पिछले शनिवार मै औरंगाबाद से अंबाजोगाई आ रहा था. पुरे पाँच घंटे का समय मुझे प्रवास मे लगने वाला था, दोपहर एक बजे बस मे सवार होकर विंडो सीट पर बैठ गया. बस निकलने मे अभी अवकाश था. इसलीए मै कान मे हेड्फ़ोन डालकर F.M. सुनने लगा. R.J. फ़टाफ़ट वाणी मे मनोरंजन के साथ ज्ञानवर्धक बाते बता रहा था. इस समय मराठवाडा परिक्षेत्र आकाल और पानी की कमी किल्लत से झुज रहा है. इसके बारे मे भी समय समय पर अवगत करा रहा था, पानी बचाने के उपाय बता रहा था, मै सुनने तल्लीन था. और जायकवाडी सिंचन तालाब के भविष्य के बारे मे विचार कर रहा था. "तेरे नैना बडे दगाबाज रे...." इस गाने के साथ मेरी विचार शलाका टुट गयी. मैने चॅनल बदला उधर भी. "सांस से तेरी सांस मीले तो मुझे चैन आये" मैने F.M. की सांस बंद कर दी.
एक महाशय हाथ मे पानी की बोतल गले मे बॅग लिये मेरी बगल वाली सीट पर आ बैठे. बैठते ही, नई बोतल की सील तोडकर आधी बोतल गटक गये; फ़िर अपना बॅग उपर डाल दिया. सहप्रवासी होने के नाते मै उनसे बतियाने लगा, उन्हे बीड जाना था उन्होने अपना पसीना पोंछते हुए बची हुयी बोतल गले मे उतार कर बाहर फ़ेंक दी. चर्र्र्र्र्र्र्र्र्रर्र्र्र्र्र्र्र्र्रर्र्र्र्र्र्र्र्र्र के साथ बोतल चिमट गयी,बोतल के उपर से टायर गुजर चुका था, ऎसी चीमटी हुई बोतले जहा-तहा नजर आ रही थी.
थोडा रिलॅक्स होने के बाद उन्होने मुझसे पुछा आपको कहा जाना है. मैने कहा अंबाजोगाई....!
आप बीड मे क्या करते हो, मेरा उनसे सवाल था...?
मै अध्यापक हुं बात काटते हुए पानी वाले को बुलाकर एक नई बोतल खरिदी. मुझे पेश करते हुए कहा आप लेंगे! मैने शुक्रीया के साथ न मे जवाब दिया. बस मे उस बोतल वाले से पाँच-सात बोतले खरिदी गयी. बाहर भी बोतल बेचनेवाले चिखते चील्लाते नजर आ रहे थे.
इस पुरे घटनाक्रम पे नजर डाले तो कितनी आसानी से हम पानी खरीद कर पीते है, एक लिटर पानी के लिये हम 10-12 रूपये युंही लुटा देते है. पानी तो हम पीते है, पर खाली बोतल बाहर फ़ेंक कर पर्यावरण का कितना नुकसान हम करते है. क्या इस बारे मे किसीने सोचा है ? क्या हम प्रवास पर निकलते समय एक अदद लिटर पानी साथ लेकर नही निकल सकते. इस बिगडती मनोवृत्ती का नतीजा आनेवाले समय मे विदारक रूप मे सामने आ सकता है.
बस मे निम्नतम 50 लोग होते है. सभी के पास एक बोतल तो अवश्य होती है. वह 50 बोतले एक बस से बाहर फ़ेंकी जाती है. इसी तरह एक बस स्टॉप से रोजाना निम्नतम 60 बसे जरुर गुजरती होंगी, मतलब एक बस स्टॉप रोजाना 3,000 प्लास्टीक बोतल का कचरा पैदा करता है. महिने मे 90,000 प्लास्टीक बोतल बाहर निकलती है. इसके अलावा पानी पाऊच की संख्या भी अनगिनत होती है. इसी तरह रेल मे भी रोजाना हजारो बोतल खरिदी बेची जाती है, सिनेमाघर तो इन जैसे कचरे का उगमस्थान होते है.
इसी तरह हम चाय के लिये प्लॅस्टीक ग्लास को आसानी से स्वीकार करते है. बिस्कीट तथा अन्य खाद्य वस्तुओके रॅपर हम आसानी से बस स्टॉप, रेल्वे स्टेशन या सार्वजनिक स्थानो पर फ़ेंक देते है. रोजाना यह निकलने वाला कचरा रिसायकल होता है क्या..? इस बारे मे कभी हम विचार भी नही करते. नियमानूसार बोतल, ग्लास क्रश या मरोडकर फ़ेंकना होता है. हम इसका खयाल नही करते. यही ग्लास और बोतल रेल मे पानी और चाय के साथ बेची जाती है. फ़ेंकी हुई ये बोतल और ग्लास पुर्नइस्तेमाल होते है. मतलब स्वास्थ का कितना बडा खतरा हम मोल लेते है.
प्लॅस्टीक कचरे से कितनी बडी हानी हमारे पर्यावरण को हो रही है. रेल्वे या बस स्थानको पर इस तरह कचरे का ढेर लगा होता है. इस कचरे से तरह-तरह की समस्या उत्पन्न होती है. मुंबई मे बारीश का महाआतंक इसी कचरे के वजह से मचा था. आये दिन इस कचरे से गटर चोक-अप हो जाते है. क्या हम इस समस्याओ पर खुद प्रावधान नही निकाल सकते. कब तक हम ऎसी मनोवृत्ती लिये जीते रहेंगे. क्या हम पर्यावरण की रक्षा करने मे असमर्थ है. पर्यावरण सहेजने की हम क्या सिर्फ़ बाते करते रहेंगे.
एक बस या रेल अपने निर्धारित स्थान तक पहुंचती है तो, खाली रेल या बसो मे बोतले पडी मिलेंगी, मतलब इनमे पानी होने के वजह से बोतल बाहर नही फ़ेंकी जाती. एक लिटर शुध्द पानी तयार करने मे न जाने कितना लिटर पानी बरबाद होता है. इसका हम अनुमान भी नही लगा सकते. जब हम खरीद कर पानी लेते है. तो वह पुरा भी नही पिते. एक-आध बोतल खाली मिलेंगी बाकी बोतल मे आधा तो पानी जरुर होता है. मतलब लाखो लिटर पानी हम रोजाना फ़ेंक देते है. एक तरफ़ पुरा परिक्षेत्र पानी के किल्लत से झुज रहा है. और हम लाखो लिटर शुध्द पानी फ़ेंक रहे है...? पानी का कितना नुकसान हम कर रहे है.
क्या हम घर से निकलते समय एक बोतल पानी लेकर नही निकल सकते. और उसी बोतल को पुर्नइस्तेमाल कर पर्यावरण सहेजने मे कितनी मदद कर सकते है. हर समय खरीद कर बोतलबंद पानी पीना नही जरूरी है.
कलिम अजीम
एक महाशय हाथ मे पानी की बोतल गले मे बॅग लिये मेरी बगल वाली सीट पर आ बैठे. बैठते ही, नई बोतल की सील तोडकर आधी बोतल गटक गये; फ़िर अपना बॅग उपर डाल दिया. सहप्रवासी होने के नाते मै उनसे बतियाने लगा, उन्हे बीड जाना था उन्होने अपना पसीना पोंछते हुए बची हुयी बोतल गले मे उतार कर बाहर फ़ेंक दी. चर्र्र्र्र्र्र्र्र्रर्र्र्र्र्र्र्र्र्रर्र्र्र्र्र्र्र्र्र के साथ बोतल चिमट गयी,बोतल के उपर से टायर गुजर चुका था, ऎसी चीमटी हुई बोतले जहा-तहा नजर आ रही थी.
थोडा रिलॅक्स होने के बाद उन्होने मुझसे पुछा आपको कहा जाना है. मैने कहा अंबाजोगाई....!
आप बीड मे क्या करते हो, मेरा उनसे सवाल था...?
मै अध्यापक हुं बात काटते हुए पानी वाले को बुलाकर एक नई बोतल खरिदी. मुझे पेश करते हुए कहा आप लेंगे! मैने शुक्रीया के साथ न मे जवाब दिया. बस मे उस बोतल वाले से पाँच-सात बोतले खरिदी गयी. बाहर भी बोतल बेचनेवाले चिखते चील्लाते नजर आ रहे थे.
इस पुरे घटनाक्रम पे नजर डाले तो कितनी आसानी से हम पानी खरीद कर पीते है, एक लिटर पानी के लिये हम 10-12 रूपये युंही लुटा देते है. पानी तो हम पीते है, पर खाली बोतल बाहर फ़ेंक कर पर्यावरण का कितना नुकसान हम करते है. क्या इस बारे मे किसीने सोचा है ? क्या हम प्रवास पर निकलते समय एक अदद लिटर पानी साथ लेकर नही निकल सकते. इस बिगडती मनोवृत्ती का नतीजा आनेवाले समय मे विदारक रूप मे सामने आ सकता है.
बस मे निम्नतम 50 लोग होते है. सभी के पास एक बोतल तो अवश्य होती है. वह 50 बोतले एक बस से बाहर फ़ेंकी जाती है. इसी तरह एक बस स्टॉप से रोजाना निम्नतम 60 बसे जरुर गुजरती होंगी, मतलब एक बस स्टॉप रोजाना 3,000 प्लास्टीक बोतल का कचरा पैदा करता है. महिने मे 90,000 प्लास्टीक बोतल बाहर निकलती है. इसके अलावा पानी पाऊच की संख्या भी अनगिनत होती है. इसी तरह रेल मे भी रोजाना हजारो बोतल खरिदी बेची जाती है, सिनेमाघर तो इन जैसे कचरे का उगमस्थान होते है.
इसी तरह हम चाय के लिये प्लॅस्टीक ग्लास को आसानी से स्वीकार करते है. बिस्कीट तथा अन्य खाद्य वस्तुओके रॅपर हम आसानी से बस स्टॉप, रेल्वे स्टेशन या सार्वजनिक स्थानो पर फ़ेंक देते है. रोजाना यह निकलने वाला कचरा रिसायकल होता है क्या..? इस बारे मे कभी हम विचार भी नही करते. नियमानूसार बोतल, ग्लास क्रश या मरोडकर फ़ेंकना होता है. हम इसका खयाल नही करते. यही ग्लास और बोतल रेल मे पानी और चाय के साथ बेची जाती है. फ़ेंकी हुई ये बोतल और ग्लास पुर्नइस्तेमाल होते है. मतलब स्वास्थ का कितना बडा खतरा हम मोल लेते है.
प्लॅस्टीक कचरे से कितनी बडी हानी हमारे पर्यावरण को हो रही है. रेल्वे या बस स्थानको पर इस तरह कचरे का ढेर लगा होता है. इस कचरे से तरह-तरह की समस्या उत्पन्न होती है. मुंबई मे बारीश का महाआतंक इसी कचरे के वजह से मचा था. आये दिन इस कचरे से गटर चोक-अप हो जाते है. क्या हम इस समस्याओ पर खुद प्रावधान नही निकाल सकते. कब तक हम ऎसी मनोवृत्ती लिये जीते रहेंगे. क्या हम पर्यावरण की रक्षा करने मे असमर्थ है. पर्यावरण सहेजने की हम क्या सिर्फ़ बाते करते रहेंगे.
एक बस या रेल अपने निर्धारित स्थान तक पहुंचती है तो, खाली रेल या बसो मे बोतले पडी मिलेंगी, मतलब इनमे पानी होने के वजह से बोतल बाहर नही फ़ेंकी जाती. एक लिटर शुध्द पानी तयार करने मे न जाने कितना लिटर पानी बरबाद होता है. इसका हम अनुमान भी नही लगा सकते. जब हम खरीद कर पानी लेते है. तो वह पुरा भी नही पिते. एक-आध बोतल खाली मिलेंगी बाकी बोतल मे आधा तो पानी जरुर होता है. मतलब लाखो लिटर पानी हम रोजाना फ़ेंक देते है. एक तरफ़ पुरा परिक्षेत्र पानी के किल्लत से झुज रहा है. और हम लाखो लिटर शुध्द पानी फ़ेंक रहे है...? पानी का कितना नुकसान हम कर रहे है.
क्या हम घर से निकलते समय एक बोतल पानी लेकर नही निकल सकते. और उसी बोतल को पुर्नइस्तेमाल कर पर्यावरण सहेजने मे कितनी मदद कर सकते है. हर समय खरीद कर बोतलबंद पानी पीना नही जरूरी है.
कलिम अजीम
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अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com