मौलाना आज़ाद ने ‘भारतरत्न’ लेने से इनकार क्यों किया?


मौलाना आज़ाद भारत के उस मना स्वतंत्रता सेनानी में गिने जाते हैं, जिन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई में अपनी जान कि बाजी लगाई थी। आज़ाद किसी एक धर्म विषेश के नेता नही थे, बल्कि भारत के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार प्राप्त कराने वाले थे।

उन्होंने भारत कि सांस्कृतिक तथा शैक्षिक पहचान दिलाने के लिए अलग-अलग संस्थाओ का निर्माण कराया। जिसे आज भी उच्च कोटी कि संस्थाए कहा जाता हैं।

मौलाना आझाद को भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों के लिए जाना जाता है। भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ लेने से इनकार करने वाला यह महान विभूती का सबको (​काँग्रेस तक को) विस्मरण हुआ हैं। मौलाना लाख विरोध के बावजूद देश का विभाजन रोक न पाने का दर्द लेकर अपना बचा समय निकालते रहें। इसी दुविधा में वह हिंदू-मुस्लिम एकता का अपना महतप्रयास जारी रखा।

स्वतंत्रता के बाद, भारत में कुछ क्षेत्रों में दंगे भड़क उठे, जिससे मौलाना आझाद बहुत परेशान हुए। हजारों कोशिशों के बाद भी दंगों को नहीं रोका जा सका, उस समय उन्होने मुसलमानों से रुबरू उनका हौसला बढ़ाया। लेकिन दंगेखोरों का प्रबोधन करने में महात्मा गांधी की शक्ति कम पड गई थी। आखिरकार, उन्होंने उपवास का मार्ग स्वीकार कर लिया। परंतु मौलाना आझाद तड़प कर रोष प्रकट करते रहें।

अपनी आत्मकथा, ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में उन्होंने भारत के विभाजन के प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखा हैं। मौलाना के निधन के 30 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश में इस किताब के 30 पन्ने खोले गए। जिसमें मौलाना आजाद 1930 से 1950 तक विभिन्न मुद्दों पर तत्कालीन राजनीतिक नेताओं के साथ अपने मतभेदों को दर्ज करते हैं। इस पृष्ठों में, उन्होंने भारत और पाकिस्तान के विभाजन को कौन-कौन जिम्मेदार हैं इसकी चर्चा की हैं।

मौलाना आजाद ने सीधे तौर पर भारत के विभाजन के लिए नेहरू और सरदार पटेल को जिम्मेदार ठहराया हैं। असगरली इंजीनियर कहते हैं, ‘इंडिया विन्स फ़्रीडम’ के 30 पन्नों के बिना, मौलाना आझाद के असल व्यक्तित्व का पता नहीं चलता। धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों की मांग का मूल और उसके कारणों को समझने के लिए यह 30 पृष्ठ बहुत महत्वपूर्ण हैं।

भारत-पाक विभाजन के गहरे घाव से मौलाना आजाद बहुत ज्यादा आहत थे। यही एक वजह हैं उन्होंने भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ को खुदसे अलग रखा, ऐसा माना जाता है। आझाद के कई जीवनीकार मौलाना के इस भूमिका को संमती प्रदान करते हैं।



मौलाना आजाद के भारत रत्न की अस्वीकृति पर कई अलग-अलग राय रहे हैं। इस सन्मान को अस्वीकार करने का एक अन्य कारण आजाद के वंशज (भाई के पडपोते) और वरिष्ठ पत्रकार फिरोज बख्त अहमद द्वारा दिया गया है। वे लोकसभा टीव्ही के विषेश कार्यक्रम में कहते हैं,

“जब 1956 में पंडित नेहरू ने खुद भारत रत्न पुरस्कार प्राप्त किया, तो उनको खयाल आया कि मौलाना आजाद को भी यह सन्मान दिय़ा जाए। उन्होंने मौलाना के पास जाकर दबे अल्फाज ने कहां कि भारत को स्वतंत्र कराने में आपका बड़ा मौलिक कार्य रहा है, इसी तरह हिन्दू मुस्लिम एकता को बरकरार रखने में तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने के लिए भी आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसलिए मैं चाहता हूं कि आप मेरे कहने से ‘भारत रत्न’ कबूल कर ले।”

फिरोज बख्त आगे कहते हैं, “इस पर मौलाना ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘देखो पंडित मैं इसको कबूल नहीं करूंगा; क्योंकि मैं उस कमेटी का मेंबर हूँ जो ​​दूसरों को यह अवार्ड देती है इसलिए मेरा तो सवाल ही नहीं पैदा होता। मैं तो कहता हूँ कि हम सबको इस सन्मान से खुद को अलग रखना चाहीए, इससे इस सन्मान की मौलिकता और आदर बरकरार रहेगा, मैं कहुंगा की आपको भी इस सन्मान से खुदको अलग रखना चाहिए।” (लोकसभा टीवी, 18 नवंबर 2015)

32 साल बाद 1992 में, मौलाना आजाद को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय हैं कि आजाद ने मुस्लिम समुदाय को काँग्रेस से जोड़ने के लिए धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा कहा था, वही काँग्रेस जिसने मौलाना को भारत रत्न सन्मान पोस्ट से भिजवाकर बेदखल किया।

इस पर उनके परिवार के सदस्यों ने तत्कालीन काँग्रेस सरकार पर नाराजगी जाहीर की थी। मौलाना के पोते फिरोज अहमद बख्त ने पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया था।

खास बात यह है कि उसी साल यह सन्मान आजाद के साथ जेआरडी टाटा, सत्यजीत रॉय, अरुणा असफअली को दिया था। दूसरों को बडे समारोह में सम्मानित किया गया लेकिन आजाद को डाक द्वारा भेजा गया।



भारत रत्न सम्मान समारोह राष्ट्रपति भवन में होता है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्रता के लिए अपने माता-पिता या अपनी पत्नी की परवाह नहीं की, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपना पूरा जीवन देश के प्रति समर्पित कर दिया, उसे डाक द्वारा सन्मान भेजा गया।

दरअसल, आज़ाद के पोते नुरुद्दीन अहमद उस समय जिन्दा थें। वह मौत के करीब थे, बिस्तर पर लेटे थे। काँग्रेस सरकार उन्हें घर जाकर यह सम्मान दे सकती थी। जो कि परिवार के सदस्य होने के नाते इस सन्मान के असली हकदार थे।

वास्तव में, आजाद के समक्ष भारत रत्न ही क्या बल्कि ‘नोबेल अवार्ड’ सन्मान भी फीका पड़ सकता हैं। क्योंकि आजाद का कार्य और प्रसिद्धि उस पदक से कहीं अधिक थी। सही बात करे तो काँग्रेस ने मौलाना आजाद को यह पुरस्कार से सम्मानित कर उनका अपमान किया था।

बीजेपी सरकार 2016 में सावरकर को भारत रत्न देना चाहती थी। उस समय, भाजपा के केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मौलाना के नाम का इस्तेमाल सावरकर के प्यादा के रूप में इस्तेमाल कर एक राजनीतिक चाल चली थी।

उन्होने कहां की काँग्रेस ने मौलाना आजाद और सरदार पटेल को सही ‘भारत रत्न’ क्यों नही दिया? भाजपा को शायद पता नहीं है कि मौलाना आजाद नेहरू के सबसे अच्छे दोस्त थे और उन्होंने ही भारत रत्न स्वीकार करने से दृढ़ता से मना कर दिया था।

आज की काँग्रेस और मुस्लिम राजनीति को देखते हुए, मौलाना आज़ाद के लिए यह कहना दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि उनको किसी धर्म विषेश के अंदर प्रतिबंधित किया गया हैं। काँग्रेस ने मौलाना आजाद को जयंती और पुण्यतिथि तक सीमित कर दिया है। और मुसलमानों ने उन्हे शहर के चौराहे सौंदर्यीकरण के लिए नामफलक के रूप में इस्तेमाल किया हैं।

आज भारतीय मुस्लिम समुदाय काँग्रेस के ‘टोकनिझम नीति’ से अलग-थलग पड़ गया है। आज के सांप्रदायिक वातावरण में काँग्रेस की मुसलमानों के प्रति भूमिका को देखकर आजाद याद आते हैं।

आजाद ने तर्क दिया कि काँग्रेस के साथ जोडकर लेना मुस्लिम समुदाय का धार्मिक कर्तव्य हैं। दुर्भाग्य से आज, मुस्लिम समुदाय और काँग्रेस पार्टी की तुलना करते समय, चोटी का काँग्रेस विरोध मुसलमानों के मन में जगह बना चुका हैं।



आज, सामान्य मुस्लिम समुदाय सोचता है कि अगर काँग्रेस मुसलमानों के प्रति उसका भेदभावपूर्ण रवैय्या देखकर लगता हैं कि काँग्रेस को छोड देने का सही समय आया है। मौलाना आज़ाद की तरह आज के काँग्रेस की राजनीति में कोई मुस्लिम नेतृत्व नहीं है।

यहीं वजह हैं कि आज मौलाना आजाद के वंशज फिरोज बख्त अहमद भाजपा का खुलकर समर्थन करते हैं। भारतीय जनता पार्टी के रहमो करम के साए में वे हैदराबाद के मौलाना आजाद नेशनल युनिवर्सिटी का चान्सलर बने हैं।

आज मुसलमानों के प्रति भाजपा की असहनीय राजनीति के कारण काँग्रेस को लगता है कि हमारे अलावा उनके (मुसलमानों) के पास कोई औऱ विकल्प नहीं है। यही कारण है कि मुसलमान लिडरोंसहित काँग्रेस के सभी नेतागण भाजपा की मुस्लिम विरोधी राजनीति पर चुप हैं।

क्या इसी दिन देखने के लिए हजारों मुसलमानों ने आजादी के लिए अपने प्राणों कि आहुती दी थी? बाई चॉईस भारतीयता का चुनाव को स्वीकार करने वाले मुसलमान भाजपा की घृणित राजनीति के लक्ष्य बन गए हैं।

ऐसे समय में मौलाना आजाद द्वारा कहे गए हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयोग को अमल में लाना जरूरी हैं। ऐसे माहौल में, मौलाना आजाद ने आचरण मे लाया ‘उम्मतुल वहीदा’ जैसा सर्वधर्म समभाव का रास्ता कितना प्रभावी हैं, यह समझ में आता हैं।

कलीम अज़ीम, पुणे
मेल:kalimazium2@gmail.com

वाचनीय

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