दूसरा
और अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि आम मुसलमान मर्द भी यही सोचता है कि तीन तलाक
उसका इस्लामी अधिकार है और इसका इस्तेमाल जायज है। जबकि सच इससे पूरी तरह विपरीत
है। हम आये दिन अखबारों में पढ़ते हैं की कैसे किसी शौहर ने बीवी को तीन बार तलाक
कह दिया और क्षण भर में उसको अपनी जिंदगी से हमेशा के लिए अलग कर दिया। इतना ही
नहीं, आजकल इंटरनेट के युग में एसएमएस और ईमेल पर तलाक देने की घटनाएं भी घट
रहीं हैं।
संवाद और सुलह पर जोर
पवित्र कुरान में तलाक को न करने लायक काम का दर्जा दिया
गया है। यही वजह है कि इसको खूब कठिन बनाया गया है। तलाक देने की एक विस्तृत
प्रक्रिया दर्शाई गई है। परिवार में बातचीत, पति-पत्नी के बीच संवाद और
सुलह पर जोर दिया गया है। पवित्र कुरान में कहा गया है कि जहां तक संभव हो,
तलाक न दिया जाए और यदि तलाक देना जरूरी और अनिवार्य हो जाए तो कम
से कम यह प्रक्रिया न्यायिक हो। इसके चलते पवित्र कुरान में एकतरफा या सुलह का
प्रयास कि ए बिना दिए गए तलाक का जिक्र कहीं भी नहीं मिलता। इसी तरह पवित्र कुरान
में तलाक प्रक्रिया की समय अवधि भी स्पष्ट रूप से बताई गई है। खड़ा-खड़ी या
इंस्टैंट तलाक का सवाल ही नहीं उठता। खत लिखकर या टेलीफोन पर एकतरफा और जुबानी
तलाक की इजाजत इस्लाम कतई नहीं देता। एक बैठक में या एक ही वक्त में तलाक दे देना
गैर-इस्लामी है। तो फिर समाज और समाज के रखवाले इस बदी पर रोक क्यों नहीं लगाते?
हमारे लीडर क्यों ऐसे शौहरों को दंडित नहीं करते? क्यों इनके खिलाफ फतवे जारी नहीं होते? काश, कश्मीर के मुफ्ती बशीरुद्दीन लड़कियों के संगीत गाने पर मनाही की जगह ऐसे
पतियों के खिलाफ फतवा देते!
मध्यस्थता की जरूरत
मध्यस्थता की जरूरत
तलाक के लिए विधिवत प्रक्रिया और दो गवाहों की मौजूदगी को
पवित्र कुरान में जरूरी बताया है (65 : 1-3)। यही नहीं, 4
: 35 में तलाक देने से पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया को अनिवार्य
दर्शाया गया है। आपको एकतरफा और जुबानी तलाक पर ताज्जुब होगा, जब आप पवित्र कुरान की आयतों पर एक नजर डालेंगे! तलाक की प्रक्रिया का
जिक्र कुछ यों मिलता है। यदि पति-पत्नी में घरेलू असहमति हो तो पति का फर्ज बनता
है कि वह पत्नी को बातचीत से समझाकर मामले को हल करने की कोशिश करे। यदि इससे
मामला हल न हो तो पति-पत्नी को चाहिए कि वे दोनों शारीरिक दूरी रखें। इससे हो सकता
है कि ठंडे दिमाग से सोचने पर दोनों में एक-दूसरे के प्रति अपनेपन की भावना लौट
आए। यदि इस पर भी निकटता नहीं बनती तो पति को चाहिए कि वह फिर एक बार पत्नी से
संवाद करे और यदि उसके बाद भी पत्नी रूठी रहे तो पति का फर्ज है कि वह दोनों
परिवारों से एक-एक मध्यस्थ को बुलवाए (4 : 34, 35)।
यहां बात साफ है कि पवित्र कुरान का जोर पति-पत्नी में संवाद और उसमें लगने वाले समय पर है। साथ ही इसमें पति की जिम्मेदारी ज्यादा रखी गई है। दोनों परिवार के बड़ों की मध्यस्थता, उनके अनुभव और सूझबूझ पर भी जोर दिया गया है। खास बात यह है कि यहां दिल-दिमाग, आपसी प्रेमभाव और न्याय पर जोर दिया गया है। यदि संवाद और सुलह की कोशिशें भी नाकाम हों तो फिर पवित्र कुरान में तलाक की लंबी प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है (2 : 228-232, 65 : 1-4)। इसके अनुसार पति के लिए सबसे पहले समाधान की सभी कोशिशें करना अनिवार्य है। ये कोशिशें नाकाम रहें तो पति अपनी पत्नी को पहली तलाक दे सकता है। पहली तलाक के बाद उसे महीने भर का इंतजार करना है। उसके बाद वह दूसरी और फिर इतनी ही अवधि के बाद तीसरी तलाक दे सकता है। तीनों तलाकों के बीच के समय को इद्दत कहा गया है। इस समय काल का मकसद यही है कि पति-पत्नी के बीच सुलह हो जाए और दोनों वापस साथ रहने लगें। साफ है कि गुस्से में, नशे की हालत में या एक ही वक्त दी जाने वाली किसी भी किस्म की तलाक अवैधानिक और गैर-इस्लामी है।
यहां बात साफ है कि पवित्र कुरान का जोर पति-पत्नी में संवाद और उसमें लगने वाले समय पर है। साथ ही इसमें पति की जिम्मेदारी ज्यादा रखी गई है। दोनों परिवार के बड़ों की मध्यस्थता, उनके अनुभव और सूझबूझ पर भी जोर दिया गया है। खास बात यह है कि यहां दिल-दिमाग, आपसी प्रेमभाव और न्याय पर जोर दिया गया है। यदि संवाद और सुलह की कोशिशें भी नाकाम हों तो फिर पवित्र कुरान में तलाक की लंबी प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है (2 : 228-232, 65 : 1-4)। इसके अनुसार पति के लिए सबसे पहले समाधान की सभी कोशिशें करना अनिवार्य है। ये कोशिशें नाकाम रहें तो पति अपनी पत्नी को पहली तलाक दे सकता है। पहली तलाक के बाद उसे महीने भर का इंतजार करना है। उसके बाद वह दूसरी और फिर इतनी ही अवधि के बाद तीसरी तलाक दे सकता है। तीनों तलाकों के बीच के समय को इद्दत कहा गया है। इस समय काल का मकसद यही है कि पति-पत्नी के बीच सुलह हो जाए और दोनों वापस साथ रहने लगें। साफ है कि गुस्से में, नशे की हालत में या एक ही वक्त दी जाने वाली किसी भी किस्म की तलाक अवैधानिक और गैर-इस्लामी है।
कब
तक चलेगी नाइंसाफी
बीते दिसंबर में मुंबई में एक सम्मेलन हुआ था, जहां
देशभर से ऐसी मुस्लिम महिलाएं आई थीं जिनको उनके पतियों ने एकतरफा जुबानी तलाक
देकर घर से निकाल दिया था। उन्होंने जो आपबीती सुनाई उससे मालूम होता है कि
कैसे-कैसे मामूली कारणों को आधार बना कर पति खडे़-खडे़ बीवियों को तलाक दे देते
हैं। किसी ने पोस्ट के जरिए, किसी ने ईमेल से, किसी ने एक फटी हुई पर्ची पर लिख कर या मां-बाप से कहलवा के, धोखे से हस्ताक्षर लेकर, तो किसी ने फोन पर अपनी बीवियों
को तलाक दे दिया। इनमें से ज्यादातर किस्सों में तलाक की कोई वजह ही नहीं थी,
सिवाय इसके कि पति की पसंद बदल गई या पत्नी से मन भर गया! जाहिर है,
यहां सुलह-समाधान की प्रक्रिया का सवाल ही नहीं उठता! कहने की जरूरत
नहीं कि ये सारे मर्द गैर-इस्लामी काम कर रहे हैं और मुस्लिम औरतों के साथ पूरी
तरह से नाइंसाफी हो रही है! बावजूद इसके कि पवित्र कुरान में सारे हक दिए गए हैं!
बदलाव की उम्मीद किससे रखें? धर्मगुरुओं से, पुरुष प्रधान समाज से या फिर खुद औरतों से?
जकिया सोमन
(जकिया सोमन भारतीय मुस्लिम
महिला आन्दोलन की संस्थापक सदस्य हैं)
सभार - नवभारत टाइम्स | Feb 7, 2013

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अपनी बात

- कलीम अजीम
- कहने को बहुत हैं, इसलिए बेजुबान नही रह रह सकता. लिखता हूँ क्योंकि वह मेरे अस्तित्व का सवाल बना हैं. अपनी बात मैं खुद नही रखुंगा तो कौन रखेगा? मायग्रेशन और युवाओ के सवाल मुझे अंदर से कचोटते हैं, इसलिए उन्हें बेजुबान होने से रोकता हूँ. मुस्लिमों कि समस्या मेरे मुझे अपना आईना लगती हैं, जिसे मैं रोज टुकडे बनते देखता हूँ. Contact : kalimazim2@gmail.com