जिसके चलते
कानून बनने में बाधा आई. देर से ही सही किंतु किन्हीं गलतफहमियों की वजह से सरकार
के पास फंसा यह कानून आखिरकार अमल में आ ही गया. अब मुद्दा यह है कि नए कानून के
प्रति आम जनता को जागृत कैसे किया जाए? चिंता यह है कि कानून के दुरुपयोग को कैसे रोका जाए? समस्या यह है कि
क्या नया कानून अंधविश्वास के खिलाफ लडाई को एक तार्किक
अंत तक पहुंचा पाएगा? महाराष्ट्र सरकार
ने फिलहाल कानून बनाकर अपनी आलोचना और जिम्मेदारी को कुछ हद तक कम कर दिया है. मगर
जब तक काला जादू, नरबलि, झाड.-फूंक समाज
में किसी भी रूप में मौजूद रहेंगे और उन्हें जन सर्मथन के आधार पर संरक्षण मिलता
रहेगा, तब तक भोली-भाली
जनता परेशान होती ही रहेगी इसलिए इन सभी गतिविधियों को केवल कानून के नाम पर ही
नहीं, बल्कि समाज
प्रबोधन के आधार पर समाप्त करना होगा. सच्चे अथरें में नवचेतना ही डॉ. दाभोलकर के
लिए कानून से बढ.कर सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
विशेष संपादकीय
लोकमत समाचार

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- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com