पुणे, ता. २० एप्रील, (कलिम अजीम) आज की फ़िल्मो मे सामाजिक सारोकार से दुर होती जा रही है, बाजारवाद के बढने से फ़िल्मे अपनी नैतिकता खो रहे है, इसपर चिंतन की आवश्यकता है, महिलाओ कि गलत छबी फ़िल्मो मे आ रही है, इसके लिये कुछ हद तक हम ही जिम्मेदार है, यह फ़िल्म वाले जो चीज बीक रही है उन्हे ही परोस रहे है, इस लिये फ़िल्मो मे अश्लिलता और फ़ुहडता बढ रही है. जिसकी कोई जरुरत नही है सशक्त कथा अगर है, तो कम बजट वाली फ़िल्म भी चलती है, ऎसे विचार नाटिका और मराठी सिनेमा मे अपनी अलग छाप बिखेरने वाली नवेदीत अभिनेत्री अमृता देशमुख ने रखे.
सुंबरान
पत्रीका और अक्षरधारा बुक गेलरी के संयुक्त रुप से आयोजीत 'सृजन कट्टा'
विचारमाला का आयोजन किया गया था. "मनोरंजन
गुमराह करने वाली नशा" इस विषय पर
आयोजीत संगोष्टी मे एफ़.
टी. आई. के अक्षय इंडिकर (फ़िल्म एडिटर), सुंबरान के संपादक
कुणाल गायकवाड, संथापक संपादक प्रथमेश पाटील उपस्थित थे.
आये दिन
टी.व्ही चेनलो पर महिला केंद्रित भूमिकाओ की डिमांड बढ रही है, क्योकि लोग इसे देख रहे है, इस वजह से निर्माता निर्देशक ऎसा ही उत्पादन कर रहे है जो बीक रहा है. इस
तरह का हाल फ़िल्मो मे ज्यादा है, आयटम सोंग, अश्लिलता, नंगापन, नकारात्मक
किरदारोकी मांग बढ रही है. इसी वजह से कलात्मक फ़िल्मो का दौर खत्म होने की कगार पर
है.
इस विषय पर अक्षय
इंडिकर ने कहा आज ज्यादा पैमाने पर अच्छी फ़िल्मे बन रही है, वैश्विक स्तर पर हमारी भारतीय फ़िल्मे
जानी-पहचानी जा रही है. इसी तरह कलात्मक फ़िल्मो को भी अच्छे दर्शक मिल जाते है,
हमे इससे आगे बढ कर सामाजिक विषयो पर फ़िल्मो का निर्माण करना चाहिए,
समाज के हर पहलू को स्पर्ष करने वाली भूमिकाओ को सामने लाना चाहीए,
आज दर्शको की रुची बदल रही है, इस अनुसार
फ़िल्मो का निर्माण हो रहा है.
फ़ुहडता
अश्लिलता का दौर है, बस इसी तरह की फ़िल्मे
चलती है लोगो को अश्लिलता और हिंसा देखने की आदत हो गयी है. करप्ट सलमान की दबंगाई
पर लोग सिटीया बजाते है, जब कोई घुसे या दस-दस लोगो को मार
रहा होता है तो दर्शक काफ़ी खुश होते है, वही फ़िल्मे १०० करोड
कमाती है, और फ़िल्मे हिट की कगार पर पहुंच जाती है, बस सौ करोड कि क्लब मे शामील होना इनकी सक्सेस है, इन
निर्माताओसे अच्छे फ़िल्मो की उम्मीद कैसे कि जा सकती है.
आज अच्छी
फ़िल्मे देखनी है तो इंटरनेट पर दुनियाभर की हर विषय तथा भाषा मे फ़िल्मे आपको सहजता
से यु-ट्यूब पर उपलब्ध हो जायेगी. महाराष्ट्र मे भी इसी वजह मराठी मे भी अच्छे
फ़िल्मो का निर्माण बढ रहा है, पर सरकार को मराठी फ़िल्मो का अनुदान को बंद करना होगा, या अनुदान देने के लिये उस फ़िल्मो की पटकथा का अभ्यास करना होगा. फ़िर उसके
बाद अनुदान के बारे मे सोचना होगा, सिर्फ़ अनुदान की खातीर
मराठी निर्माता फ़िल्म शुरु करते है, अनुदान मिलते ही फ़िल्म
डब्बाबंद हो जाती है, कम बजट मे भी अच्छी फ़िल्मे बनायी जा
सकती है.
सुंबरान के संपादक
कुणाल गायकवाड ने इस विचारमंच की भूमिका को स्पष्ट
किया. युवा वर्ग के विचारो को अभिव्यक्त करने के लिये यह विचारमंच का आयोजन किया है, यहा
आयोजीत की जानेवाली संगोष्टी मे युवा आयु मे पडने वाले तरह तरह के प्रश्नो का
उत्तर तलाशने की कोशीश हम कर रहे है, युवाओ की घुटन को हम इस
माध्यम से पेश करना चाहते है, इसी कारण हम यह प्रयोग कर रहे
है. इस समय सुंबरान पत्रीका के कार्यकारी संपादक अशोक अबुज तथा अनेक गनमान्य
व्यक्ती मौजूद थे.

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अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com